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श्री शनिवार व्रत कथा ( Shri Sanivaar Vrat Katha )

एक समय समस्त प्राणियों का हित चाहने वाले मुनियों ने नैमिषारण्य बन में एक सभा की उस समय व्यास जी के शिष्य सूत जी शिष्यों के साथ श्रीहरि का स्मरण करते हुए वहाँ पर आये। समस्त शास्त्रों के ज्ञाता सूतजी को आया देखकर महा तेजस्वी शौनकादि मुनि उठकर खड़े हो गये और सूतजी को नमस्कार किया, मुनियों द्वारा दिये आसन पर सूतजी बैठ गये। श्रो स्तजी से शौनक आदि मुनियों ने विनय पूर्वक पूछा-हे मुनि ! इस काल में हरि भक्ति किस प्रकार से होगी ? सभी प्राणी पाप करने में तत्पर होंगे, मनुष्यों की आयु कम होगी। यह कष्ट, धन रहित और अनेकों पीड़ा युक्त मनुष्य होंगे। हे सूतजी ! पुण्य अति परिश्रम से होता है, इस कारण कलियुग में कोई भी मनुष्य पुण्य न करेगा, पुण्य के नष्ट होने से मनुष्यों को प्रक्ति पापमय होगी, इस कारण तुच्छ विचार रखने वाले मनुष्य अपने अंश सहित नष्ट हो जावेंगे। हे सूतजी !


जिस तरह थोड़े ही परिश्रम थोड़े धन से, थोड़े समय में पुण्य प्राप्त हो ऐसा कोई उपाय हम लोगों को बतलाइये जिसके उपदेश से मनुष्य पुण्य और पाप करता है। उसके पुण्य और पाप का वही मनुष्य भागी होता है, यह शास्त्र निर्णय है। हे सूतजी ! जो मनुष्य रत्न रूपी ज्ञान से दूसरों को सन्तुष्ट करते हैं उनको मनुष्य रूप धारण किये श्री हरि ही जानना चाहिये। हे मुने ! कोई ऐसा व्रत बतावें जिसके करने से शनिदेव के द्वारा प्रदत्त कष्ट मनुष्यों को न भोगने पड़ें । जिस व्रत के करने से शनिदेव प्रसन्न हों, क्योंकि हे मुने ! शनि की ग्रह में बहुत ही घोर कष्टउठाने पड़ते हैं। उनको सुनने की हमारी इच्छा है।


सूतजी बोले-हे मुनि श्रेष्ठ तुम धन्य हो, तुम्हीं वैष्णवों में अग्रगण्य हो क्योंकि सब प्राणियों का सत्व हित चाहते हो । मैं आपसे उत्तम व्रत को कहता हूँ, ध्यान देकर सुनो, जिसके करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं और शनिग्रह करके कष्ट प्राप्त नहीं होते । सूतजी बोले-युधिष्ठिर आदि पांडव वनवास में अनेकों कष्ट भोग रहे थे, उस समय उनके प्रिय सखा श्रीकृष्ण उनके पास पहुँचे। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को आया देखकर उनका बहुत हो आदर किया और सुन्दर आसन पर बैठाया । श्रीकृष्ण बोले-हे युधिष्ठिर ! कुशल पूर्वक तो हो। युधिष्ठिर बोले- भगवन् ! आपको कृपा है। कृपा करके आप ऐसा व्रत बतलायें जिसके करने से प्रभो ! यह ग्रह कष्ट न व्यापे, शनि ग्रह बहुत कष्ट देता है अतः ऐसा कोई व्रत बतायें जिससे इस कष्ट से छुटकारा मिले। श्रीकृष्ण बोले- राजन् ! आपने बहुत ही सुंदर बात पूंछी है। आपसे एक उत्तम व्रत कहता हूँ।


