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संतान के द्वारा श्राद्धकर्म और पिंडदान आदि करने पर पितरों को तृप्ति मिलती है, और वे अपनी संतानों को धन-धान्य और खुश रहने का आशीर्वाद देते हैं। इसी से जुड़ी श्राद्ध पक्ष की एक पौराणिक कथा भी है, जो श्राद्ध पर्व पर अधिकांश क्षेत्रों में सुनाई जाती है। ऐसी मान्यता है कि इस कहानी को पढ़े बिना पितृ पक्ष का पुण्य नहीं मिलता है। आइए जानते हैं कि श्रद्धा भाव से प्रसन्न होकर पितर कैसे अपना आशीर्वाद देते हैं...
पितृ पक्ष की पौराणिक कथा के अनुसार, जोगे और भोगे नाम के दो भाई थे। दोनों अलग-अलग रहते थे। जोगे धनी था, जबकि भोगे निर्धन। दोनों भाई एक-दूसरे से बहुत प्रेम करते थे। जोगे की पत्नी को धन का अभिमान था, लेकिन भोगे की पत्नी सुशील और शांत स्वभाव की थी।
पितृ पक्ष आने पर जोगे की पत्नी ने उससे पितरों का श्राद्ध करने के लिए कहा, लेकिन जोगे इसे व्यर्थ समझकर टालने लगा। जोगे की पत्नी केवल अपनी शान दिखाने के लिए श्राद्ध करना चाहती थी ताकि अपने मायके पक्ष के लोगों को बुलाकर दावत दे सके। जोगे ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन वह अड़ी रही और भोगे की पत्नी को बुलाकर श्राद्ध की तैयारी शुरू कर दी।
दूसरे दिन भोगे की पत्नी सुबह-सवेरे आकर काम में जुट गई। उसने अनेक पकवान बनाए और फिर अपने घर लौट गई, क्योंकि उसे भी पितरों का तर्पण करना था। जब पितर भूमि पर उतरे, तो वे जोगे के घर गए और देखा कि वहां उसके ससुराल पक्ष के लोग भोजन में व्यस्त थे। यह देखकर वे निराश हुए। फिर वे भोगे के घर गए, तो देखा कि उसने केवल 'अगियारी' दे दी थी। पितरों ने उसकी राख चाटी और भूखे ही नदी के तट पर जा पहुंचे।
बाद में जब सभी पितर अपने-अपने घर के श्राद्ध की चर्चा कर रहे थे, तो जोगे-भोगे के पितरों ने भी अपनी आपबीती सुनाई। वे सोचने लगे कि यदि भोगे समर्थ होता, तो उन्हें भूखा न रहना पड़ता। यह सोचकर उन्हें भोगे पर दया आ गई और वे नाच-नाचकर गाने लगे- "भोगे के घर धन हो जाए, भोगे के घर धन हो जाए।"
सांझ का समय हो चला था, लेकिन भोगे के घर में खाने को कुछ भी नहीं था। उसके बच्चे भूखे थे। बच्चों ने अपनी मां से कहा कि भूख लगी है। तब उन्हें टालने के लिए गुस्से में भोगे की पत्नी ने कहा कि आंगन में औंधी रखी हौदी खोल लो, उसमें जो भी हो, आपस में बांटकर खा लेना। बच्चे जब वहां गए, तो देखा कि हौदी सोने की मोहरों से भरी पड़ी थी। यह देखकर भोगे की पत्नी भी हैरान रह गई।
इस प्रकार भोगे भी धनी हो गया, मगर धन पाकर वह घमंडी नहीं हुआ। अगले वर्ष पितृ पक्ष आया, तो भोगे की पत्नी ने छप्पन प्रकार के व्यंजन बनाए। उसने ब्राह्मणों को बुलाकर श्राद्ध कराया, भोजन कराया और दक्षिणा दी। जेठ-जेठानी को सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन कराया। इससे पितर बड़े प्रसन्न और तृप्त हुए।
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