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सन्तोषी माता/शुक्रवार की ब्रत कथा (Santhoshi Mata / Sukravaar Ki Vrat Katha

एक नगर में एक बुढ़िया के सात पुत्र थे, सातौ के विवाह हो गए, सुन्दर स्त्री घर में सम्पन्न थीं। बड़े बः पुत्र धंधा करते थे बोटा निठल्ला कुछ नहीं करता था और इस ध्यान में मग्न रहता था कि में बिना किए का खाता हूं। एकदिन वह अपनी बहूसे यह शेखी बघारने लगा कि मेरी मां मुझे बिना कुछ करे धरेही कितना अच्छा भोजन देती है। बहू बोली, हे स्वामी आपकी माता आपको विनाकिये खिलाती अवश्य हैं पर सबका मूँठो बचाहुआ भोजन देती हैं, ऐसे भोजन से तो कुछ भी करके रूखा सूखा भोजन पाना अच्छा। पत्नी के वचन सुन वह बोला, ये नहीं हो सकता, माता मुझे सबका कँठा भोजन क्यों देगी। स्त्री बोली, किसी दिन छिपकर आप स्वयं देंखलें।


कुछ दिन बाद एक बड़ा त्यौहार या तो रसोई घर में कई प्रकारके भोजन आदि बने रक्खे। जांच करने को सिर दुखने को बहाना कर एक पतलासा बस्त्र सिर पर ओढ़ रसोई घर में ही सो रहा। बेंचों भाई भोजन पाचुके तब मां ने नित्य की भांति बेंओं की थालीसे बचे हुए लड्डू के टुकड़े ले दुबारा लड्डू बना झूठन साफ करके छोटे" को पुकार कद्दा-हेपुत्र भोजन पाले, यह सभी कार्य वह स्वयं देवरहा था चूंकि यह बस्त्र हल्का था उससे सब दिखाई देताया वह मांसे बोला-मुझे भूख नहीं है अब मैं परदेश जारहा हूं। कमाई करके लाकर तभी भोजन करू'गा, मांबोली-में कब कहती हूँ कि तू खा, कल जायतो अभी जा, वह बोला-हां हां अभी जाता हूं। यह कह चल दिया, उसकी स्त्री गौशाला में कन्डेचाप रही थी वहां जाकरबोला-तैने जौकुल कहा था बह मैंने आज सब देख लिया। तू सत्य कहती है अब मैं परदेशमें धन्धा करने जा रहा ह-हे भिये तुम मेरा सोच त्याग जैसे बने तैसे अपने सत्य से रहना। मुझे विंदा करदो, स्त्री नेत्रोंमें जल भरकर बोली-हे नाथ ईश्वर के भरोसे मुझे छोड़ आप जाइये पर मुझे निशानी दे दीजिये मैं उसीके सहारे जीवन व्यतीत करूंगी, मेरा वही आधार रहेगा।


पतिदेव हाथ से अँगूठी उतारकर बोले कि हे प्यारी मुझे भी कुछ निशानी देदो। पत्नी बोली-हे नाथ मेरे पास क्या है, यह गोबर सना हाथ है परन्तु सत्य इसके साथ है। यह कह पीठ पर पञ्जा बाप बोली कि हे नाथ जब आप इसे देखेंगे तभी मेरी याद आजायगी, अत्तः इसप्रकार वह घर से विदा हो चलदिया और चलते २ एक नग्रमें पहुँचा वहाँएक साहूकार को दुकान पर जा कहने लगा-हे भाई मुझे नौकरी पर रखलो। उस साहूकारको नौकर की आवश्यकता थी अतः वह नौकरी पर रख लिया। इसने सुबह 7 बजे से रात्रि के 12 बजे तक कढ़ी महनत करके दुकान का धन्धा बीस गुना कर दिया।


