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कुंभ मेला (Kumbh Sthal)

कुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक सम्मेलन है, साथ ही विश्वास,आस्था, सौहार्द और संस्कृतियों के मिलन का महापर्व भी है। भारत में यह मेला बहुत अनूठा होता है, जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं और पवित्र नदी में स्नान कर भगवान की भक्ति करते हैं। कुंभ का अपना ही एक धार्मिक महत्व है और इसे सनातन संस्कृति का भी महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है। कुंभ लगभग 48 दिनों तक जारी रहता है। इसमें दुनिया भर से साधू, संत, तपस्वी, तीर्थयात्री भाग लेते हैं। कुंभ का आयोजन भारत में चार पवित्र स्थलों पर किया जाता है, जिनमें उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में क्षिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम पर प्रयागराज में होता है। कुंभ किसी भी स्थान पर 12 साल में एक बार होता है।  हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार जो मनुष्य इन पवित्र नदियों के जल में डुबकी लगाते हैं, वे अनंत काल तक धन्य हो जाते हैं, साथ ही उन्हें पाप से भी मुक्ति मिलती है।


पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कुंभ का आयोजन उस समय किया जाता है जिन तिथियों में समुद्र मंथन के दौरान इन नदियों में अमृत के कलश से अमृत गिरा था। दुनिया की सबसे बड़ी सभा यानी कुंभ मेले को यूनेस्को की प्रतिनिधि सूची 'मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत' में शामिल किया गया है।


धार्मिक अध्यात्मिक और ज्योतिष तीनों दृष्टी से काफी महत्वपूर्ण माने जाने वाले कुंभ की कई विशेषताएं हैं, आईए जानते हैं कुंभ के आयोजन और इसकी पौराणिक कथाओं को विस्तार से, साथ ही जानेंगे इसके ज्योतिष और महत्वताओं को विस्तार से….


दरअसल कुंभ का अर्थ होता किसी प्रकार का कलश या फिर घड़ा, जिसे वैदिक ग्रन्थों में अक्सर पानी के विषय में या पौराणिक कथाओं में अमरता (अमृत) से जोड़कर देखा जाता रहा है, इसलिए कुंभ मेले का शाब्दिक अर्थ होता है अमरता का स्थान


कुंभ मेले से जुड़ी पौराणिक कथा

हिंदू धर्म में कुंभ मेले का जितना पौराणिक महत्व  है उतना ही ज्योतिष महत्व भी है। कुंभ मेले से जुड़ी कई पौराणिक कथाएं प्रचलित है लेकिन जो कथा सबसे ज्यादा मान्य कथा है वो समुद्र मंथन से जुड़ी हुई है। 

विष्णु पुराण में समुद्र मंथन की कथा को विस्तारपूर्वक बताया गया है। जिसके मुताबिक एक बार अपने क्रोध के लिए पहचाने वाले दुर्वासा ऋषि, अपने शिष्यों के साथ भगवान शिव के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर जा रहे थे। रास्ते में उन्हें देवराज इन्द्र मिले। इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। तब ऋषि दुर्वासा ने इन्द्र को आशीर्वाद देकर विष्णु भगवान का पारिजात पुष्प उन्हें भेंट किया, लेकिन इन्द्रासन के अहंकार में चूर इन्द्र ने उस पुष्प को अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत सहसा विष्णु भगवान के समान तेजस्वी हो गया। इसके बाद ऐरावत ने इन्द्र का परित्याग कर दिया। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र निर्बल और श्रीहीन हो गए। इन्द्र को बलहीन देखकर दैत्यों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित करके स्वर्ग पर अपना अधिकार कर लिया। तब इन्द्र देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की सभा में उपस्थित हुए। जिसके बाद ब्रह्माजी बोले —‘‘देवेन्द्र ! भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव पुनः मिल जाएगा।’’


