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वैसे तो पूरे मध्यप्रदेश में प्राचीन वास्तुकला और हस्तशिल्प का अद्भुत भंडार देखने को मिलता है लेकिन राज्य में वास्तुशिल्प का सही और बेहरतीन उदाहरण खजुराहो में मिलता है। पौराणिक काल में खजुराहो में बने मंदिरों और अन्य दर्शनीय स्थलों का निर्माण इस तरह से किया गया है कि दर्शक जब उस कला को अपनी आंखों से देख रहा होता है तो उसे कुछ समय के लिए अपनी आंखों पर भरोसा करना थोड़ा सा असंभव प्रतीत होता है। खजुराहो के मंदिरों की सूची में यूं तो कई मंदिरों के नाम हैं लेकिन यहां का लक्ष्मण मंदिर अपने आप एक अद्भुत वास्तुकला और शिल्प को अलौकिक उदाहरण है।
खजुराहो का इस विशेष मंदिर का निर्माण लगभग 930 ईस्वी में चंदेल वंश की सांतवी पीढ़ी के राजा यशोवर्मन ने करवाया था। कुछ लोगों को मंदिर के नाम से ये लगता है कि ये मंदिर भगवान श्री राम के छोटे भाई लक्ष्मण का मंदिर है लेकि ये सही नहीं है, ये मंदिर तो बैंकुठेश्वर भगवान विष्णु को समर्पित है। मंदिर का लक्ष्मण मंदिर इसलिए पड़ा कि इस मंदिर का निर्माण करवाने वाले राजा यशोवर्मन का एक नाम लक्ष्मण वर्मन भी थी इसलिए ये मंदिर उन्हीं राजा की याद में लक्ष्मण मंदिर कहा जाने लगा। ये मंदिर पंचायतन शैली ने बना हुआ है जो खजुराहो स्थित सभी मंदिरों में सबसे ज्यादा संरक्षित और सुरक्षित है। कहा जाता है कि इस मंदिर के निर्माण के लिए राजा ने मथुरा से 16 हजार शिल्पकारों को बुलवाया था जिन्होंने करीब सात वर्ष में इस मंदिर को बनाकर तैयार किया था, हालांकि कुछ जगह इस मंदिर के निर्माण के समय में 20 वर्षों का समय लगने की बात भी सामने आती है।
ये मंदिर खजुराहो की संस्कृती, वास्तुकला और शिल्पकला के साथ नक्काशी का अद्भुत उदाहरण है, मंदिर को देखकर ये एहसास होता है कि आज टेक्नोलॉजी और बड़ी-बड़ी मशीने से काम करने वाले जमाने उस समय की इंजिनियरिंग कितनी प्रतिभावान रही होगी जो उस समय इस मंदिर को इतना अद्भुत बना दिया जब पर्याप्त संसाधन भी नहीं थे। इस मंदिर की लंबाई 29 मीटर है तथा ये 13 मीटर चौड़ा है। मंदिर की स्थापत्य तथा वास्तुकला के आधार पर बलुआ पत्थरों से बनाया गया है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की मूर्ति स्थित है जो अलंकृत तोरण के बीच में है। पूरा मंदिर एक ऊंची शिला पर बना है जिस कारण मंदिर में विकसित इसके सभी भाग देखे जा सकते हैं। मंदिर के अर्धमंडप, मंडप, महामंडप और गर्भगृहकी बाहरी दीवारों पर कुछ प्रतिमाएं बनीं हुईं है जिन्हें देवी-देवतागण, युग्म और मिथुन कहा जाता है। इसके अलावा मंदिर के बाहरी हिस्से की दीवारों तथा चबूतरे पर युद्ध, शिकार, हाथी, घोड़े, सैनिक, अपसराओं और मिथुनाकृतियों की नक्काशी की गई है।
