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यजुर्वेद संस्कृत के दो शब्द यजुष् और वेद शब्द की संधि से बना हुआ शब्द है। यज का अर्थ होता है समर्पण जिसमें यज्ञ यानी हवन को समर्पण की क्रिया माना जाता है। सरल भाषा में कहा जाए तो यजुर्वेद वह पुस्तक या ग्रंथ है जिसके अंदर हमें हवन करने के तौर तरीके और उनसे जुड़े ज्ञान के बारे में जानकारी मिलती है। ये बाद मूल रूप से यज्ञ की प्रकिया और उसे करने के सही सूत्रों के बारे में बताता है। इसलिए इस वेद को कर्मकांड प्रधान ग्रंथ भी कहा जाता है। पौराणिक धर्मग्रंथों में राजसूय, वाजपेय, अग्रिहोत्र, अश्वमेध जैसे यज्ञ की कथाएं सामने आती हैं, और इन सब कर्मों की विधि और जरूरी तत्व का पूरा ज्ञान यजुर्वेद में ही मिलता है। यजुर्वेद को चारों वेदों में ऋग्वेद के बाद दूसरा वेद माना जाता है। कुछ मान्यताओं के अनुसार यजुर्वेद में ऋग्वेद और अर्थववेद के मंत्र भी हैं लेकिन फिर भी इसे एक अलग ग्रंथ के रूप में ही माना जाता है। कुछ पौराणिक ग्रंथों के अनुसार ये भी कहा जाता है कि त्रेतायुग के समय केवल युजर्वेद ही अस्तित्व में था, इसलिए उस समय के किसी भी धार्मिक अनुष्ठान जैसे पुत्रकामेष्ठी यज्ञ या युद्ध पर जाने अथवा विजयी होकर लौटने का यज्ञ हो यजुर्वेद के मंत्रों का ही प्रयोग किया जाता था।
यजुर्वेद की मुख्य बात ये है कि यहां सभी वेदों में मंत्र गद्यात्मक यानी कविता की शैली में मिलते हैं, वहीं इस वेद के सभी मंत्र पद्यात्मक यानी कहानी की शैली में पाए जाते हैं।
यजुर्वेद की शाखाएं : यजुर्वेद की दो शाकाएं हैं -
शुक्ल यजुर्वेद - शुक्ल यजुर्वेद में केवल मूल मंत्रों का भंडार है जिसके लिए इसे शुक्ल यानी शुद्ध वेद कहा जाता है। शुक्ल यजुर्वेद की वर्तमान में दो शाखाएं शुक्लयजुर्वेदमाध्यन्दिनीयसंहिता और कान्वसंहिता हैं, जिनमें 40-40 अध्याय हैं।
इसके अलावा कुछ विद्वानों के अनुसार शुक्ल यजुर्वेद की काण्व, माध्यंदिन, बुधेय, शाकेय, कापीस, जाबाल, तापनीय, पोड्रवहा, परमावर्तिक, आवर्तिक, पाराशरीय,वैनेय, बौधेय एवं गालव नाम की 15 शाखाओं के बारे में जानकारी मिलती है।
कृष्ण यजुर्वेद - कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ विनियोग, मंत्रों की व्याख्या आदि भी मौजूद है। इसमें मंत्रों के अर्थ के साथ उनके प्रभाव के बारे में भी जानकारी दी गई है।
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