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यह व्रत अति प्राचीन है। इसका प्रचलन महाभारत से भी पूर्व का है। यह व्रत सौभाग्यवती महिलाओं के लिए उत्तम माना गया है। सामान्य मान्यता के अनुसार सुहागिनें इस व्रत को अपने सुहाग (पति) की दीर्घायु के लिये रखती हैं। कहा जाता है इसे पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने भी किया था। समय यह व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष को चन्द्रोदय चतुर्थी में किया जाता है।
कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को करवा चौथ कहते हैं। सुहागवती स्त्रियों के लिए यह बहुत ही श्रेष्ट व्रत है। स्त्रियां इस व्रत को पति की दीर्घजीवी होने के लिए करती हैं। इस दिन सुहागन स्त्रियां चावल पीस कर, दीवार पर करवा चौथ बनाती हैं, जिसे वर कहते हैं। इस करवा चौथ में पति के अनेक रूप बनाये जाते हैं, तथा सुहाग की वस्तुएं, जैसे-चूड़ी, बिन्दी, बिछुआ, मेंहदी और महावर आदि के साथ-साथ दूध देने वाली गाय, करुआ बेचने वाली कुम्हारी, महावर लगाने वाली नाइन, चूड़ी पहनाने वाली मनिहारिन, सात भाई और उनकी इकलौती बहन, सूर्य, चन्द्रमा, गौरा और पार्वती आदि देवी-देवताओं के भी चित्र बनाये जाते है। सुहागन स्त्रियों को इस दिन निर्जल व्रत रखना चाहिए। रात्रि को जब चन्द्रमा निकल आये, तब उसे अर्घ्य देकर भोजन करना चाहिए। पीली मिट्टी की गोरा बनाकर उसकी पूजा करनी चाहिए।
(नोट - यदि दीवार पर करवा चौथ बनाने में कोई असुविधा हो, तो करवा चौथ का चित्र बाजार से लाकर दीवार पर चिपकाया जा सकता है)
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