मनुष्य भक्ति और श्रद्धा युक्त होकर शनिवार के दिन भगवान शंकर का व्रत करते हैं तो उन्हें शनिवार की ग्रह दशा में कोई कष्ट नहीं होता है उनके लिए निर्धनता नहीं सताती है तथा इस लोक में अनेकों प्रकार के सुखों को भोग कर अन्त में शिवलोक की प्राप्ति होती है। युधिष्ठिर बोले--सबसे पहले यह व्रत किसने किया था इस सबको विस्तारपूर्वक कृपा करके कहें तथा विधि मी बतलावें । भगवान् श्रीकृष्ण जी बोले-राजन् शनिवार के दिन विशेष कर श्रावण मास में शनिवार के दिन लोह निर्मित शनि की प्रतिमा को पंचामृत से स्नान कराकर अनेक प्रकार के गंध, पुष्प, अष्टांग, धूप, फल उत्तम प्रकार के नैवेद्य आदि से पूजन करे, शनि के दस नामों का उच्चारण करे । तिल, जौ, उड़द, गुड़, लोहा, नीले वस्त्र का दान करे। फिर भगवान् शंकर का विधिपूर्वक पूजन करें, आरती कर प्रार्थना करे। हे भोलेनाथ ! में आपकी शरण हूँ, आप मेरे ऊपर कृपा करें। मेरी रक्षा करो रक्षा करो! हे युधिष्ठिर !


पहिले शनिवार को उड़द का भात, दूसरे को केवल खीर, तीसरे को खजला, चौथे को पूरियों का भोग लगावे । व्रत की समाप्ति पर यथाशक्ति ब्राह्मण भोजन करावे। इस प्रकार करने से सब प्रकार के अनिष्ट, कष्ट आधि-व्याधियों का सर्वथा नाश होता है। राहु, केतु, शनि कृत दोष दूर होते हैं और अनेक प्रकार के सुख-साधन एवं पुत्र पौत्रादि सुख प्राप्त होता है। सबसे पूर्व जिसने इस व्रत को किया था, उसके इतिहास को कहते हैं। पूर्व काल में इस पृथ्वी पर एक राजा राज्य करता था। उसने अपने शत्रुओं को अपने वश में कर लिया था। दैव की गति से राजा और राजकुमार पर शनि की बशा आई । राजा को धर्मगुप्त के बैरियों ने समाप्त कर दिया और धर्मगुप्त राजकु‌मार के लिए कोई सहारा नहीं रहा । राजगुरु को भी बेरियों ने मार दिया । राजगुरु की विधवा ब्राह्मणी रह गई तथा उसका लड़का शुचिव्रत रह गया । ह्मणी ने राजकुमार को अपने साथ ले लिया और नगर को छोड़ कर चल दी गरीब ब्राह्मणी दोनों कुमारों को बहुत कठिनाई से निर्वाह कर पाती थी। कभी किसी शहर और किसी नगर में दोनों कुमारों के लिये घूमती रहती थी एक दिन वह ब्राह्मणी दोनों कुमारों को लिये एक नगर से दूसरे नगर में ले जा रही थी, मार्ग में महषि शांडिल्य के दर्शन हुए ।


ब्राह्मणी ने दोनों बालको के साथ मुनि के चरणों में प्रणाम किया और बोली- हे महषि ! मैं आज आपके दर्शन से कृतार्थ हो गई यह मेरे दोनों कुमार आपकी शरण है, आप इनकीरक्षा करो। मुनिवर ! यह शुचिव्रत मेरा लड़का है और धर्मगुप्त यह राजपुत्र है और मेरा धर्मपुत्र है। हम घोर दारिद्रय में पड़े हुये हैं, आप हमारा उद्धार कीजिये । शांडिल्य मुनि ने ब्राह्मणी की सब वार्ता सुनी और बोले-हे देवी ! तुम्हारे ऊपर शनि का प्रकोप है, अतः आप शनिवार के दिन व्रत करके भगवान् शिवजी की आराधना किया करो, इससे तुम्हारा कल्याण होगा ब्राह्मणी और दोनों कुमार मुनि को प्रणाम कर शिव मन्दिर के लिये चल दिये शनिवार के दिन दोनों कुमारों ने मुनि के उपदेश के अनुसार शनिवार का व्रत किया तथा शिवजी का पूजन किया इस प्रकार से दोनों कुमारों को व्रत करते २ चार मास व्यतीत हो गये एक दिन शुचिव्रत स्नान करने के लिये गया उसके साथ राजकुमार नहीं था कीचड़ में उसे एक बहुत बड़ा कलश दिखाई दिया। शुचिव्रत ने उसको उठाया और देखा तो उसमें घन था। शुचिव्रत उस कलश को लेकर घर आया और माँ से बोला हे माँ इस शिवजी के प्रसाद को देख, भोलेश्वर ने इस कलश के रूप में धन दिया । माता ने आदेश दिया-बेटा ! तुम दोनों इसको बाँट लो। माँ के बचन सुन कर शुचिनन बहुत ही प्रसन्न हुआ और राजसुत से बोला-भैया ! अपना हिस्ता तो ले लो। परन्तु शंकर जी की पूजा में विश्वासो राजसुत बोला-माँ मैं हिस्सा लेना नहीं चाहता हूँ, क्योंकि जो कोई अपने सुकृत से कुछ भी पाता है वह उसी का भाग है और स्वयं उसे आप ही भोगना चाहिए । भोलेश्वर शिवत्री मुझ पर भी कभी क्या करेंगे। धर्मगुप्त प्रेम और भक्ति के साथ शनि का व्रत करके पूजा करने लगा इस प्रकार से उसे एक वर्ष व्यतीत हो गया । बसन्त ऋतु का आगमन हुआ। राजकुमार धर्मगुप्त तथा ब्राह्मण पुत्र शुजिब्रत दोनों ही बन में घूमने के लिए गये दोनों वन में घूमते २ काफी दूर निकल गये। उनको सैकड़ों गन्धर्व कन्यायें खेलती हुई मिलीं। नाहह्मण कुमारबोला-भैया ! पवित्र पुरुष स्त्रियों के बीच में नहीं चलते। यह मनुष्य को शीघ्र ही मोह लेती हैं। विशेष रूप से ब्रह्मचारी के लिए स्त्रियों से भाषण करना व मिलना नहीं चाहिए। परन्तु गन्धर्व कन्याओं के खेल को देखने की इच्छा रखने वाला राजकुमार खेल देखने उनके खेल के स्थान पर अकेला चला गया ब्राह्मण कुमार नहीं गय।