पूरे शहर में दुकान नामों हो गई, अन- गिनतिन व्यौहार बढ़ गया। साहूकार ने 3  महीने में ही सारा कार्य देख उसे आधे का हिस्सेदार बना लिया। इस प्रकार कुछ दिन बाद साहुंकार बाहर चला गया। इसी तरह 12 वर्ष व्यतीत हो गए। यहाँ बहू पर सासू घरका सारा काम कराती और फिर जङ्गलमें लकड़ी काटने को भेजती थी, तब पीछेसे भुसी मॉड़कर उसकी दो रोटी बना उसे खाने को देती थी, एक फूटे नारियल के खौपड़े में पानी भरकर पीने को देती थी, इस प्रकार अति दुखी हो दिन बतीत करती थी, एक दिन वह जङ्गल को लकड़ी लेने जा रही थी, रास्ते में बहुतसी स्त्रियां सन्तोषी माता की कथा सुनरही थीं, भीड़ देख बह भी 19 खड़ी हो गई और कथा सुनी, जब कथा समाप्त हो गई तब बोली हे बहनों, इस व्रत की विधि मुझे भी बतायो, इसके करने से क्या फल मिलता है।


तब एक बुढ़िया बोली-इस व्रतके करने से निर्धनताकानाश हो लक्ष्मी प्राप्त होती है, मनकी तारी बिन्ताऐं दूर होती है, निपुत्रीको पुत्र माती होती है, किसी का पति परदेशहो तो शीघ्र धर आजाता है, क्वारी पुत्रीको मनपसन्द वर मिलता है, मुकदमेसे मुक्ति पाता है, रोगादि से मुक्त होता है अतः सभी मनोकामना पूर्ण होती हैं परन्तु भक्ति से विश्वास बर। व्रत रह कथा सुननी चाहिये। वह बोली-है माँ इस व्रत का विधान कहिये, तब बुढ़िया बोल-है बेटी इसमें 5 पैसा, 5 आना, सवा रुपया यानी सवाये का श्रद्धांनुसार गुढ़ चना का भोग ला अवित्त माव शुक्रवार के दिन निराहार रद्द सन्तोषी माता की कथा सुने तथा कथा कहे। कथा के सम्मुख एक थी का दीपक जलावे, एक जलका पात्र भरकर सामने रखे, कथा समाप्त होनेपर गुड़ चना वा भोग लगा प्रसाद वितरण करे, फिर स्वयं प्रसाद पावे। जब तक कार्य सिद्ध न हो तंव तक नियम का पालनवरे इस प्रकार तीन मास में माता फल दिखलाती है, यदि किसीके ग्रह खोटे हों तो एक वर्ष में चावश्य कार्य की सिद्धि होजाती है, कार्य सिद्ध होजाने पर व्रत का उद्यापन करदे, उद्यापन में ढाई सेर आटे है का खाजा (मोमनदार पूरी) तथा खीर व चने का साग करना चाहिये ।


