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विष्णुशयनी एकादशी एवं चातुर्मास व्रत (Vishnushayanee Ekaadashee Evan Chaaturmaas Vrat)

इस एकादशी का नाम विष्णुशयनी भी है। इसी दिन विष्णुजी का व्रत एवं चातुर्मास्य व्रत प्रारम्भ करना विष्णु पुराण से प्रकट होता है

श्रीकृष्णचन्द्र जी ने कहा-हे राजन् ! इसको विष्णुशयनी कहते हैं और श्री विष्णु भगवान् को प्रसन्न करके लिए इसी दिन विष्णु शयन व्रत किया जाता है। मोक्ष की इच्छा करने वालों को इसी दिन से चतुर्मासा व्रत प्रारम्भ करना चाहिये। युधिष्ठिर ने कहा-हे केशव ! किस प्रकार शयन व्रत करना चहिये और चतुर्मासा व्रत कैसे किया जाता है, कृपया यह विधि भी बतलाइये। श्रीकृष्णजी ने कहा- हे राजन् ! अब गोविन्द शयन व्रत सुनो तथा चातुर्मास्य व्रत में जो भी व्रत किये जाते हैं उनको भी कहता हूँ।

जब कर्कराशी के सूर्य हों तब आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में भगवान् विष्णु को शयन कराना उत्तम है और तुला राशि के सूर्य होने पर उन्हें जगाना चाहिए। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करके चातुर्मास्य व्रत का नियम पालन करना चाहिये। स्वच्छ पात्र एवं उपधानादि से सुसज्जित शैय्या पर शंख, चक्र एवं गदा पद्म कथा पीताम्बरधारी विष्णु भगवान् की स्थापना कर तथा स्मृति पुराण और वेद स्तोत्र सहित दधि, घृत, मधु, मिश्री आदि का लेपन कर जल से स्नान करावे और धूप, दीप, नैवेद्य और उत्तम-उत्तम पुष्पों द्वारा प्रेम पूर्वक पूजन करके प्रार्थना करे कि, हे भगवान् ! आपके सो जाने पर समस्त भूमण्डल भी सो जाता है और आपके जागने पर सब जाग भी जाते हैं। इस प्रकार मूर्ति का पूजन और प्रार्थना करने के पश्चात् हाथ जोड़कर कहे कि हे भगवन् ! चातुर्मास्य के इन चार मासों में जब तक आप शयन करें तब तक मेरे स्वीकार किये हुए इन नियमों को आप निर्विघ्न पूर्ण करें।

इस प्रकार शुद्ध चित्त एवं विनीत भावों द्वारा प्रार्थना करके विष्णु भक्त मनुष्य अथवा स्त्री दन्तधावन पूर्वक इन नियमों को करें। विष्णु के व्रतारम्भ के पाँच ही काल कहे हैं। एकादशी, द्वादशी, पूर्णिमा, अष्टमी या कर्क की संक्रान्ति को पूर्वोक्त प्रकार से व्रत का आरम्भ करे और कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को समाप्त करे। शुद्ध या अशुद्ध स्त्री या पुरुष इस व्रत के प्रभाव से सभी घोर पापों से मुक्त हो जाते हैं। जो प्रति वर्ष ही इस व्रत को करते हैं वह सूर्य के सदृष प्रकाशित रथ द्वारा विष्णुलोक को गमन करते हैं। अब उनका भिन्न-भिन्न रूप सुनो।

