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(यह व्रत भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को आरम्भ करके आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को समापन किया जाता है।)
एक समय महर्षि द्वैपायन व्यास जी हस्तिनापुर आये । उनका आगमन सुन समस्त राजकुल के कर्मचारी महाराज भीष्म सहित उनका सम्मान आदर कर राजमहल में महाराज को सुवर्ण के सिंहासन पर विराजमान कर अर्घ्य-पाद्य आचमन से उनका पूजन किया। व्यास जी के स्वस्थ चित्त होने पर राजरानी गांधारी ने माता कुन्ती से हाथ जोड़कर प्रश्न किया कि महाराज आप त्रिकालज्ञ हैं, तत्वदर्शी हैं आपसे हमारी प्रार्थना है कि स्त्रियों को कोई ऐसा व्रत सरल पूजन बताइये जिससे हमारी राज्यलक्ष्मी, सुख, पुत्र, पौत्र, परिवार सदा सुखी रहे । इतना सुनकर व्यास जी ने कहा कि हम ऐसे व्रत का उल्लेख कर रहे हैं जिससे सदा लक्ष्मी जी स्थिर होकर सुख प्रदान करेंगी।
यह श्री महालक्ष्मी व्रत है जिनका पूजन प्रतिवर्ष आश्विन (क्वार) कृष्णपक्ष की अष्टमी का माना जाता है। तब राजरानी गांधारी ने कहा, महात्मन यह व्रत कैसे आरम्भ होता है, किस विधान से पूजन होता है, यह विस्तार से बताने का कष्ट करें । तब महर्षि जी ने कहा कि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन सुबह व्रत का मन में संकल्प कर किसी जलाशय में जाकर स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहनकर ताजी दूर्वा से महालक्ष्मी को जल का तर्पण देकर प्रणाम करना चाहिए, फिर घर आकर शुद्ध सोलह धागों का एक गंडा बनाकर प्रतिदिन एक गांठ लगानी चाहिए, इस प्रकार सोलह दिन की सोलह गांठ का एक गण्डा तैयार कर आश्विन माह की कृष्णपक्ष की अष्टमी को व्रत रखकर मण्डप बनाकर चंदोबा तानकर उसके नीचे माटी के हाथी पर महालक्ष्मी की मूर्ति स्थापित कर तरह-तरह की पुष्पमालाओं से लक्ष्मीजी व हाथी का पूजन करके कई पकवान एवं हैं
सुवासित पदार्थों का नैवेद्य समर्पण करें। श्रद्धा सहित महालक्ष्मी व्रत करने से आप लोगों की राजलक्ष्मी सदा स्थिर रहेगी, ऐसा विधान बताकर व्यास जी अपने आश्रम को प्रस्थान कर गये ।
इधर समयानुसार भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी से समस्त राजघरानों की नारियों व नगर-स्त्रियों ने श्री महालक्ष्मी जी का व्रत आरम्भ कर दिया। बहुत-सी नारी गांधारी के साथ प्रतिष्ठा पाने हेतु व्रत का साथ देने लगीं, कुछ नारी माता कुंती के साथ भी व्रत को आरम्भ करने लगीं। पर, गांधारी जी द्वारा कुछ द्वेष-भाव चलने लगा। ऐसा होते-होते 15 दिन व्रत के समाप्त होकर सोलहवां दिन आश्विन कृष्णपक्ष की अष्टमी का आ गया। उस दिन प्रातःकाल से नर-नारियों ने उत्सव मनाना आरम्भ कर दिया और समस्त नर-नारी राजमहल में गांधारी जी के यहाँ उपस्थित हो तरह-तरह से महालक्ष्मी जी के मंडप व माटी के हाथी बनाने सजाने की तैयारियाँ करने लगीं। गांधारी जी ने नगर की सभी प्रतिष्ठित नारियों को बुलाने को सेवक भेजा, पर माता कुंती को नहीं बुलवाया और न कोई सूचना भेजी।
उत्सव-वाद्य की धुन गुंजारने लगीं, जिससे सारे हस्तिनापुर में खुशी की लहर दौड़ गई। माता कुंती ने इसे अपना अपमान समझकर बड़ा रंज मनाया और व्रत की कोई तैयारी न की । इतने में महाराज युधिष्ठिर, अर्जुन, भीमसेन, नकुल, सहदेव सहित पाँचों पाण्डव उपस्थित हो गये, तब अपनी माता को गंभीर देख अर्जुन ने प्रार्थना की- माता ! आप इतनी दुःखी क्यों हो ? क्या हम आपके दुःख का कारण समझ सकते हैं और दुःख दूर करने में भी सहायक हो सकते हैं? आप बतायें। तब माता कुंती ने कहा- बेटा ! जाति अपमान से बढ़कर कोई दुःख नहीं है । आज नगर में श्री महालक्ष्मी व्रत उत्सव में रानी गांधारी ने सारे नगर की औरतें सम्मान से बुलाईं पर ईर्ष्यावश मेरा अपमान कर उत्सव में नहीं बुलाया है। पार्थ ने कहा- माता ! क्या वह पूजा का विधान सिर्फ दुर्योधन के