उन गंधर्व कन्याओं के बीच एक प्रधान सुन्दरी उस राजकु‌मार को देखकर मोहित हो गई और अपने संग की सखियों से बोली कि यहाँ से बोड़ो दूर पर एक सुन्दर बन है उसमें नाना प्रकार के सुन्दर फूल खिले हैं, तुम सब जाकर उन सुन्दर फूलों को तोड़ कर ले आओ तब तक में यहीं बैठी हूँ। सखियाँ आजा पाकर चली गई और वह सुन्दर गन्वर्व कन्या राजकुमार पर दृष्टि लगा कर बैठ गई। राजकुमार उसके पास चला आया। राजकमार को देखकर गंधर्व कन्या उठी और बैठने के लिए पल्लवों का आसन दिया राजकुमार आसन पर बैठ गया । गन्धर्व कन्या ने पूछा-आप कौन हैं किस देश के रहने बाले हैं तथा आपका आगमन कैसे हुआ है राजकुमार ने कहा-में विदर्भ देश के राजा का पुत्र हूँ, धर्मगुप्त मेरा नाम है। मेरे माता-पिता स्वर्गलोक को पधार गये बैरियों ने मेरा राज ले लिया है, में राजगुरु की पत्नी के साथ रहता हूँ, वह मेरी धर्म की माँ है। फिर राजकुमार ने पूछा कि आप कौन हैं किसकी पुत्री हैं और किस कार्य से यहाँ पर आगमन हुआ है गंधर्व कन्या बोलो-विद्रविक नाम के गंधर्व की में पुत्री हूँ, मेरा नाम अंशुमती है आपको आया देखकर आपसे बात करने की इच्छा हुई, इसी से में सखियों को अलग भेजकर अकेली रह गई हूँ।


गंधर्व कहते हैं कि मेरे बराबर संगीत विद्या में कोई निपुण नहीं है। भगवान् शंकर ने हम दोनों पर कृपा की है, इसलिये आपको यहाँ पर भेजा है, अब से लेकर मेरा आपका प्रेम कभी न टूटे। कन्या ने अपने गले का मोतियों का हार राजकुमार के गले में डाल दिया राजकुमार बोला-मेरे पास न राज है, न धन है। आप मेरी भार्या कैसे बनेंगी  आपके पिता है आपने उनकी भी आज्ञा नहीं ली है। गंधर्व कन्या बोली अब आप अपने घर के लिए जायें, परसों प्रातःकाल यहाँ आवें आपकी आव- श्यकता होगी। राजकुमार से ऐसा कहकर गंधर्व कन्या अपनी सहेलियों से जा मिली राजकु‌मार धर्मगुप्त शुचिव्रत के पास चला गया और उसे सब समाचार कह सुनाया। उस दिन से तीसरे दिन शुचिव्रत को साथ लेकर राजकुमार धर्म- गुप्त उसी बन में गया उसने देखा कि स्वयं गंधर्वराज विद्रविक उत्स कन्या को साथ लेकर उपस्थित हैं। गंधर्वराज ने दोनों कुमारों का अभिवादन किया दोनों को सुंदर आसन पर बैठाकर राजकुमार से कहा कि राजकुमार ! में परसों कैलाश पर गौरीशंकर के दर्शन करने के लिये गया वहाँ करुना रूपी सुधा के सागर भोले शंकरजी महाराज ने मुझे अपने पास बुल कर कहा-गंधर्वराज ! पृथ्वी पर धर्मगुप्त नाम का राजभ्रष्ट राजकुमार है। उसके परिवार के लोगों को वैरियों ने समाप्त कर किया है।

