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सत्यनारायण कथा (Satyanarayan Katha)

॥ प्रथम अध्याय॥ 


एक समय नैमिषीरण्य तीर्थ में शौनकादि 88 हजार ऋषियों ने श्री सूत जी से पूछा हे प्रभु! इस कलयुग में वेद-विद्या रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा। ऐसा कोई उपाय कहिए जिससे थोड़े समय में पुण्य प्राप्त होवे तथा मनचाहा फल मिले, आप ऐसी कथा सुनाइए। तब श्री सूत जी बोले-हे वैष्णवो आपने प्राणियों के हित की बात पूछी है। अब मैं उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों से कहूंगा, जिस व्रत को नारदजी ने लक्ष्मी नारायण से पूछा था और लक्ष्मीपति ने मुनिश्रेष्ठ नारद से कहा था, सो आप सभी उसे सुनिए । एक समय नारद दूसरों के हित की इच्छा से अनेक लोकों में घूमते हुए मृत्युलोक में आ पहुँचे।


 यहां अनेक योनियों में जन्में हुए प्रायः सभी मनुष्यों को अपने कर्मों द्वारा अनेकों दुःखों से पीड़ित देखकर सोचा, किस यत्न के करने से निश्चय ही प्राणियों के दुखों का नाश हो सकेगा। ऐसा मन में सोचकर विष्णु लोक को गए। वह श्वेत वर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के ईश नारायण को देखकर, जिनके हाथ में शंख, चक्र, गदा और पदम थे तथा वरमाला पहने हुए थे, स्तुति करने लगे हे भगवान ! आप अत्यंत शक्ति से सम्पन्न हैं। मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती, आपका आदि-मध्य-अंत नहीं है। निर्गुण स्वरूप, सृष्टि के आदि भूति व भक्तों के दुखों को नष्ट करने वाले हो। आपको मेरा नमस्कार है। नारद जी से इस प्रकार की स्तुति सुनकर विष्णु भगवान बोले-हे मुनि श्रेष्ठ ! आपके मन में क्या है? आपका किस काम के लिए आगमन हुआ है, निःसंकोच कहो। तब नारद मुनि बोले-मृत्युलोक में सब मनुष्य जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं, अपने-अपने कर्मों के द्वारा अनेक प्रकार के दुखों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! मुझ पर दया रखते हो तो बतलाइये कि उन मनुष्यों के सब दुःख थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते हैं।


 श्री भगवान जी बोले-हे नारद ! मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस काम के करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है वह कहता हूँ, सुनो-बहुत पुण्य देने वाला स्वर्ग तथा मृत्यु लोक दोनों में दुर्लभ एक उत्तम व्रत है। आज मैं प्रेम वश होकर तुमसे कहता हूँ। सत्यनारायण का यह व्रत अच्छी तरह विधिपूर्वक करके मनुष्य आयुपर्यन्त सुख भोगकर मरने पर मोक्ष को प्राप्त करता है।


श्री भगवान के वचन सुनकर नारद मुनि बोले कि उस व्रत का फल क्या है ? क्या विधि विधान है और किसने यह व्रत किया है और किस दिन यह व्रत करना चाहिए। विस्तार से कहिए। भगवान बोले-दुःख, शोक आदि को दूर करने वाला, धन-धान्य को बढ़ाने वाला, सौभाग्य तथा संतान को देने वाला यह व्रत सब स्थानों पर विजयी करने वाला है। भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन मनुष्य सत्यनारायण की शाम के समय ब्राह्मणों और बंधुओं के साथ धर्मपरायण होकर पूजा करे। भक्ति भाव से नैवेद्य, केले का फल, घी, दूध और गेहूँ का चूर्ण सवाया लेवें। गेहूँ के अभाव में साठी का चूर्ण, शक्कर तथा गुड़ ले और सब भक्षण योग्य पदार्थ जमा करके भगवान को अर्पण कर देवें तथा बंधुओं सहित ब्राह्मणों को भोजन करावें तत्पश्चात स्वयं भोजन करें। नृत्य, गीत आदि का आचरण कर सत्यनारायण भगवान का स्मरण करता हुआ समय व्यतीत करें। इस तरह व्रत करने से मनुष्य की इच्छा पूरी होती है । विशेषकर कलि-काल में भूमि पर मोक्ष का सरल उपाय है।


॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथायां प्रथम अध्याय सम्पूर्णम्।



॥ दूसरा अध्याय ॥ 


सूतजी बोले-हे ऋषियों! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया है उसका इतिहास कहता हूँ, ध्यान से सुनो। सुंदर काशीपुरी नगरी में एक अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था। वह भूख और प्यास से बैचेन हुआ नित्य पृथ्वी पर घूमता था ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले भगवान ने ब्राह्मण को दुःखी देखकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धर उसके पास जा आदर के साथ पूछा-हे विप्र ! नित्य दुःखी हुआ पृथ्वी पर क्यों घूमता है? हे श्रेष्ठ ब्राह्मण ! यह सब मुझसे कहो, मैं सुनना चाहता हूँ। वह बोला- मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ, भिक्षा के लिए पृथ्वी पर फिरता हूँ। हे भगवन्! यदि आप इसका उपाय जानते हो तो कृपा कर कहो। वृद्ध ब्राह्मण बोला कि सत्यनारायण भगवान मन चाहा फल देने वाले हैं। इसलिए हे ब्राह्मण तू उनका पूजन कर जिसके करने से मनुष्य सब दुखों से मुक्त होता है। ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बतलाकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण करने वाले सत्यनारायण भगवान अन्तर्धान हो गए। जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण ने बतलाया है, मैं उसको करूंगा, यह निश्चय करने पर उसे रात में नींद भी नहीं आई। वह सवेरे उस सत्यनारायण के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिए चला।


 उस दिन उसको भिक्षा में बहुत धन मिला जिससे बंधु-बांधवों के साथ उसने सत्यनारायण का व्रत किया। इसके करने से वह ब्राह्मण सब दुखों से छुटकर अनेक प्रकार की संपत्तियों से युक्त हुआ। उस समय से वह ब्राह्मण हर मास व्रत करने लगा। इस तरह सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो करेगा वही सब पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा। अगर जो पृथ्वी पर सत्यनारायण का व्रत करेगा वह मनुष्य सब दुखों से छूट जाएगा। इस तरह नारदजी से नारायण का कहा हुआ यह व्रत मैंने तुमसे कहा। हे विप्रो ! मैं अब और क्या कहूँ। ऋषि बोले, हे मुनीश्वर ! संसार में इस ब्राह्मण से सुनकर किस-किस ने इस व्रत को किया, हम सुनना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा है। सूत जी बोले, हे मुनियों! जिस-जिस ने इस व्रत को किया है वह सुनो। एक समय एक ब्राह्मण धन और ऐश्वर्य के अनुसार बंधु-बांधवों के साथ व्रत करने को तैयार हुआ उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा आदमी आया और लकड़ियों को रख ब्राह्मण के मकान में गया। वह उनको व्रत करते देखकर ब्राह्मण को नमस्कार कर कहने लगा कि आप यह क्या कर रहे हैं और इसके करने से क्या फल मिलता है ? कृपा कर मुझ से कहो। ब्राह्मण ने कहा, सब इच्छाओं को पूरा करने वाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है, इसकी ही कृपा से मेरे यहां धन-धान्य की वृद्धि हुई है।


 यह सुनकर वह बहुत प्रसन्न हुआ चरणामृत ले और प्रसाद खाने के बाद वह अपने घर को चला गया। लकड़हारे ने अपने मन में इस प्रकार का संकल्प किया कि आज ग्राम में लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसी से सत्यनारायण देव का व्रत करूंगा। यह मन में विचार कर वह बूढ़ा आदमी लकड़ियां अपने सिर पर रखकर, जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, वह ऐसे सुन्दर नगर में गया। उस रोज वहां पर उसे उन लकड़ियों का दाम पहले दिनों से चौगुना मिला, वह बूढ़ा लकड़हारा दाम ले और अति प्रसन्न होकर पक्के केले की फली, शक्कर, घी, दूध, दही और गेहूँ का चून इत्यादि सत्यनारायण भगवान के व्रत की कुल सामग्रियों को लेकर अपने घर गया फिर उसने अपने भाइयों को बुलाकर विधि के साथ भगवान जी का पूजन और व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन, पुत्र आदि से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोगकर बैकुण्ठ को चला गया।


॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथायां द्वितीय अध्याय सम्पूर्णम् ।।



