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देव्यथर्वशीर्षम् जिसे देवी अथर्वशीर्ष के नाम से भी जाना जाता है, चण्डी पाठ से पहले पाठ किए जाने वाले छह महत्वपूर्ण स्तोत्र का हिस्सा है। कवच, अर्गला, कीलक, वेदोक्त रात्रि सूक्त और तन्त्रोक्त रात्रि सूक्त के बाद देव्यथर्वशीर्ष का पाठ किया जाता है। ये दुर्गा सप्तशती के मुख्य अध्यायों का पाठ करने से पहले दिये गये क्रम में किया जाता है।
श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् का पाठ नवरात्रि के दौरान करना बेहद शुभ फलदायी होता है। इसके अलावा आप नीचे दिए गए समयानुसार पाठ कर सकते हैं।
श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् के अनुसार जो कोई साधक इसका अध्ययन करता है, उसे पाँचों अथर्वशीर्षों के जप का फल प्राप्त होता है। इस अथर्वशीर्ष को न जानकर जो प्रतिमा स्थापन करता है, वह सैंकड़ों लाख जप करके भी अर्चासिद्धि नहीं प्राप्त करता। जो इसका दस बार पाठ करता है, वह उसी क्षण पापों से मुक्त हो जाता है और महादेवी के प्रसाद से बड़े संकटों को पार कर जाता है। इसका सायंकाल में अध्ययन करने वाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल अध्ययन करने वाला रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। दोनों समय अध्ययन करने वाला निष्पाप होता है। मध्यरात्रि में तुरीय संध्या (जो की मध्यरात्रि में होती है) के समय जप करने से वाक् सिद्धि प्राप्त होती है। नयी प्रतिमा पर जप करने से देवता सान्निध्य प्राप्त होता है। प्राणप्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणों की प्रतिष्ठा होती है। भौमाश्विनी योग में महादेवी की सन्निधि में जप करने से महामृत्यु से तर जाता है।
ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति॥1॥
साब्रवीत् - अहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत्तः
प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यं च॥2॥
अहमानन्दानानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने।अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये।
अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि।अहमखिलं जगत्॥3॥
वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम्। अजाहमनजाहम्।
अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम्॥4॥
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि।अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि।अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ॥5॥
अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि।
अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि॥6॥
अहं दधामि द्रविणं हविष्मतेसुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते।
अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनांचिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्ममयोनिरप्स्वन्तः समुद्रे।
य एवं वेद।स दैवीं सम्पदमाप्नोति॥7॥
ते देवा अब्रुवन् -नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायैनियताः प्रणताः स्म ताम्॥8॥
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तींवैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम्।
दुर्गां देवीं शरणंप्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः॥9॥
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु॥10॥
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम्॥11॥
महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि।
तन्नो देवी प्रचोदयात्॥12॥
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः॥13॥
कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम्॥14॥
एषाऽऽत्मशक्तिः। एषा विश्वमोहिनी। पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा।
एषा श्रीमहाविद्या। य एवं वेद स शोकं तरति॥15॥
नमस्ते अस्तु भगवतिमातरस्मान् पाहि सर्वतः॥16॥
सैषाष्टौ वसवः। सैषैकादश रुद्राः।सैषा द्वादशादित्याः।
सैषा विश्वेदेवाःसोमपा असोमपाश्च।
सैषा यातुधाना असुरारक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः।
सैषा सत्त्वरजस्तमांसि।सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपिणी।
सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः।सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि।
कलाकाष्ठादिकालरूपिणी।तामहं प्रणौमि नित्यम्॥
पापापहारिणीं देवींभुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम्।
अनन्तां विजयां शुद्धांशरण्यां शिवदां शिवाम्॥17॥
वियदीकारसंयुक्तंवीतिहोत्रसमन्वितम्।
अर्धेन्दुलसितं देव्याबीजं सर्वार्थसाधकम्॥18॥
एवमेकाक्षरं ब्रह्मयतयः शुद्धचेतसः।
ध्यायन्ति परमानन्दमयाज्ञानाम्बुराशयः॥19॥
वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम्।
सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयकः।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः।
विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः॥20॥
हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातःसूर्यसमप्रभाम्।
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम्।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे॥21॥
नमामि त्वां महादेवींमहाभयविनाशिनीम्।
महादुर्गप्रशमनींमहाकारुण्यरूपिणीम्॥22॥
यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो नजानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया।
यस्या अन्तो न लभ्यतेतस्मादुच्यते अनन्ता।
यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यतेतस्मादुच्यते अलक्ष्या।
यस्या जननं नोपलभ्यतेतस्मादुच्यते अजा।
एकैव सर्वत्र वर्ततेतस्मादुच्यते एका।
एकैव विश्वरूपिणीतस्मादुच्यते नैका।
अत एवोच्यतेअज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति॥23॥
मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी।
ज्ञानानां चिन्मयातीता*शून्यानां शून्यसाक्षिणी।
यस्याः परतरं नास्तिसैषा दुर्गा प्रकीर्तिता॥24॥
तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम्।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम्॥25॥
इदमथर्वशीर्षं योऽधीते सपञ्चाथर्वशीर्षजपफलमाप्नोति।
इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चांस्थापयति - शतलक्षं प्रजप्त्वापि
सोऽर्चासिद्धिं न विन्दति।शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः।
दशवारं पठेद् यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते।
महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः॥26॥
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।
सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति।
निशीथे तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति।
नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासांनिध्यं भवति।
प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति।
भौमाश्विन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति।
स महामृत्युं तरति य एवं वेद। इत्युपनिषत्॥
॥ इति श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् सम्पूर्णम् ॥