वह बालक गुरु के कहने से शनिवार का व्रत करता और सदा मेरी सेवायें लगा रहता है, तुम उसकी सहायता करो जिससे यह अपने शत्रुओं को अपने वश में कर सके गौरीशंकर की आज्ञा को शिरोधार्य करके में अपने घर बला आया। वहाँ मेरी पुत्री अंशुमती ने भी बहुत सी प्रार्थना की। शिवशंकर की आजा तथा अंशुमती के मन की बात जानकर इसको इस बन में लाया हूँ, इसको आपको देता हूँ और आपके बैरियों को आपके वश में करके आपको राज दिला दूंगा। ऐसा कहकर गंधर्वराजने अपनी कन्या का विवाह राजकुमार के साथकरदी और राजकुमार की सहायता के लिये गंधों की चतुरंगिनी सेना वो । धर्मगुप्त के वैरियों ने जब यह समाचार सुना तो उन्होंने राजकु‌मार की अधीनता स्वीकार करली और राजकुमार का राज्य लौटा दिया धर्मगुप्त सिंहासन पर बैठा। अपने भाई शुचिव्रत के लिये मंत्री नियुक्त किया। जिस ब्राह्मणो ने उसे पुत्र की तरह पाला था, उसे राज-माता बनाया। शनियार के व्रत के प्रभाव से शिवजी की कृपा से धर्मगुण इस प्रकार से विदर्भराज हुआ ।श्रीकृष्ण भगवान् बोले-हे पांडु-नंदन ! आप भी इस व्रत को करें तो कुछ समय बाद आपको राज्य प्राप्त होगा और सभी प्रकार के सुखो की प्राप्ति होगी आपके बुरे दिनों की शीघ्घ्र समाप्ति होगी युधिष्ठिर ने शनिवार व्रत कथा सुनकर श्रीकृष्ण भगवान् की पूजा की और व्रत आरम्भ किया इस व्रत के प्रभाव से महाभारत में विजय प्राप्त कर राज्य प्राप्त किया और स्वर्ग की प्राप्ति की ।

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बुधवार व्रत की प्रामाणिक-पौराणिक कथा (Budhvaar Vrat Ki Praamaanik-Pauraanik Katha)

समतापुर नगर में मधुसूदन नामक एक व्यक्ति रहता था। वह बहुत धनवान था। मधुसूदन का विवाह बलरामपुर नगर की सुंदर लड़की संगीता से हुआ था।

श्री गिरिराज जी की आरती (Shri Giriraj Ji Ki Aarti)

ॐ जय जय जय गिरिराज,स्वामी जय जय जय गिरिराज।
संकट में तुम राखौ,निज भक्तन की लाज॥

हरियाली तीज (Hariyali Teej)

हरियाली तीज, जिसे श्रावण तीज के नाम से भी जाना जाता है, एक पारंपरिक हिंदू त्योहार है जो भारत और नेपाल में मनाया जाता है। हरियाली तीज का अर्थ है "हरियाली की तीज" या "हरित तीज"। यह नाम इसलिए पड़ा है क्योंकि यह त्योहार मानसून के मौसम में मनाया जाता है, जब प्रकृति में हरियाली का प्रवेश होता है। यह पर्व श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाता है, जो आमतौर पर जुलाई या अगस्त में पड़ती है। इस दिन भगवान शिव और देवी पार्वती की पूजा का विधान है।

कनकधारा स्तोत्रम् (Kanakdhara Stotram)

अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्तीभृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।
अङ्गीकृताऽखिल-विभूतिरपाङ्गलीलामाङ्गल्यदाऽस्तु मम मङ्गळदेवतायाः॥1॥

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