मंदिर में प्रवेश करते समय सबसे पहले आपको मुख्य द्वार के आगे एक शिलालेख मिलता है जिस पर मंदिर के इतिहास के बारे में पूरी जानकारी दी गई है। जिसके बाद मंदिर की सीढ़ियों के पास सिंह की आकृति वाली मूर्तियां देखने को मिलती है, इसके बाद सीढ़ियों से ऊपर चढ़ने के बाद आप मंदिर के भीतर प्रवेश करते हैं जहां से मंदिर का अलौकिक शिखर और वास्तुकला दिखाई देने लगती है। मंदिर के मुख्य मंडप के बाहर तीन और छोटे-छोटे मंदिर भी बने हुए हैं। इसके अलावा मंदिर के प्रवेश द्वार से अंदर गुम्मद के भीतर हिस्सों और दिवारों के साथ गर्भगृह की दीवारों पर भी बेहतरीन नक्काशी करके मूर्तियों को उकेरा गया है। मंदिर के गर्भगृह के भीतर भगवान विष्णु की एक प्रतिमा लगी हुई है जिस पर मुख्य प्रवेश द्वार से पहुंचने वाली रौशनी पड़ती है। पूरे गर्भगृह में अंधेरा होने से मूर्ति पर पड़ता प्रकाश बहुत अलौकिक और दिव्य प्रतीत होता है। जानकारी के अनुसार गर्भगृह में रखी भगवान विष्णु की मूर्ति का कुछ अंश खंडित है जिस वजह से मंदिर में पूजा पाठ नहीं किया जाता है।
मंदिर की बाहरी दीवारों पर कामूसत्र और मैथुनी मूर्तियां अंकित हैं, कहा जाता है कि प्राचीनकाल में मानव उन्मुक्त और खुलेपन से इन विषयों पर बात करता था लेकिन समय के साथ साथ ये नैतिकता और धर्मों के चलते गोपनीय विषय होता चला गया। अधिकतर धर्मों ने काम (सेक्स) का विरोध कर इसका तिरस्कार किया है जिस वजह से इसे अनैतिक और धर्मविरुद्ध माना जाने लगा लेकिन खजुराहो स्थित मंदिरों में इन कामुक मूर्तियों को उकरने का एक बड़ा रहस्य ये बताया जाता है कि इन मूर्तियों को उस समय इसलिए उकेरा जाता था जिससे भारतीय स्थापत्य और कामसूत्र की सटीक जानकारी लोगों को मिल सका। हिंदू धर्म में काम को एक दर्शन के रूप में देखा जाता है और पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यदि व्यक्ति काम का सही ढंग से और सही अवधि में उपयोग करे तो ये एक अलौकिकता का प्रतीक कहा जाता है। मंदिर में बनी मूर्तियों से जरा भी अश्लीलता का आभास नहीं होता। जबकि मंदिरों में ये मूर्तियां सिर्फ लोगों को कामसूत्र की सही शिक्षा देने के लिए बनाई गईं थीं।
इसके अलावा ये भी कहा जाता है कि चंदेल राजाओं के काल में इस क्षेत्र में कुछ तांत्रिक समुदाय की वामगर्मी शाखा का वर्चस्व था जो योग तथा भोग दोनों को मोक्ष का साधन मानते थे। ये मूर्तियों उनकी क्रिया-कलापों की वजह से ही बनाई गई थीं। स्त्रों के अनुसार संभोग भी मोक्ष प्राप्त करने का एक साधन हो सकता है, लेकिन यह बात सिर्फ उन लोगों पर लागू होती है, जो सच में ही मुमुक्षु हैं। बहरहाल, स्थापत्य की इस विधा के मूल में कारण और औचित्य चाहे कुछ भी रहा हो, यह तो निश्चित है कि उस काल की संस्कृति में ऐसी कला का भी महत्वपूर्ण स्थान था ।
खजुराहो के मंदिर निर्माण के संबंध में कहा जाता है कि एक बार राजपुरोहित हेमराज की पुत्री हेमवती संध्या की बेला में सरोवर में स्नान करने पहुंची। उस दौरान आकाश में विचरते चंद्रदेव ने जब स्नान करती हेमवती को देखा तो वे उस पर आसक्त हो गए और उसी पल वे रूपसी हेमवती के समक्ष प्रकट हुए और उससे प्रणय निवेदन किया। इसके बाद दोनों के मधुर संयोग से जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसने ही बड़े होकर चंदेल वंश की स्थापना की। समाज के भय से हेमवती ने उस बालक को वन में करणावती नदी के तट पर पाला और उसका नाम चंद्रवर्मन रखा।