॥ तीसरा अध्याय ॥ 


सूत जी बोले, हे मुनियों ! अब आगे सुनों। किसी समय में उल्कामुख नाम का एक राजा था। वह रोजाना देव स्थानों पर जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी सती साध्वी थी। एक दिन भद्वशील नदी के तट पर उन दोनों ने श्री सत्यनारायण का व्रत किया। उसी समय वहां एक साधु वैश्य आया। उसके पास व्यापार के लिए बहुत-सा धन था। वह नाव को किनारे पर ठहरा कर राजा के पास आ गया और राजा को व्रत करते देखकर विनय के साथ पूछने लगा, हे राजन! भक्ति चित्त से आप यह क्या कर रहे हैं ? मेरी सुनने की इच्छा है। सो आप यह मुझे बताइये। राजा बोला- हे साधु ! अपने बांधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए यह महाशक्तिवान सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन किया जा रहा है। 


राजा के वचन सुनकर साधु आदर से बोला, हे राजन! मुझसे इसका सब विधान कहो, मैं भी इस व्रत को करूंगा। मेरे भी कोई संतान नहीं है और इससे निश्चय ही होगी। राजा से सब विधान सुन व्यापार से निवृत्त हो वह आनन्द के साथ घर गया साधु ने अपनी स्त्री से संतान देने वाले उस व्रत का समाचार सुनाया और कहा कि जब मेरे संतान होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा। साधु ने ऐसे वचन अपनी स्त्री लीलावती से कहे। एक दिन उसकी स्त्री लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत्त होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई तथा दसवें महीने में उसको एक सुन्दर कन्या का जन्म हुआ। 


दिनों-दिन वह इस तरह बढ़ने लगी जैसे शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा बढ़ता है। कन्या का नाम कलावती रखा गया। तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति से कहा कि जो आपने संकल्प किया था कि भगवान का व्रत करूंगा, अब आप उसे करिए, साधु बोला हे प्रिये ! इसके विवाह पर करूंगा। इसी तरह अपनी पत्नी को विश्वास दे वह नगर को गया। कलावती पितृ-गृह में वृद्धि को प्राप्त हो गई। साधु ने जब नगर में सखियों के साथ अपनी पुत्री को देखा तो तुरंत दूत बुलाकर कहा कि पुत्री के लिए कोई सुयोग्य वर देखकर लाओ। साधु की आज्ञा पाकर दूत कंचन नगर पहुँचा और वहां पर बड़ी खोज की फिर लड़की के लिए सुयोग्य वणिक पुत्र को ले आया। उस सुयोग्य लड़के को देखकर साधु ने अपने बन्धु-बान्धवों सहित प्रसन्नचित्त अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया, किंतु दुर्भाग्य से विवाह के समय भी उस व्रत को करना भूल गया। तब श्री भगवान क्रोधित हो गए और श्राप दिया कि तुम्हें दारूण दुख प्राप्त होगा। अपने कार्य में कुशल साधु बनिया जामाता सहित समुद्र के समीप स्थित रत्नपुर नगर में गया और वहां करने लगे।


 एक रोज भगवान सत्यनारायण की क दोनों ससुर-जमाई चंद्रकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने से प्रेरित कोई चोर राजा का धन चुराकर भागा जा रहा था, किंतु राजा के दूतों को आता देखकर चोर ने घबराकर राजा के धन को चुपचाप वहीं रख दिया जहां वो ससुर-जमाई ठहरे हुए थे। जब दूतों ने उस साधु वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो वे दोनों को बांधकर ले गए और प्रसन्नता से दौड़ते हुए राजा के पास जाकर बोले-यह दो चोर हम पकड़ कर लाए हैं, देखकर आज्ञा दें। तब राजा की आज्ञा से उनको कठोर कारावास में डाल दिया और उनका धन छीन लिया। सत्यनारायण भगवान के श्राप द्वारा उनकी पत्नी भी दुखी हुई और घर पर जो धन रखा था चोर ले गए। शारीरिक व मानसिक पीड़ा तथा भूख-प्यास से दुखित हो अन्न की चिंता में कलावती एक ब्राह्मण के घर गई। वहां उसने सत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा, फिर कथा सुनी तथा प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई माता ने कलावती से कहा- हे पुत्री ! अब तक कहां रही व तेरे मन में क्या है? कलावती बोली- हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत देखा है।