कम से कम आठ लड़कों को भोजन जिमाना चहिए। जहाँ तक हो देंवर जेठ भाई बन्धु पड़ोसियों के बच्चे हों, न मिलनेपर ब्राह्मणों के ही बच्चे हों, उनको यथाशक्ति दक्षिणा दे व्रत के उद्यापनके दिन पूरे परिवार में किचित मात्र भी किसी प्रकार की खटाई किसी तरह से नहीं खानी चाहिए। अस्तु, यह सुन बहू मनमें खुश हो चलदी, रस्तेमें लकड़ीके गटुं को बेच उन पैसोंके गुढ़ चना ले सन्तोषी माताके व्रत का सङ्कल्प करलिया और सन्तोषी माँक मन्दिरमें जा चरणों में लोट कहने लगी माँ मैं तेरी शरणहूँ और तेरे जतके नियम आदि कुचभी नहीं जानती। हे मॉ त्राहिमाम् मैं तेरीशरण हूँ मेरा दुख शीघ्र दूरकर, माता झट प्रसन्न होगई, दूसरे शुक्रबार को ही उसके पति की राजीखुशी क पत्र आगया। तीसरे शुक्रबार को मनिआडर से रुपये आगए। यह देख जिठानी कुढ़कर मुँह सिकोड़ बोली धनेदिन बाद यह पैसा आया तो का भाषा, इसमें क्या बढ़ाई है। लड़के भी ताना देने लगे अब काकी के पास रुपये आने लगे अब तो काकी की खातिर होगी, अब तो काकी बुलाये से भी नहीं बोलेगी, ये ताने के बोल सुन बेचारी मन में अत्यन्त दुखी हो माता के मन्दिर में जा आंसूभर कर के मा के चरणों में गिरकर बोली। हे माँ मैंने कब पैसा मांगा माँ में तो अपने स्वामी के दर्शन करना चाहती हूं। मुझे तो अपने सुहाग से काम है। अतः स्वामीकी सेवाका वरदान दो, तब मां प्रसन्न हो कर बोंली बेटी सुहाग सुरछित घर आवेगा तू दुखी मत हो, यह सुन खशी से अत्यन्त प्रसन्न हो घर जा कार्य करने लगी उधर सन्तोषी मां उसके पतिसे स्वप्नमें जाकरबोली है। पुत्र तू यदि सुख से रह रहा है। अपनी पत्नी की याद तक नहीं करता। वह वहां अत्यन्त दुखमय जीवन व्यतीत कर रही है अब घर जा स्वप्न में ही साहूकार का बेटा बोला मां घर कैसे जाऊ चारों ओर ब्यौहार का लेना देना पड़ा हुआ है। ऐसे कैसे इसे छोड़ दूँ । तो माता बौली कि सबेरे स्नान कर संतोषी माता का नाम ले घी का दीपक जोर दण्डबत कर दुकान पर जा बैठना ।


तुरन्त तेरा सब लेना देना चुक जावेगा सायंकाल तक धन का एक ढेर लग जाइगा। यह कह अन्तर ध्यान हो गई। इसका स्वप्न टूट गयो सवेरे इसने यह स्वप्न का हाल और बन्धुओं से  कहा तो वह बोले कि कहीं स्वप्न की बात भी सत्य होती है। एक बूढ़ा बोला कि पुत्र सुन स्वप्न  में देवता ने जैसा कहा है बेसा ही कर, इसने तुरन्त स्नान कर सन्तोषी मां को दण्डवत्त कर घी का दीपक जला दुकान पर जाबैठा  तुरन्त ही अगिनतिन ग्राहक आनेलगे लेगे और पैसा देने वाले पैसा देने लगे, सारा का  सारा माल नकद दाम देकर ग्राहक ले गए इस प्रकार शाम तक रुपयों का ढेर लग गया, सभी सामग्री बिकगया। ऐसा सन्तोषी मां का चमत्कार देख साहूकार मनमें अत्यन्त खुश होयगा और घर जाने की तैयारी करने लगा,  वा नगर से वर के लिए कपड़े गहने आदि ले आया, फिर सभी कार्यसे फिरी होकर तुरन्त घरको चलदिया, वहां विचारी वह जंगल से लकड़ी काटकर लौटते में सन्तोषी माताके मन्दिर पर दो मिनट विश्राम लेकर तब घरको जायाकरती थी, इसदिन उसी जगहपर पहुंचकर आवाश में धूल उड़ती देख मन्दिरमें माँ से पूछने लगीकि मां यह धूल कैसे उड़ रही है, माँ बोली हे पुत्री तेरा पति आरहा है। अब तू तुरन्त इस लकड़ी के ग‌ट्ठे को बांध एक नदीके किनारे रख दे एक मन्दिर पर एक अपने शिरपर रखलेना तेरा पति यहां टिकेगा और तेरी लकड़ी देख तुझसे मोह पैदा होगा तथा तेरी लकड़ी खरीद लेगा और यहां तब भोजन खाकर घर को जायगा। तब तू एक गट्टे को लेजा करके चौक में डाल तीन आबाज देना कि हे सासूजी लकड़ी का ग‌ट्ठा लो मुह की रोटी दो नारियल के नरेलो में पानी दो। आज महमान कौन आया है यह सुन बहू अत्यन्त प्रसन्न हो मां के बताए अनुसार लकड़ी के तीन गट्ठा कर एक नदीपर रख आई एक मन्दिर पर रखा , इतने ही में पतिदेव आगए पर उन्होंने इसे नहीं पहचाना और इससे लकड़ी को भोजन बना स्वयं कुछ विश्राम हो तब घरको गया, वहां सबसे मिल घरके भीतर कमरे में गया उसी समय उसकी बहू शिर पर लकड़ी का गट्ठा लादे घर पहुंची और ग‌ट्ठा आंगन में पटक बोली हे सासूजी लकड़ी का गठ्ठा लो भुसीकी रोटी दो नारियल के खुपड़े में पानी दो, आज क्या कोई मेहमान आया है, यह सुन उसकी सास कोठे से बाहर आ अपने दिए हुए कार्य को भुलाने के लिए बोली-हे बहू ऐसे क्यों कहती है तेरा मालिक ही तो, आया है, आंकर बैठ मीठा भात खा कपड़े बदल कुछ गहने आदि पहन, यह वार्तालाप सुन उसका पति बाहर निकल आया और उसके हाथ में अंगूठी देख व्याकुल हो माँ से बोला मां यह कौन है। मां बोली बेटा तेरी बहू है, बारह बर्ष से जबसे तू गया है तभी से इसीतरह बाबली हुई सारे गांव में जानवर की तरह भटकती डोलती है। घर का कुछ काम काजू नहीं करती।


