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सर्वाणी शक्तिपीठ, तमिलनाडु (Sarvani Shaktipeeth, Tamil Nadu)

भगवान शिव का निमिष अवतार, क्यों बंद कर दिया मंदिर में पूर्वी द्वार से प्रवेश, बाणासुर से जुड़ी है देवी अम्मन की कथा


माता सती की पीठ और रीढ़ की हड्डी तमिलनाडु के कन्याकुमारी में गिरी। यह जगह सर्वाणी शक्तिपीठ या अम्मन देवी मंदिर के नाम से जानी जाती है। यहां देवी को कन्या देवी, कन्या कुमारी, भद्रकाली आदि नामों से जाना जाता है।



दक्षिण पर राज करती हैं देवी अम्मन


देवी को अम्मन कहे जाने के पीछे एक कथा है। बाणासुर नाम के राक्षस ने घोर तपस्या की और ब्रह्मा को प्रसन्न करके अमरता का वरदान मांगा। लेकिन भगवान ने कहा- तुम्हें अमरता नहीं मिल सकती, कुछ और मांगो। तो बाणासुर ने मांग की कि उसे कुंवारी कन्या के अलावा कोई न मारे। वर मिलते ही बाणासुर ने धरती पर उत्पात मचाना शुरू कर दिया और देवताओं को बंदी बना लिया।


देवताओं ने मां भगवती यानि माता पार्वती को अपनी व्यथा सुनाई जिसके बाद देवी ने राजा भरत के घर एक कन्या के रूप में जन्म लिया। राजा के आठ पुत्र और एक ही पुत्री थी। जब राजा भरत ने अपना राज्य सभी बच्चों में बराबर-बराबर बांट दिया, तो दक्षिण का राज्य उनकी पुत्री को मिला। पार्वती का रूप होने के कारण स्वाभाविक था कि देवी के मन में शिव को पति रूप में पाने की इच्छा जागी। उन्होंने तपस्या की और भोले शिव विवाह के लिए राजी हो गए।


विवाह ब्रह्म मुर्हूत यानी भोर से पहले हुआ। शिव शंकर रात्रि में बारात लेकर कैलाश से चले गए इधर देवताओं को भय सताने लगा कि यदि यह विवाह हो गया तो बाणासुर का वध असंभव हो जाएगा। भगवान शिव के आगमन में विलंब करना आवश्यक था इसलिए नारद मुनि की सहायता से मुर्गे ने पौ फटने से पहले ही बांग दे दी। इसे दिन निकलने का संकेत जानकर भगवान शिव कैलाश लौट गए। शिवजी के न आने के कारण बाणासुर ने अवसर देखकर बलपूर्वक इस सुंदर कन्या से विवाह करना चाहा।


देवी कन्या क्रोध में थी और बाणासुर उसे कष्ट देने लगा तब क्रोध में आकर देवी ने उससे युद्ध किया जिससे बाणासुर का वध हो गया। देवी आजीवन अविवाहित रहीं और कुशलतापूर्वक अपना दक्षिण का राज्य संभालने लगीं।


मंदिर में मूर्ति की स्थापना भगवान परशुराम ने की थी। यहां भगवान शिव को निमिष के नाम से पूजा जाता है जो इस शक्तिपीठ की रक्षा करते है।



मंदिर के अंदर 11 तीर्थ स्थल, भूल भुलैया जैसी आकृति


मंदिर के अंदर 11 तीर्थ स्थल हैं। अंदर के परिसर में तीन गर्भगृह गलियारे और मुख्य नवरात्रि मंडप है। अंदर से मंदिर की बनावट भूल भुलैया जैसी है।  माता की मूर्ति काले पत्थर की बनी है। जिसे लंबे हार, चमकीली नथ, बॉर्डर वाली साड़ी से सजाया गया है। कन्याकुमारी मंदिर के वास्तुकला द्रविड़  शैली की है, जिसमें काले पत्थर के खंभों पर नक्काशी की गयी है। मंदिर में कई गुंबज है जिनमें गणेश, सूर्यदेव, अय्यप्पा, स्वामी कालभैरव, विजय सुंदरी और बाला सुंदरी आदि देवी देवताओं की मूर्तियां हैं।


मंदिर परिसर में मूल गंगा तीर्थ नामक कुंआ है, जहां से देवी के अभिषेक का जल लाया जाता है। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर है, जो बंद रहता है। प्रवेश के लिए उत्तर द्वार का प्रयोग किया जाता है।   पूर्व द्वार वर्ष में केवल पांच बार विशेष त्योहारों के अवसर पर ही खुलता है। पूर्व द्वार बंद होने के पीछे ये कहानी है की देवी का हीरा अत्यंत तेजस्वी था तथा उसकी चमक दूर तक जाती थी। इससे प्रकाश स्तंभ का प्रकार समझ कर जहाज़ इस दिशा में आ जाते और चट्टानों से टकरा जाते थे।



देवी के नाम पर ही रखा गया कन्याकुमारी का नाम 


मंदिर का स्थापत्य लगभग 3000 वर्ष पुराना माना जाता है लेकिन इतिहासकारों का मानना है कि वर्तमान मंदिर आठवीं शताब्दी में पाण्ड्य सम्राटों ने बनवाया था। चोलाचेरी वेनाड और नायक राजवंशों के शासन के दौरान समय-समय पर इसका पुनर्निर्माण हुआ। राजा मार्तंड वर्मा के राज्यकाल में कन्याकुमारी का इलाका त्रावणकोर राज्य का हिस्सा बन गया था, जिसकी राजधानी पद्मनाभपुरम थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वर्ष 1956 में ये तमिलनाडु का एक जिला बन गया। कन्याकुमारी जिले का नाम देवी कन्याकुमारी के नाम पर ही रखा गया है।


मंदिर प्रतिदिन सुबह 6:00 बजे से 11:00 बजे तक और शाम को 4:00 बजे से रात 8:00 बजे तक भक्तों के लिए खुला रहता है।


कन्याकुमारी का निकटतम हवाई अड्डा 67 किमी दूर त्रिवेंद्रम है। कन्याकुमारी सड़क और रेल मार्ग से दक्षिण भारत के प्रमुख शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है।


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