इसके बाद ब्रह्माजी इन्द्र को अपने साथ लेकर भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे। वहां भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ विराजमान थे। देवगण भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए बोले—‘‘भगवान् ! आपके श्रीचरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम। भगवान् ! हम सब जिस उद्देश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए। दुर्वाषा ऋषि के श्राप से माता लक्ष्मी हमसे रूठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में हैं, हमारी रक्षा कीजिए।’’

ये सुनकर भगवान विष्णु ने देवगण से कहा- ‘‘देवगण ! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें, क्योंकि केवल यही तुम्हारे कल्याण का उपाय है। दैत्यों पर इस समय काल की विशेष कृपा है इसलिए जब तक तुम्हारे उत्कर्ष और दैत्यों के पतन का समय नहीं आता, तब तक तुम उनसे संधि कर लो। क्षीरसागर के गर्भ में अनेक दिव्य पदार्थों के साथ-साथ अमृत भी छिपा है। उसे पीने वाले के सामने मृत्यु भी पराजित हो जाती है। इसके लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा। यह कार्य अत्यंत कठिन है, इसलिए इस कार्य में दैत्यों से सहायता लो। कूटनीति भी यही कहती है कि आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं को भी मित्र बना लेना चाहिए। इसके बाद अमृत पीकर अमर हो जाओ। तब दुष्ट दैत्य भी तुम्हारा अहित नहीं कर सकेंगे। देवगण ! वे जो शर्त रखें, उसे स्वाकीर कर लें। यह बात याद रखें कि शांति से सभी कार्य बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता।’’ 

भगवान विष्णु के परामर्श के अनुसार इन्द्रादि देवगण दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया।


तभी मेघ से आकाशवाणी हुई-  'देवताओ और दैत्यो! तुम क्षीर समुद्र का मन्थन करो। इस कार्य में तुम्हारे बल की वृद्धि होगी, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मन्दराचल  पर्वत को मथानी (वो वस्तु जिससे छाछ से मक्खन निकाला जाता है) और वासुकी नाग को रस्सी बनाओ।' 

आकाशवाणी सुनकर दैत्य और देवता समुद्र-मन्थन के लिये मन्दराचल के समीप गये। वह पर्वत सीधा, गोलाकार, बहुत मोटा और अत्यन्त प्रकाशमान था। अनेक प्रकार के रत्न उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। चन्दन, पारिजात, नागकेशर, जायफल और चम्पा आदि भाँति-भाँति के वृक्षों से वह हरा-भरा दिखायी देता था।


उस महान पर्वत को देखकर सम्पूर्ण देवताओं ने हाथ जोड़कर कहा- 'दूसरों का उपकार करने वाले महाशैल मन्दराचल ! हम सब देवता तुमसे कुछ निवेदन करने के लिये यहां आये हैं, उसे तुम सुनो।' उनके ये कहने पर मन्दराचल ने देहधारी पुरुष के रूप में प्रकट होकर कहा- 'देवगण! आप सब लोग मेरे पास किस कार्य से आये हैं, उसे बताइये।' तब इन्द्र ने मधुर वाणी में कहा- 'मन्दराचल! तुम हमारे साथ रहकर एक कार्य में सहायक बनो; हम समुद्र को मथकर उससे अमृत निकालना चाहते हैं, इस कार्य के लिये तुम मथानी बन जाओ।' 

मन्दराचल ने 'बहुत अच्छा' कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और देवकार्य की सिद्धि के लिये देवताओं, दैत्यों तथा विशेषत: इन्द्र से कहा- 'पुण्यात्मा देवराज!  आपने अपने वज्र से मेरे दोनों पंख काट डाले हैं, फिर आप लोगों के कार्य की सिद्धि के लिये वहाँ तक मैं चल कैसे सकता हूँ?'