 कन्या के वचन सुनकर लीलावती भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी। लीलावती ने परिवार और बन्धुओं सहित । श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और वर मांगा कि मेरे पति और दामाद शीघ्र आ जायें। साथ ही प्रार्थना की कि हम सबका अपराध क्षमा करो। सत्यनारायण भगवान इस व्रत से सन्तुष्ट हो गए और राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा, हे राजन! दोनो वैश्यों को प्रातः ही छोड़ दो और उनका सब धन जो तुमने ग्रहण किया है दे दो, नहीं तो मैं तेरा धन, राज्य, पुत्रादि सब नष्ट कर दूंगा। राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान अंतर्धान हो गए। सुबह को राजा ने सभा में अपना स्वप्न सुनाया, फिर दोनों वणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में बुलाया। दोनों ने आते ही राजा को नमस्कार किया। राजा मधुर स्वर में बोला, हे महानुभावों! भावीवश ऐसा कठिन दुख मिला है। । ऐसा कहकर राजा ने उनका सभी धन देकर आदर सहित विदा कर दिया। 


॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथायां तृतीय अध्याय सम्पूर्णम्॥ 



॥ चौथा अध्याय ॥


सूत जी बोले-वैश्य के कुछ दूर ही जाने पर दण्डी वेषधारी सत्यनारायण ने उनसे पूछा, हे साधु ! तेरी नाव में क्या है? अभिमानी वणिक हँसता हुआ बोला-हे दण्डी ! आप क्यों पूछते हो? क्या धन लेने की इच्छा है? मेरी नाव में तो बेल और पत्ते भरे हैं। वैश्य का कठोर वचन सुनकर भगवान ने कहा-तुम्हारा वचन सत्य हो। दण्डी ऐसा कहकर वहां से दूर चले गए और कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गए। दण्डी के जाने पर वैश्य ने नित्य क्रिया के बाद नाव को ऊँची उठी देखकर अचम्भा किया और नाव में बेल-पत्ते आदि देखकर मूर्छित हो जमीन पर गिर पड़ा। फिर मूर्छा खुलने पर भारी शोक प्रकट करने लगा। तब उसका दामादबोला, आप शोक न करें, यह दण्डी का श्राप है। अतः उनकी शरण में चलना चाहिए, तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी दामाद के वचन सुन वह दण्डी के पास पहुँचा और अत्यन्त भक्तिभाव से नमस्कार करके बोला-मैंने जो आपसे झूठे वचन कहे थे उनको क्षमा करो। ऐसा कहकर महान शोकातुर हो रोने लगा। तब दण्डी भगवान बोले-हे वणिक पुत्र ! मेरी आज्ञा से बार-बार तुम्हें दुख प्राप्त हुआ है, तू मेरी पूजा से विमुख हुआ। साधु बोला- हे भगवान! आपकी माया से मोहित ब्रह्मा आदि भी आपके रूप को नहीं जानते, तब मैं अज्ञानी कैसे जान सकता हूँ? आप प्रसन्न होइए, मैं सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूंगा, मेरी रक्षा करो और पहले के समान नौका में धन भर दो। उसके भक्तियुक्त वचन सुनकर भगवान प्रसन्न हो उसकी इच्छानुसार वर देकर अंतर्धान हो गए। तब उन्होनें नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है फिर वह भगवान सत्यनारायण का पूजन कर साथियों सहित अपने नगर को चला। जब अपने नगर के निकट पहुँचा तब दूत को घर भेजा। दूत ने साधु के घर जा उसकी स्त्री को नमस्कार कर कहा कि साधु अपने दामाद सहित नगर के समीप आ गए हैं। ऐसा वचन सुन साधु की स्त्री ने बड़े हर्ष के साथ सत्यदेव का पूजन कर पुत्री से कहा, मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूँ। 


तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र आ। माता के वचन सुनकर कलावती प्रसाद छोड़कर पति के पास आ गई। प्रसाद की अवज्ञा के कारण सत्यदेव ने रूष्ट हो उसके पति को नाव सहित पानी में डुबो दिया। कलावती अपने पति को न देखकर रोती हुई जमीन पर गिर गई। इस तरह नौका को डूबा हुआ तथा कन्या को रोता देख साधु दुखित मन से बोला-हे प्रभु मुझ से या मेरे परिवार से जो भूल हुई है उसे क्षमा करो। उसके दीन वचन सुन सत्यदेव प्रसन्न हो गए फिर आकाशवाणी हुई हे साधु ! तेरी कन्या ने मेरे प्रसाद को छोड़कर आई है इसलिए इसका पति अदृश्य हुआ है, यदि वह घर जाकर प्रसाद खा कर लौटे तो उसे पति अवश्य मिलेगा। कलावती ने घर जाकर प्रसाद खाया। फिर आकर पति के दर्शन किए। बाद में साधु ने बंधु-बांधवों सहित सत्यदेव का विधिपूर्वक पूजन किया। उस दिन से वह पूर्णिमा को सत्यनारायण का पूजन करने लगा। फिर इस लोक का सुख भोगकर अंत में स्वर्गलोक को गया। 



॥ पांचवा अध्याय ॥


सूतजी बोले-हे ऋषियों! मैं और कथा कहता हूँ, प्रजापालन में लीन तुंगधवज नाम का एक राजा था उसने भगवान का प्रसाद त्यागकर दुख पाया। एक समय वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर बड़ के पेड़ के नीचे आया, वहां उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से सत्यनारायण जी का पूजन करते देखा। राजा देखकर भी अभिमानवश वहां नहीं गया और न नमस्कार ही किया जब ग्वालों ने भगवान का प्रसाद उसके सामने रखा तो वह प्रसाद को त्यागकर अपनी सुन्दर नगरी को चला। वहां उसने अपना सब कुछ नष्ट पाया तो वह जान गया कि यह सब भगवान ने किया है। तब वह विश्वास कर ग्वालों के समीप गया और विधिपूर्वक पूजन कर प्रसाद खाया तो सत्यदेव की कृपा से पहले जैसा था वैसा ही हो गया फिर दीर्घकाल तक सुख भोगकर मरने पर स्वर्गलोक को गया। जो मनुष्य इस परम दुर्लभ व्रत को करेगा भगवान की कृपा से उसे धन-धान्य की प्राप्तिहोगी। निर्धन धनी और बन्दी बंधन से मुक्त होकर निर्भय हो जाता है। संतान हीनों को संतान प्राप्ति होती है तथा सब मनोरथ पूर्ण होकर अन्त में बैकुण्ठ धाम को जाता है। जिन्होने पहले इस व्रत को किया अब उनके दूसरे जन्म की कथा कहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष को पाया। उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुण्ठ को प्राप्त हुआ। साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष को प्राप्त किया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयं-भू होकर भगवान में भक्ति युक्त कर्म कर मोक्ष प्राप्त किया।



॥ इति श्री सत्यनारायण व्रत कथायां पंचम अध्याय सम्पूर्णम्॥ 


आरती को आरार्तिक और नीराजन भी कहते हैं। पूजा के अंत में आरती की जाती है। पूजन में जो त्रुटि रह जाती है, आरती से उसकी पूर्ति होती है। आरती करने का ही नहीं, आरती देखना भी बड़ा पुण्य होता है। जो आरती को देखता है और दोनो हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीड़ियों का उद्धार करता है और भगवान विष्णु के परमपद को प्राप्त होता है। 


बोलिए सत्यनारायण भगवान की जय

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श्री पितृ चालीसा (Shri Pitra Chalisa)

हे पितरेश्वर नमन आपको, दे दो आशीर्वाद,
चरणाशीश नवा दियो रख दो सिर पर हाथ।

परिवर्तनी एकादशी 2024: चातुर्मास के दौरान जब भगवान विष्णु बदलते हैं करवट, जानें इस दिन की पूजा का शुभ मुहूर्त और महत्व

हिंदू धर्म में व्रत और त्योहारों का बहुत महत्व है। हर एक त्योहार और व्रत से जुड़ी कई कथाएं होती हैं, जिन्हें पढ़ने और जानने से व्यक्ति को धार्मिक लाभ होते हैं।

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तिरुमाला में नारियल पानी से होता है भगवान वराह का अभिषेक, वराह जयंती पर जानिए देश के प्रसिद्ध वराह मंदिरों के बारे में….

श्री गौमाता जी की आरती (Shri Gaumata Ji Aarti)

ॐ जय गौमाता, मैया जय जय गौमाता,
जो कोई तुमको सेवत, त्रिभुवन सुख पाता।।

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