अथ देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् (Ath Devyaparadha Kshamapana Stotram)

देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्, माँ दुर्गा का एक महत्वपूर्ण स्तोत्र है। इसे आदि गुरु शंकराचार्य ने लिखा था। यह उनकी सर्वश्रेष्ठ और कानों को सुख देने वाली स्तुतियों में से एक है। यह एक क्षमा स्तोत्र है जिसमें साधक माता से कहता है कि सबका उद्धार करनेवाली कल्याणमयी माता ! मैं पूजा की विधि नहीं जानता , मेरे पास धन का भी अभाव है , मैं स्वभाव से भी आलसी हूँ तथा मुझ से ठीक–ठीक पूजा का सम्पादन हो भी नहीं सकता। इन सब कारणों से तुम्हारे चरणों की सेवा में जो त्रुटी हो गयी है, उसे क्षमा करना, क्योंकि कुपुत्र होना सम्भव है, किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती। अत: मुझसे कोई भी गलती हुई हो तो मुझे क्षमा कर देना। 


देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् पाठ करने का शुभ दिन और समय 


नवरात्रि के नौ दिनों में आप चाहें तो हर स्तोत्र के बाद इसका पाठ कर सकते हैं, क्योंकि यह क्षमा स्तोत्र है। इसका पाठ करके आप अपनी भूल के लिए या कोई गलती के लिए माता से क्षमा मांग सकते हैं। इसके अलावा भी कभी यदि आपको लगे कि कुछ गलती हुई है तो आप किसी भी दिन इस स्तोत्र का पाठ कर सकते हैं। समय की बात की जाए तो नीचे दिए गए समय में आप इस स्तोत्र का पाठ कर सकते हैं। 


1. नवरात्रि के दौरान सुबह 4:00 से 6:00 बजे तक (ब्रह्म मुहूर्त)

2. दोपहर 12:00 से 2:00 बजे तक (मध्याह्न)

3. शाम 4:00 से 6:00 बजे तक (संध्या)

4. रात 8:00 से 10:00 बजे तक (रात्रि)


देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् का पाठ करने से कई लाभ होते हैं, जैसे- 


1. देवी दुर्गा की रक्षा और संरक्षण प्राप्त होता है।

2. आत्मा की शुद्धि और पवित्रता होती है।

3. जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आते हैं।

4. समस्याओं का समाधान होता है।

5. आत्मज्ञान और आत्मसाक्षात्कार होता है। 

6. मां दुर्गा भूलवश हुई आपकी सारी गलतियों को माफ कर देती हैं। 


स्तोत्र 


न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो

न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः।

न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं

परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्॥1॥


विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया

विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।

तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥2॥


पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः

परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः।

मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥3॥


जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता

न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया।

तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥4॥


परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया

मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि।

इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता

निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम्॥5॥


श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा

निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः।

तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं

जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ॥6॥


चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो

जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः।

कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं

भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्॥7॥


न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे

न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः।

अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै

मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः॥8॥


नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः

किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः।

श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे

धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव॥9॥


आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं

करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि।

नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः

क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति॥10॥


जगदम्ब विचित्रमत्र किं 

परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि।

अपराधपरम्परापरं 

न हि माता समुपेक्षते सुतम्॥11॥


मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि।

एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु॥12॥


॥ इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥


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