ऐसा सुनकर देवताओं और दैत्यों ने उस अनुपम पर्वत को क्षीर समुद्र तक ले जाने की इच्छा से उखाड़ लिया, लेकिन वे उसे धारण करने में समर्थ न हो सके। वह महान पर्वत उसी समय देवताओं और दैत्यों के ऊपर गिर पड़ा। इसके बाद देवता और दानव भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे- 'शरणागतवत्सल महाविष्णो! हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये।' 


उस समय देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये गरुड़ की पीठ पर बैठे हुए भगवान विष्णु सहसा वहां प्रकट हो गये। उन्होंने उस महान पर्वत को उठाकर गरुड़ की पीठ पर रख लिया। फिर वे देवताओं और दैत्यों को क्षीर-समुद्र के उत्तर-तट पर ले गये और पर्वतश्रेष्ठ मन्दराचल को समुद्र में डालकर तुरंत वहां से चल दिये। तदनन्तर सब देवता दैत्यों को साथ लेकर वासुकी नाग के समीप गये और उनसे भी अपनी प्रार्थना स्वीकार करायी। इस प्रकार मन्दराचल को मथानी और वासुकि-नाग को रस्सी बनाकर देवताओं और दैत्यों ने क्षीर-समुद्र का मन्थन आरम्भ किया। इतने में ही वह पर्वत समुद्र में डूबकर रसातल को जा पहूंचा। तब लक्ष्मीपति भगवान विष्णु ने कच्छपरूप धारण करके तत्काल ही मन्दराचल को ऊपर उठा दिया। उस समय यह एक अद्भुत घटना हुई। फिर जब देवता और दैत्यों ने मथानी को घुमाना आरम्भ किया। अधिक मन्थन से जो समुद्र से विष प्रकट हुआ, जो तीनों लोकों को भस्म कर देने वाला था।  उस समय उस लोकसंहारकारी कालकूट विष को भगवान शिव ने स्वयं पी लिया और वे नीलकण्ठ कहलाए।  इस प्रकार भगवान शंकर की बड़ी भारी कृपा होने से देवता, असुर, मनुष्य तथा सम्पूर्ण त्रिलोकी की उस समय कालकूट विष से रक्षा हुई। इसके बाद एक-एक कर समुद्र से कुल 14 चीजें निकलीं, जिन्हें 14 बहुमूल्य रत्न कहा जाता है। इन 14 चीजों का बंटवारा देवताओं और असुरों के बीच किया गया। लेकिन जब अमृत कलश निकला तो देवताओं और असुरों के बीच विवाद छिड़ गया। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इन्द्रपुत्र जयन्त अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयन्त का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयन्त को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूंदें गिरी थीं। इसके बाद कलह शान्त करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बांटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अन्त किया गया। अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरन्तर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। इसलिए कुंभ भी बारह है। माना जाता है कि उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं,  इन का लाभ देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्य नहीं।



कुंभ मेले का ज्योतिष महत्व 

भारत में कुंभ मेले का सामाजिक-सांस्कृतिक, पौराणिक व आध्यात्मिक महत्व तो है ही साथ ही ज्योतिष के नजरिये से भी यह मेला काफी अहमियत रखता है। इसका निर्धारण ही ज्योतिषीय गणना से होता है। सूर्य, चंद्रमा, शनि और बृहस्पति यानि गुरु ज्योतिष शास्त्र में बहुत ही अहम स्थान रखते हैं। कुंभ मेले के आयोजन में ये बहुत महत्वपूर्ण भुमिका निभाते हैं। आइए जानते हैं कुंभ मेले का ज्योतिषीय महत्व।  