चार समय आकर खा जाती है, यह तुझे देख भूसी की रोटी नारियल के खुपदे में पानी मांगकर स्वयं बना रही है। पुत्र बोला मां ठीक है मैंने इसे भी देखा और तुझे भी। अब मुझे दूसरे घर की चीबी दो में उसमें ही रहूंगा। मां ने दूसरे घरकी चाबी पटक दी। तब दोनों प्राणी दूसरे घरकी तीसरी मंजिलपर जाकर कमरे में रहने लगे और राजसी ठाट में सर्व सुख भोगने लगे। जब शुक्रवार आया तो बह अपने पति से बोली हे स्वामी अब मेरा सब कार्य सिद्ध हो गया। अब मैं सन्तोषी माता का उद्यापन करूंगी। सन्तोषी माता के ही व्रत से मेरी सब मनोकामना पूर्ण सिद्ध हुई है, पति बोला जैसी तुम्हारी इच्छा  हो वही कार्य खूब प्रेमसे करो तुरन्त बहू उद्यापन की तैयारीकर जेठके लड़कोंको नोंत आई पीछे जिठानी ने बच्चों को सिखा दिया, भोजन समय खटाई माँग जिससे उसका उद्यापन भंग होजाय । लडकोंने आ खूब खीर आदि भोजन को खाया और कहा कि चाची कुछ ख‌ट्टी चीज दो, मीठे भोजन से अरुचि हो गई, बहु बोली कि हे पुत्रो इस ब्रत में खटाई नहीं मिलत्ती ये सन्तोषी माता का प्रसाद है। बच्चे उठकर बोले कि पैसा देदो बह भोली थी पैसा दे दिए, तौ बच्चोंने इसी समय उन पैसों की इमली ले कर खा ली सन्तोषी माता इस प्रकार इमली खातेही रुष्ट होगई, उसी समय राजा के सिपाही उसके पतिको पकड़ ले गये।