जो व्यक्ति देव मन्दिरों में मार्जन, जल-सिंचन, गोमय के लेपन एवं रंग द्वारा बेल-बूटों को बनाता है वह सात जन्म पर्यन्त धार्मिक ब्राह्मण होकर उत्पन्नहोता है और दधि, दूध, घृत, मिश्री एवं मधु से चतुर्मास भर भगवान् को जो स्नान कराता वह विष्णु सदृश रूप को प्राप्त कर अक्षय आनन्द का उपभोग करता है और जो पृथ्वी और सुवर्ण दक्षिणा के साथ देवता के उद्देश्य से ब्राह्मण को दान करता है वह इन्द्र के समान आनन्दों का उपभोग करता है तथा विष्णु लोक को प्राप्त करता है। जो गन्ध, पुष्प और नैवेद्य के साथ श्री विष्णु भगवान् की सुवर्ण प्रतिमा का निर्माण करा कमल पुष्प द्वारा पूजन करता है उसको अक्षय आनन्द और इन्द्र पद की प्राप्ति होती है और जो चार मास पर्यन्त तुलसी पत्र द्वारा भगवान् का पूजन करता है अथवा सुवर्णमय तुलसी पत्र भगवान् के चरणों में अर्पण करता है उसको सुवर्णमय विमान द्वारा विष्णु लोक की प्राप्ति होती है और जो भगवान् विष्णु को दीप एवं गूगुल द्वारा धूपित करते हैं और समाप्ति में भी धूप, दीप आदि से पूजन करके भोग अर्पण कर समाप्ति करते हैं वे भोग्य के स्वामी होते हैं और जो कार्तिक मास पर्यन्त अश्वत्थ वृक्ष और भगवान् विष्णु की प्रदक्षिणा नियम पूर्वक करते हैं उनको अवश्य ही विष्णु लोक की प्राप्ति होती है। जो सन्ध्या समय अपने प्रांगण में देवता और ब्राह्मण को दीप दान करते हैं और समाप्ति तक दीप दान का नियम प्रेमपूर्वक करते हैं वह भी बैकुण्ठ को निर्विघ्नता पूर्वक प्राप्त करते हैं और जो भगवान् विष्णु का चरणोदक नियमित रूप से पान करते हैं उनका आवागमन बन्द हो जाता है। जो भगवान् विष्णु जी के मन्दिर में त्रिकाल अष्टोत्तरशत गायत्री का जप भक्ति पूर्वक करते हैं वे सांसारिक माया में पुनः लिप्त नहीं होते। नित्य प्रति पुराणों और धर्म शास्त्रों की कथा को सुनने वाला एवं वस्त्र तथा सुवर्ण सहित पुस्तकों का दान करने वाला पुण्यवान्, धर्मवान् और ज्ञान वान् होता है और जो कोई भगवान् शंकर के नाम का जप करके समाप्ति पर उनकी सुवर्ण प्रतिमा का दान करता है वह समस्त पापों से रहित हो अनुपम गुणों से संयुक्त होता है। जो नित्य प्रति भगवान् भुवन भास्कर को अर्घ दान कर उनका ध्यान करता है और समाप्ति में सुवर्ण और रक्त, वस्त्र सहित गोदान करता है वह आरोग्य एवं दीर्घजीवी होता है।

चतुर्मास पर्यन्त गायत्री मन्त्र द्वारा यथोचित संख्या में तिल से होम करने वाला और समाप्ति पर तिल सहित पात्र कादान करने वाला कायिक, वाचिक एवं मानसिक पापों से रहित हो जाता है। वह आरोग्य, दीर्घायु एवं शुभ सन्तति वाला होता है। चतुर्मास पर्यन्त अन्न का हवन करने वाला एवं घी, कुम्भ, वस्त्र और सोने का दान करने वाला आरोग्यता, तेज और ऐश्वर्य को लाम करता है। अश्वत्थ वृक्ष की सेवा करने वाला और अन्त में सुवर्ण-वस्त्र दान करने वाला अपने महान् पापों को भस्म कर देता है। विष्णु प्रिय तुलसी को धारण करने वाला और ब्राह्मणों को भोजन कराने वाला विष्णुलोक को प्राप्त करता है। भगवान् विष्णु को शयन कराके जो नित्य प्रति उन पर भस्म एवं दूर्वा दल को चढ़ाता है और व्रत के अन्त में सोने की दूर्वा बना दान करता है और नम्रता पूर्वक इस प्रकार स्तुति करता है कि हे दूर्वे ! जिस प्रकार तुम संसार में प्रसरित हरित एवं पल्लवित हो उसी प्रकार मुझे भी अजर अमर और यशस्वी सन्तान दो। ऐसा करने से उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और महान् सुखों को भोगने वाला होता है। भगवान् शंकर एवं विष्णु के सम्मुख कीर्तन करने वाला अपने पापों को नष्ट कर देता है। चातुर्मास व्रत करने वाले को सोने का घण्टा दान करना चाहिए। दान देकर इस प्रकार स्तुति करे कि हे जड़ता संहारी अच्युत ! मुझसे ज्ञान या अज्ञान में जो भी जड़ता दोष आ गया है उसे आप नाश कीजिए। इससे जड़ता दोष नष्ट हो जाता है। चतुर्मास का व्रत करने वाले जो ब्राह्मण को मेरा स्वरूप जानकर उनका चरणोदक पान करते हैं उनकी आयु, कीर्ति, लक्ष्मी बढ़ती है। व्रत की समाप्ति पर गोदान करना चाहिए। अगर गोदान न हो सके तो जोड़ा वस्त्र दान करना चाहिए। सर्वदेवताओं के स्वरूप ब्राह्मणों को नित्य नमस्कार करने वाला समस्त पापों से रहित हो जाता है।