अब ये सवाल तो स्वभावि है कि आखिर सूर्य, चंद्रमा, शनि और गुरु का ऐसा क्या योगदान रहा है कि इन्हीं को कुंभ मेले के काल निर्धारण का आधार बनाया गया है, आपको बता दें कि स्कंदपुराण में इन ग्रहों के योगदान का उल्लेख मिलता है। समुद्र मंथन के पश्चात जब अमृत कलश की प्राप्ति हुई तो देवताओं व दैत्यों में उसे लेकर युद्ध छिड़ गया। 12 दिनों तक चले युद्ध में 12 स्थानों पर कुंभ से अमृत की बूंदें छलकी जिनमें चार हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक पृथ्वी पर हैं और बाकि स्थान स्वर्गलोक में माने जाते हैं। इस दौरान दैत्यों से अमृत की रक्षा करने में सूर्य, चंद्रमा, शनि व गुरु का बहुत ही अहम योगदान रहा। स्कंदपुराण में लिखा है कि -


चन्द्रः प्रश्रवणाद्रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद्दधौ।

दैत्येभ्यश्र गुरू रक्षां सौरिर्देवेन्द्रजाद् भयात्।।

सूर्येन्दुगुरूसंयोगस्य यद्राशौ यत्र वत्सरे।

सुधाकुंभप्लवे भूमे कुंभो भवति नान्यथा।। 


यानि चंद्रमा ने अमृत छलकने से, सूर्य ने अमृत कलश टूटने से, बृहस्पति ने दैत्यों से तथा शनि ने इंद्र के पुत्र जयंत से इस कलश को सुरक्षित बचाए रखा। इसलिए कुंभ मेले का आयोजन तभी होता है जब ये ग्रह विशेष स्थान में होते हैं। इसमें देव गुरु बृहस्पति वृषभ राशि में होते हैं। सूर्य व चंद्रमा मकर राशि में होते हैं। माघ मास की अमावस्या यानि मौनी अमावस्या की स्थिति को देखकर भी कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है। कुल मिलाकर ग्रह ऐसे योग बनाते हैं जो कि स्नान दान व मनुष्य मात्र के कल्याण के लिये बहुत ही पुण्य फलदायी होता है।


जिन-जिन स्थानों में कुंभ मेले का आयोजन होता है उन स्थानों पर यह योग आमतौर पर 12वें साल में बनता है। कभी कभी 11वें साल भी ऐसे योग बन जाते हैं। सूर्य और चंद्रमा की स्थिति तो हर स्थान पर हर साल बनती है। इसलिए हर वर्ष वार्षिक कुंभ मेले का भी आयोजन होता है। उज्जैन और नासिक में जहां यह सिंहस्थ के नाम से जाना जाता है वहीं हरिद्वार व प्रयागराज में कुंभ कहा जाता है। चारों स्थानों पर मेले का आयोजन अलग-अलग तिथियों में होता है। 



कुंभ मेले का इतिहास

कुंभ मेले के आयोजन के इतिहास के बारे में विद्वानों में अनेक भ्रांतियां हैं। इतिहास में कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई, किसने की, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही हो गई थी। कुछ दस्तावेज बताते हैं कि कुंभ मेला 525 बीसी में शुरू हुआ था। परन्तु प्रमाणिक तथ्य सम्राट शिलादित्य हर्षवर्धन (606-645ई.) के समय से प्राप्त होते हैं। बाद में श्रीमद आघ जगतगुरु शंकराचार्य तथा उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की।




कुंभ मेले के प्रकार


महाकुंभ मेला: यह केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है। यह प्रत्येक 144 वर्षों में या 12 पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है।


पूर्ण कुंभ मेला: यह हर 12 साल में आता है। मुख्य रूप से भारत में 4 कुंभ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं। यह हर 12 साल में इन 4 स्थानों पर बारी-बारी आता है।


अर्ध कुंभ मेला: इसका अर्थ है आधा कुंभ मेला जो भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज।


कुंभ मेला: चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा हर तीन साल में आयोजित किया जाता है। 


माघ कुंभ मेला: इसे मिनी कुंभ मेले के रूप में भी जाना जाता है जो प्रतिवर्ष और केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है। यह हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ के महीने में आयोजित किया जाता है। 



कुंभ के आयोजन की तिथि कैसे निर्धारित की जाती है?