इधर जेठ जिठानी बहने आदि सभी खोटे बचन करने लगे कि चोरी करके लूटका धन इकट्ठो कर लाया है, अव जेल जाकर मार पड़ेगी तब सब मालुम पड़ जायगी। बहू से ये बचन सहन न हुए तो रोती हुई सन्तोषी माताके मन्दिर में जा रोकर बोली, हे मां तुमने हँसाकर क्यों रुलाया मेरा क्या कसूर है, में शरण हूं । माता प्रकट हो बोली कि तूने उद्यापनमें बच्चोंको पैसे दे खटाई खिलाई उसीका परिणाम है, बहू बोली- माँ भूल हुई छमा करो, फिर से उद्यापन करूगी, तब मां बोली अब तू भूल न करना, जो रास्ते में तेरा पत्ति तुझे मिलेगा, यह कह कर वह चली तो रास्ते में पति आते मिले, वह बोली कि हे प्राणेश्वर आप कहां गए थे, बोले कि हम जो धन कमाकर लाए थे राजाने उसका टेक्स  मांगा था वह भर दिया, अब घर चल कर प्रसन्नता से रहो ।


एक हफ्ते बाद फिर शुक्रवार आया तो दुबार उद्यापन की तैयारी कर ब्राह्मण-पुत्रों को जिबा दिया और दक्षिणा में फल दिए। इस प्रकार सन्तोषी माता के प्रसाद से नौंवे मास चन्द्रमाँ के समान सुन्दर पुत्र रत्न उत्पन्न हुया वह पुत्र को लेकर प्रतिदिनं माँतां सन्तोषों के मन्दिर में दर्शन को जाती थी, एक दिन माँ ने सोचा कि मैं फिर से परीक्षा लुंगी कि ये मुझे पहचानती है या नहीं। अतः मा ने भयनक रूप धारन कर लिया, शेर के समान गुड़ चना' से मुह सना हुआं है। मक्खि भिनमिना रही है। तुरन्त उसकी देहरी में पहुँच गई देखतेही उसकी सासे चिल्लाई दौड़ियो रे कोई चुड़ैल डाकिन आ रही है, इसे भागने, नहीं दो बच्चोंको खा जायगी। लड़के भागने लगे और चिल्लाकर दरवाजा' बन्द करने लगे यह दृश्य एक झरोखे से बहू देखरही थी. देखकर मां को पहचान खुशी में पगलीही चिल्ला मेरी माताजी घर आई है, यह कह बच्चे को दुध पीने से हटीकर जमीनंपर पटक दिया, यह देखें सास का क्रोध फूट पड़ा और कहने लगी, क्या उतावली होती है कि बच्चे को जमी पर पटक दिया । इतने हो में मां के प्रताप से चारों ओर बच्चे ही बेच्चे दीखने लगे, बहू बोली-मां' में निर्जला व्रत. करती हूँ वही मेरी सन्तोषी मां है। यह कह फिर सारे घरं के किबाड़ खोल दिँए, तब सबने मां के चरणः पकड़ बीनती कर उसकी याचना करने लगे हे मा हम मुर्ख अज्ञानी है आपके प्रताप, की महिमा आदि नहीं जानते, इसने तुम्हार ब्रत भंग कर बहुत बड़ा अपराध किया है, जगत्माता हमें क्षमा करो। विनती सुनते ही माता तुरन्त खुश हो गई और जैसे-फल इस वह को दिया वैसा ही सबको दे दिया।

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श्री रुद्राष्टकम् , Sri Rudrashtakam

॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥ ॥ Shrirudrashtakam ॥
namaamishmishan nirvanarupam
vibhum vyapakam bramvedasvarupam .
nijam nirgunam nirvikalpam niriham
chidakashamakashavasam bhaje̕ham . 1.

सत्यनारायण पूजन विधि (Satyanarayan Pujan Vidhi)

व्रत करने वाला पूर्णिमा व संक्रान्ति के दिन सायंकाल को स्नानादि से निवृत होकर पूजा-स्थान में आसन पर बैठ कर श्रद्धा पूर्वक गौरी, गणेश, वरूण, विष्णु आदि सब देवताओं का ध्यान करके पूजन करें और संकल्प करें कि मैं सत्यनारायण स्वामी का पूजन तथा कथा-श्रवण सदैव करूंगा ।

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देवी लक्ष्मी स्तोत्रम् (Devi Lakshmi Stotram)

हरिः ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्र​जाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥

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