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अथ तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम् (Ath Tantroktam Ratri Suktam)

अथ तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम् (Ath Tantroktam Ratri Suktam)

तन्त्रोक्तम् रात्रि सूक्तम् यानी तंत्र से युक्त रात्रि सूक्त का पाठ कवच, अर्गला, कीलक और वेदोक्त रात्रि सूक्त के बाद किया जाता है। तन्त्रोक्त रात्रि सूक्त के बाद देव्यथर्वशीर्षम् स्तोत्रम् का पाठ किया जाता है। ये सभी स्तोत्र महत्वपूर्ण हैं जो चण्डी पाठ शुरू होने से पहले पढ़े जाते हैं। तंत्रोक्त (तांत्रिक) रात्रि सूक्त दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में श्लोक 70 से श्लोक 90 तक दिया गया है, यह सूक्त भगवती योगमाया जो भगवान विष्णु की शक्ति हैं, उनकी स्तुति में ब्रह्मा जी ने रचित किया था। भगवती से मधु-कैटभ को मारने के लिए भगवान विष्णु को निद्रा से जगाने के लिए विनती की थी। तंत्रोक्त रात्रि सूक्त में देवी को जगत के स्वामी (विष्णु) को जगाने और उन्हें शीघ्र मार्ग दिखाने का आग्रह किया गया है। सूक्त में भगवान विष्णु को महान असुरों के बारे में बताने का भी आग्रह किया गया है, ताकि वे उनका वध कर सकें। 


तन्त्रोक्त रात्रिसूक्त का पाठ करने का शुभ दिन और समय 


  1. नवरात्रि के दौरान सुबह 4:00 से 6:00 बजे तक
  2. दोपहर 12:00 से 2:00 बजे तक (मध्याह्न)
  3. रात 9:00 से 11:00 बजे तक (रात्रि)


तन्त्रोक्त रात्रिसूक्त का पाठ करने से होते हैं ये लाभ 


  1. मानसिक शांति और स्थिरता प्राप्त होती है।
  2. आत्मविश्वास और साहस में वृद्धि होती है।
  3. देवी दुर्गा की कृपा और आशीर्वाद प्राप्त होता है।
  4. समस्याओं और दुखों से मुक्ति मिलती है।
  5. शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होता है।
  6. आध्यात्मिक ज्ञान और शांति प्राप्त होती है।
  7. बाधाओं और अवरोधों का नाश होता है।
  8. जीवन में सुख और समृद्धि आती है।
  9. दुर्भाग्य और दुर्निवास का नाश होता है।



स्तोत्र


ॐ विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्।

निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः॥1॥


ब्रह्मोवाच

त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका।

सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता॥2॥


अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः।

त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा॥3॥


त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्।

त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा॥4॥


विसृष्टौ सृष्टिरुपा त्वं स्थितिरूपा च पालने।

तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये॥5॥


महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः।

महामोहा च भवती महादेवी महासुरी॥6॥


प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी।

कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा॥7॥


त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा।

लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च॥8॥


खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा।

शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा॥9॥


सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी।

परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी॥10॥


यच्च किञ्चित् क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके।

तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा॥11॥


यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत्।

सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः॥12॥


विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च।

कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत्॥13॥


सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता।

मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ॥14॥


प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु।

बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ॥15॥


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