छठ में प्रत्यूषा पूजा

संध्या अर्घ्य में क्यों करते हैं सूर्य की दूसरी पत्नी प्रत्यूषा की पूजा


हमारे देश में छठ पूजा का पर्व सूर्य और छठी मैया की उपासना का प्रमुख पर्व है ये चार दिनों तक चलता है। यह पर्व विशेष तौर पर बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई वाले हिस्सों में धूमधाम से मनाया जाता है। कार्तिक शुक्ल की षष्ठी के दिन डूबते सूर्य को अर्घ्य देकर सूर्य देव की दूसरी पत्नी प्रत्यूषा का पूजन करते हैं। मान्यता है कि प्रत्यूषा संध्याकाल की देवी हैं और उनकी उपासना से संध्याकालीन शांति और समृद्धि प्राप्त होती है। आइए जानते हैं इस पूजा का पूरा विधि-विधान और प्रत्यूषा पूजन के महत्व के बारे में।


जानिए कौन है सूर्य की दूसरी पत्नी? 


पौराणिक कथा के अनुसार सूर्य देव की दो पत्नियां थीं संज्ञा और छाया। लेकिन सूर्य देव के असीम तेज को सहन ना कर पाने के कारण संज्ञा ने अपने अन्य रूपों में विभाजित होकर अपने कुछ अंशों को प्रत्यूषा और छाया के रूप में स्थापित कर दिया। इनमें प्रत्यूषा संध्याकाल का प्रतिनिधित्व करती हैं। प्रत्यूषा का नाम ‘प्रत्यूष’ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘संध्या’ या ‘सूर्यास्त का समय’। उन्हें सूर्य देव के अस्तकाल के समय की देवी माना जाता है जो सूर्यास्त की ऊर्जा और शांति की प्रतीक हैं।


देवी प्रत्यूषा की पूजा का महत्व


प्रत्यूषा की पूजा छठ पूजा के तीसरे दिन डूबते सूर्य को अर्घ्य देते समय की जाती है। यह पूजा केवल सूर्य देव को नहीं बल्कि उनके अस्तकाल की देवी प्रत्यूषा को भी समर्पित होती है। माना जाता है कि इस पूजा के माध्यम से संध्या के समय की शांति और संतुलन को प्राप्त किया जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार संध्याकाल के समय प्रत्यूषा समस्त जीवों को ऊर्जा प्रदान करती हैं और अपने प्रभाव से शांति और समृद्धि का संचार करती हैं।


क्या है संध्या अर्घ्य का महत्व ? 


संध्याकाल की ऊर्जा प्रत्यूषा को सूर्य देव के अस्त होते समय की देवी के रूप में पूजा जाता है। ऐसा माना जाता है कि वह अपने प्रभाव से संध्या के समय को शांति और संतुलन प्रदान करती हैं। प्रत्यूषा की उपासना से जीवन में संतुलन और शांति आती है। जो हमें जीवन के उतार-चढ़ाव में स्थिरता बनाए रखने में सहायता करता है। वहीं, प्रत्यूषा की पूजा से यह विश्वास किया जाता है कि जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का आगमन होता है। उनके आशीर्वाद से व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।


संध्या अर्घ्य का विधि-विधान


अर्घ्य का समय: संध्या अर्घ्य सूर्यास्त के समय दिया जाता है। इसके लिए व्रती सूर्यास्त से पहले घाट पर पहुंचकर तैयारी करते हैं।

पूजा सामग्री: व्रती बांस की टोकरी या पीतल के सूप में ठेकुआ, चावल के लड्डू, गन्ना, फल, और अन्य पकवान रखकर अर्घ्य तैयार करते हैं। पूजा का सूप सिंदूर से सजा होता है।

अर्घ्य का विधान: सूर्य को दूध और जल अर्पित करते हुए अर्घ्य दिया जाता है। अर्घ्य के साथ ही प्रत्यूषा की भी पूजा होती है। इस दौरान छठी मैया के गीत गाए जाते हैं और संध्या काल की महिमा का बखान किया जाता है।

सूर्य देव और प्रत्यूषा का आह्वान: अर्घ्य देते समय सूर्य देव और उनकी पत्नी प्रत्यूषा का आह्वान किया जाता है, जिससे शाम के समय की शांति और सुख का आशीर्वाद प्राप्त हो।


प्रत्यूषा और छठ पूजा का संबंध


भक्त जब सूर्य देव को डूबते समय अर्घ्य अर्पित करते हैं तो वे प्रत्यूषा देवी की भी उपासना करते हैं। यह पूजा संध्या काल को संतुलित, शांतिपूर्ण और सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण बनाने का प्रतीक है। यह पूजा हमें यह संदेश देती है कि सूर्यास्त के समय की शांति को स्वीकार कर अपने जीवन में संतुलन और सकारात्मकता को बनाए रखना चाहिए। 


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