ज्योतिष महत्व के अनुसार किस स्थान पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाएगा, यह राशियों पर निर्भर करता है। कुंभ मेले में सूर्य और बृहस्पति का खास योगदान माना जाता है। जब सूर्य एवं बृहस्पति एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तभी कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है, और इसी आधार पर स्थान ओर तिथि निर्धारित की जाती है। 



हरिद्वार में कुंभ : जब बृहस्पति कुंभ राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब कुंभ का पर्व गंगा नदी के तट पर हरिद्वार में आयोजित किया जाता है। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन भी होता है।


प्रयागराज में कुंभ: जब बृहस्पति और सूर्य मेष राशि के चक्र में तथा चन्द्र के मकर राशि में प्रवेश करने पर अमावस्या के दिन कुंभ का पर्व तीन नदियों के संगम स्थल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है। एक अन्य गणना के अनुसार मकर राशि में सूर्य का एवं वृष राशि में बृहस्पति का प्रवेश होनें पर कुंभ का पर्व प्रयागराज में आयोजित होता है।


नासिक में कुंभ: सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुंभ पर्व गोदावरी के तट पर नासिक में होता है। अमावस्या के दिन बृहस्पति, सूर्य एवं चन्द्र के कर्क राशि में प्रवेश होने पर भी कुंभ पर्व गोदावरी तट पर आयोजित होता है। इस कुंभ को सिंहस्थ इसलिए कहते हैं क्योंकि इसमें सिंह राशि में बृहस्पति का प्रवेश होता है।


उज्जैन में कुंभ: सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर यह पर्व क्षिप्रा नदी के तट पर उज्जैन में होता है। इसके अलावा कार्तिक अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्र के साथ होने पर एवं बृहस्पति के तुला राशि में प्रवेश होने पर मोक्ष दायक कुंभ उज्जैन में आयोजित होता है। इस कुंभ को सिंहस्थ इसलिए कहते हैं क्योंकि इसमें सिंह राशि में बृहस्पति का प्रवेश होता है।



जानें कब और कहां लगने वाला है कुंभ मेला 


उज्जैन में- राज्य सरकार द्वारा की गई घोषणा के अनुसार कुंभ मेला 27 मार्च 2028 से शुरू होगा, जो 27 मई 2028 तक रहेगा यानी लगभग 2 महीने तक उज्जैन में कुंभ मेला आयोजित किया जाएगा। इससे पहले 2016 में कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में किया गया था। 


हरिद्वार में- हरिद्वार में कुंभ मेला 2021 में लगा था।  अब 2033 में ज्योतिष गणना के अनुसार तय तिथि पर इस मेले का आयोजन किया जाएगा। 


प्रयागराज में- प्रयागराज में कुंभ मेले का आयोजन वर्ष 2025 में 13 जनवरी से होगा। महाकुंभ मेले का आयोजन हर 12 साल में किया जाता है। इससे पहले यह आयोजन वर्ष 2013 में हुआ था। इसे मेले का संबंध ज्‍योतिष और आस्‍था दोनों से माना जाता है। ज्‍योतिषीय मान्‍यताओं के अनुसार, वृष राशि में बृहस्पति होने पर कुंभ मेले का आयोजन होता है। साल 2025 में बृहस्‍पति वृष राशि में होगा। सूर्य और चन्द्रमा के मकर राशि में प्रवेश करने पर महाकुंभ मेले का आयोजन होता है। साल 2025 में यह संयोग बनेगा और तब 13 जनवरी से लेकर 26 फरवरी तक यह मेला लगेगा।


नासिक में - 2015 में नासिक में कुंभ मेले लगा था। अब 2027 में जुलाई से सितंबर तक ज्योतिष गणना के अनुसार तय तिथि पर इस मेले का आयोजन किया जाएगा। 

डिसक्लेमर

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