अलंकारों से संयुक्त सवत्सा गोदान देने वाला सार्वभौम दीर्घजीवी और यशस्वी राजा होता है। ब्राह्मण भोजन कराने वाले की आयु की वृद्धि होती है, जो सूर्य एवं गणेश को चातुर्मास पर्यन्त नित्य नमस्कार करता है। समस्त काम काजों के सिद्धि के निमित्त गणेश एवं सूर्य की स्वर्ण प्रतिमा दान करनी चाहिए भगवान् सदाशिव को प्रसन्न करने के लिए रूपा एवं ताँबा दान करने वाले को तथा जोड़ा वस्त्र दान करने वाले को पुत्र सुख की प्राप्ति होती है। व्रत की समाप्ति पर मधुपूण ताँबे का पात्र एवं गुड़ का दानकरना चाहिए। भगवान् के सोने के समय में जोड़ा वस्त्र, तिल, गुड़ और सुवर्ण का दान करने वाले महान् पुण्य के भागी होते हैं। समाप्ति पर यथा शक्ति दान करने वाला, वस्त्र एवं शय्या का दान करने वाला अक्षय फल को पाता है और कुबेर के समान धनी होता है। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- हे राजन् ! राज्यार्थी पुत्रार्थी राज्य एवं पुत्र को निष्काम मोक्ष को पाता है। चतुर्मास में ब्राह्मण को शाक, फल एवं मूल भोजन देने वाला और समाप्ति में यथाशक्ति दान दक्षिणा देने वाला राज्य का भागी होता है। विष्णु शयन में सूर्य के निमित्त सोंठ, मिर्च और पीपर का सवस्त्र दान करने वाला सौ वर्ष पर्यन्त जीता है और उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं और वह अन्त में स्वर्ग लोक को जाता है।

जो बुद्धिमान् एवं कर्मकाण्डी ब्राह्मण को मोती का दान करता है वह कीर्तिमान् होता है। और जो ताम्बूल का दान करके ताम्बूल का खाना त्याग देता है और समाप्ति में दक्षिणा के सहित रक्त वस्त्र का दान करता है उसको ताम्बूल दान के द्वारा इस लोक में गन्धर्वत्व और परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति होती है। वह ब्रह्मा, विष्णु एवं शिवरूप है। अस्तु इसके दान करने से देवताओं द्वारा प्रचुर सम्पत्ति प्राप्त होती है। चातुर्मास में जो स्त्री-पुरुष नित्य प्रति गौरी एवं लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिये हरिद्रा का दान करते हैं और व्रत की समाप्ति पर रजत पूर्ण हरिद्रा का दान करते हैं वह स्त्री-पुरुष परस्पर एक दूसरे के आश्रय में आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते हैं तथा साथ ही साथ सौभाग्य एवं अक्षय धनधान्य के साथ सुख भोगकर स्वर्ग-गामी होते हैं।

चातुर्मास में षट्रस युक्त बावनों प्रकार के दिव्य व्यंजन प्रेमपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराकर शक्ति के अनुसार दान करना चाहिये। यदि नित्य प्रति दान करने में असमर्थ हों तो अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा एवं प्रति सूर्यवार को या प्रति भृगुवार को दान करे और व्रत समाप्ति पर भूदान करे। यदि भूदान करना शक्ति से बाहर हो तो सुवर्ण से युक्त गोदान करे, यदि इसमें भी असमर्थ हों तो सुवर्ण सहित पादुका एवं स्वच्छ वस्त्रों का दान करे। इस प्रकार के दान करने वाले को अन्न एवं पुत्र पुत्रादि सम्पत्ति, विष्णु भक्ति और अन्त समय में विष्णुलोक की प्राप्ति होती है।

सवत्सा अर्थात् दूध देती हुई गौ, आभूषण एवं दक्षिणा सहित दान करने वाले को उत्तम एवं शुद्ध बुद्धि की उत्पत्ति होती है। जो व्यक्ति चातुर्मास भर चान्द्रायण व्रत करते हुए अन्न का भोजन नहीं करते और भिक्षावृत्ति धारण करके जीवन निर्वाह करते हैं उनको दिव्य शरीर द्वारा शिवलोक की प्राप्ति एवं वेद पारंगत होते हैं तथा उनका आवागमन निवृत्त हो जाता है।

इस प्रकार व्रत एवं नियमानुसार पूजन करने वाले से भगवान् विष्णु अत्यन्त ही प्रसन्न होते हैं और जागरण तथा शयन वाले दिन को व्रत रखने वाले को गरुड़ द्वारा भगवत गति प्राप्त होती है।

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