ही महल में हो सकता है, आप अपने घर नहीं कर सकतीं ? तब कुन्ती ने कहा- बेटा कर सकती हूँ पर वह साज-सामान इतनी जल्दी तैयार नहीं हो सकता, क्योंकि गांधारी के 100 पुत्रों ने माटी का विशाल हाथी तैयार करके पूजन का साज सजाया है, वह ऐसा विधान तुमसे न बन सकेगा और उनके उत्सव की तैयारी आज दिन भर से हो रही है। तब पार्थ ने कहा- माता, आप पूजन की तैयारी कर नगर में बुलावा फिरावें। मैं ऐसा हाथी पूजन को बुला रहा हूँ जो आज तक हस्तिनापुर वासियों ने न देखा और न पूजन किया है। मैं आज ही इन्द्रलोक से इन्द्र का हाथी श्ऐरावतश् जो पूजनीय है, उसे बुलाकर तुम्हारी पूजा में उपस्थित कर दूँगा। आप अपनी तैयारी करें।
फिर इधर भी माता कुन्ती ने सारे नगर में पूजा का ढिंढोरा पिटवा दिया और पूजा की विशाल तैयारी होने लगीं। तब अर्जुन ने सुरपति को ऐरावत भेजने को पत्र लिखा और एक दिव्य बाण में बाँधकर धनुष पर रखकर देवलोक इन्द्र की सभा में फेंका। इन्द्र ने बाण से पत्र निकालकर पढ़ा तो आश्चर्य से अर्जुन को लिखा कि हे पाण्डु कुमार ! ऐरावत भेज तो दूँगा पर वह इतनी जल्दी स्वर्ग से कैसे उतर सकता है, तुम इसका उत्तर शीघ्र ही लिखो । पत्र पाकर अर्जुन ने पत्र में बाणों का रास्ता बनाक हाथी उतारने की बात लिख पत्र वापिस कर दिया । इन्द्र ने मातलि सारथी को आज्ञा दी कि हाथी को पूर्ण रूप से सजाकर हस्तिनापुर में उतारने का प्रबन्ध करो । महावत ने तरह-तरह के साज-सामान से ऐरावत को सजाया, देवलोक की अम्बर झूल डाली गयी, सुवर्ण की पालकी रत्नजड़ित कलशों से बाँधी गयी, माथे पर रत्नजड़ित जाली सजाई गई, पैरों में घुंघरू, सुवर्ण मणियाँ बाँधी गईं जिनकी चकाचौंध पर मानव जाति की आँखें नहीं ठहर सकती थीं। इधर सारे नगर में धूम हुई कि कुन्ती माता के घर सजीव इन्द्र का ऐरावत बाणों के रास्ते पर स्वर्ग से उतरकर पूजा जायेगा। सारे नगर के नर-नारी, बालक और वृद्धों की भीड़ ऐरावत को देखने एकत्रित होने लगी।
गांधारी के राजमहल में भी इस बात की चर्चा की बड़ी चहल- पहल मच गयी। नगर की नारियाँ पूजन थाली लेकर भागने लगीं और माता कुंती के महल में उपस्थित होने लगीं। देखते ही देखते सारा महल पूजन करने वाली नारियों से ठसाठस भर गया। सारे नगरवासी ऐरावत के दर्शनों को गली, सड़क, महल, अटारियों पर एकत्र हो गये। माता कुंती ने ऐरावत को खड़ा करने हेतु रंग-बिरंगे चौक पुरवाकर नवीन रेशमी वस्त्र बिछवा दिये । हस्तिनापुरवासी तरह-तरह की स्वागत तैयारी में फूल माला, अबीर, केशर हाथों में लेकर पंक्तिबद्ध खड़े थे। इधर इन्द्र की आज्ञा पाकर ऐरावत स्वर्ग से बाणों के बनाये रास्ते से धीरे-धीरे आकाश मार्ग से उतरने लगा, जिसके आभूषणों की आवाज नगरवासियों को आने लगी। ऐरावत के दर्शन के लिये नर-नारियों ने जय-जयकार के नारे लगाना आरम्भ किये । ठीक सायंकाल ऐरावत माता कुंती के महल के चौक में उतर आया। समस्त नर-नारियों ने पुष्पमाला, अबीर, केशर को चढ़ाकर हाथी का स्वागत किया ।
महाराज धौम्य पुरोहित द्वारा ऐरावत पर महालक्ष्मी जी की मूर्ति स्थापित कराके वेद-मंत्रों द्वारा पूजा की गई । नगरवासियों ने लक्ष्मी-पूजा का कार्य करके ऐरावत की पूजा की । फिर तरह-तरह के मेवा, पकवान ऐरावत को खिलाये गये। ऊपर से जमुना जल पिलाया गया। फिर तरह-तरह के पुष्पों की ऐरावत पर वर्षा की गई । पुरोहित द्वारा श्स्वस्ति पुण्याह वाचनश् कर व्रती नारियों द्वारा लक्ष्मी जी का पूजन विधान से कराया । कुन्ती ने व्रत के डोरे के गंडा में सोलहवीं गांठ लगाकर लक्ष्मी के सामने समर्पण किया। ब्राह्मणों को पकवान, मेवा, मिठाई देकर भोजन की व्यवस्था की गई। तब वस्त्र, द्रव्य, सुवर्ण, अन्न, आभूषण देकर के ब्राह्मणों को संतुष्ट किया। तत्पश्चात् सभी व्रती नर-नारियों ने महालक्ष्मी जी का दीपक जलाकर प्रेम से सम्पूर्ण पूजन कर आरती आरम्भ की ।
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