बड़ा होकर चंद्रवर्मन एक प्रभावशाली राजा बना। एक बार जब चंद्रवर्मन सो रहा था तो उसकी माता हेमवती उसके सपने में आईं और ऐसे मंदिरों के निर्माण के लिए प्रेरित किया, जो समाज को ऐसा संदेश दें कि जीवन के अन्य पहलुओं के समान कामेच्छा भी एक अनिवार्य अंग है और इस इच्छा को पूर्ण करने वाला इंसान कभी पापबोध से ग्रस्त न हो।
ऐसे मंदिरों के निर्माण के लिए चंद्रवर्मन ने खजुराहो को चुना। और इसे अपनी राजधानी बनाकर उसने यहां 85 वेदियों का एक विशाल यज्ञ किया। बाद में इन्हीं वेदियों के स्थान पर 85 मंदिर बनवाए गए जिनका निर्माण चंदेल वंश के आगे के राजाओं द्वारा जारी रखा गया। फिलहाल इन 85 मंदिरों में से आज यहां केवल 22 मंदिर शेष हैं। 14वीं शताब्दी में चंदेलों के खजुराहो से प्रस्थान के साथ ही सृजन का वह दौर खत्म हो गया।
मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक शिलालेख लिखा हुआ है जिसमें लिखा है कि - विष्णु के वैकुण्ठ रुप को समर्पित इस मन्दिर का निर्माण चंदेल शासक यशोवर्मन द्वारा लगभग ई। 930 से 950 के मध्य किया गया था। यह पंचायतन शैली का संधार मन्दिर है। सम्पूर्ण मन्दिर एक ऊँचे चबूतरे पर निर्मित हैं। इस मन्दिर में विकसित मन्दिर के सभी भाग देखे जा सकते हैं, जिनमें मुख-मण्डप, मण्डप, महामण्डप, अन्तराल तथा गर्भगृह है। इस मन्दिर के विन्यास में अन्य मन्दिरों के समान ही इसका पंचरथ गर्भगृह है, तथा तथा मुख्य शिखर लघु शिखरों के समूह से युक्त है। मन्दिर की बाहरी दीवार पर अलंकृत स्तम्भों से युक्त वातायन निर्मित है। दीवारों पर प्रतिमाओं की दो पंक्तियां हैं, जिनमें देवी-देवताओं, युग्म तथा मिथुन इत्यादि है। गर्भगृह का प्रवेश द्वार सप्त शाखाओं से अलंकृत है, जिनमें मध्य की शाखा को विष्णु के अवतारों से अलंकृत किया गया है। सरदल के मध्य में लक्ष्मी है, जिनके दोनों ओर ब्रम्हा एवं शिव है। गर्भगृह में चतुर्भुजी विष्णु के वैकुण्ठ स्वरुप की प्रतिमा स्थापित है जिसमें उनके तीन मुख्य बनें हैं, बीच का मुख मनुष्य का तथा बगल के दो वराह व सिंह के हैं।
सड़क मार्ग से नई दिल्ली से खजुराहो की दूरी करीब 659 किमी है।
फ्लाइट: अगर आप हवाई मार्ग से खजुराहो आने का प्लान बना रहे हैं तो सबसे निकटतम खजुराहो एयरपोर्ट है। खजुराहो शहर से एयरपोर्ट लगभग 5 किमी। की दूरी पर है। हवाई अड्डे से खजुराहो कैब बुक करके या फिर आप बस से आ सकते हैं।
ट्रेन: यदि आप रेल मार्ग से खजुराहो आना चाहते हैं तो सबसे नजदीक में खजुराहो रेलवे स्टेशन है। स्टेशन शहर से कुछ किमी। की दूरी पर है। रेलवे स्टेशन पर आपको ऑटो मिल जाएगी।
सड़क मार्ग: अगर आप सड़क मार्ग से खजुराहो आना चाहते हैं तो झांसी और पन्ना से खजुराहो के लिए बस आराम से मिल जाएगी। अगर आप खुद की गाड़ी से आ रहे हैं तो खजुराहो की यात्रा शानदार रहेगी।
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