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कार्तिगाई दीपम उत्सव दक्षिण भारत के प्रमुख त्योहारों में से एक है, जो भगवान कार्तिकेय और शिव को समर्पित है। यह उत्सव तमिल माह कार्तिगाई की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है, जो उत्तर भारतीय कैलेंडर के अनुसार मार्गशीर्ष महीने की पूर्णिमा तिथि को आयोजित होता है। इस दिन लोग अपने घरों को सजाते हैं, कोलम बनाते हैं और मिट्टी के दीये जलाकर भगवान कार्तिकेय और शिव की पूजा करते हैं। यह उत्सव दक्षिण भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो परिवार, समुदाय और आध्यात्मिक विकास को बढ़ावा देता है। ऐसे में आइये जानते हैं दक्षिण भारत में इस पर्व को क्यों मनाया जाता है, इससे जुड़ी पौराणिक कथा क्या है? साथ ही इसके महत्व के बारे में भी जानेंगे।
कार्तिगाई दीपम उत्सव तमिल माह कार्तिगाई की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। ऐसे में इस तिथि की शुरूआत 12 दिसंबर को शाम 06 बजकर 20 मिनट पर हो रही है जो 13 दिसंबर की शाम 04 बजकर 18 मिनट तक जारी रहेगी। उदया तिथि के अनुसार कार्तिगाई दीपम उत्सव 13 दिसंबर को मनाया जाएगा।
कार्तिगाई दीपम के दिन भगवान शिव ने स्वयं को ज्योति रूप में परिवर्तित कर लिया था, जिसके कारण इस दिन भगवान शिव के ज्योति स्वरूप का पूजन किया जाता है। इस पर्व के पीछे की कथा यह है कि जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता को लेकर विवाद हुआ, तो भगवान शिव ने ज्योति स्तंभ रूप में प्रकट होकर दोनों से इसके प्रारंभ और अंत को खोजने को कहा था। कार्तिगाई दीपम पर भगवान शिव के इसी ज्योति स्वरूप का पूजन किया जाता है। हर माह कृतिका नक्षत्र के दिन कार्तिगाई दीपम मनाया जाता है, जिसके कारण इसका नाम कार्तिगेय पड़ा।
कार्तिगाई दीपम को तमिलनाडु में दीपावली की तरह मनाया जाता है। इस दिन तमिल हिंदू सूर्यास्त के बाद अपने घरों को विशेष रूप से सजाते हैं। वे अपने घरों की कोलम और दीपक से सजावट करते हैं, जो इस त्योहार की एक महत्वपूर्ण परंपरा है। इसके बाद, वे भगवान शिव और उनके पुत्र भगवान मुरुगन की विधि-विधान से पूजा-अर्चना करते हैं। इस दिन विशेष प्रसाद के रूप में अडाई, वडाई, अप्पम, नेल्लू पोरी और मुत्तई पोरी जैसे पारंपरिक व्यंजन बनाए जाते हैं और दोनों देवताओं को अर्पित किए जाते हैं।
कार्तिगाई दीपम उत्सव के अवसर पर तमिलनाडु और केरल के सभी मंदिरों में विशेष पूजा का आयोजन होता है। तमिलनाडु के तिरुवन्नामलाई अरुणाचलेश्वर स्वामी मंदिर में कार्तिगई दीपम उत्सव का भव्य आयोजन होता है, जो कार्तिकाई बह्मोत्सव के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन लाखों की संख्या में श्रद्धालु अरुणाचलेश्वर मंदिर में एकत्रित होते हैं और विशाल दीपक जलाते हैं, जिन्हें महादीपम कहा जाता है। यह भगवान शिव के ज्योति रूप का प्रतीक माना जाता है, जिसका संबंध भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग से है, जिसका जिक्र शिव पुराण में किया गया है। कार्तिगाई दीपम पर्व को मूल रूप से भगवान शिव को समर्पित माना जाता है, जिसमें घर-घर में लोग दीप जलाकर नकारात्मक ऊर्जा को भगाते हैं और सकारात्मक ऊर्जा एवं सुख-समृद्धि को घर में आमंत्रित करते हैं।
कार्तिगाई दीपम उत्सव को मनाने के पीछे कई कथाएं हैं जिनमें मुख्य कथा यह है कि सृष्टि के आरंभ में ब्रह्म का भेद बताने के लिए भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए। ब्रह्मा और विष्णु जो अपने को श्रेष्ठ साबित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे उनके सामने आकाशवाणी हुई कि जो इस लिंग के आदि या अंत का पता करेगा वही श्रेष्ठ होगा। भगवान विष्णु वाराह रूप में शिवलिंग के आदि का पता करने के लिए भूमि खोदकर पाताल की ओर जाने लगे और ब्रह्मा हंस के रूप में अंत का पता लगाने आकाश में उड़ चले लेकिन वर्षों बीत जाने पर भी दोनों आदि अंत का पता नहीं कर पाए। भगवान विष्णु हार मानकर लौट आए लेकिन ब्रह्माजी ने भगवान शिव के शीश के गिरकर आने वाले केतकी के फूल से पूछा कि शिवलिंग का अंत कहां है। केतकी ने बताया कि वह युगों से नीचे गिरता चला आ रहा है लेकिन अंत का पता नहीं चला है। ब्रह्माजी को लगा कि वह पराजित हो जाएंगे तो वह लौटकर आ गए और झूठ बोल दिया कि उन्होंने शिवलिंग के अंत का पता कर लिया है। ब्रह्माजी के झूठ से ज्योर्तिलिंग ने प्रचंड रूप धारण कर लिया जिससे सृष्टि में हाहाकर मचने लगा। देवताओं द्वार क्षमा याचना करने पर यह ज्योति तिरुमल्लई पर्वत पर अरुणाचलेश्व लिंग के रूप में स्थापित हो गया। कहते हैं यहीं से शिवरात्रि का त्योहार मनाना भी आरंभ हुआ।
एक अन्य कथा का संबंध कुमार कार्तिकेय और मां दुर्गा से जिनके कारण कार्तिगई दीपम का त्योहार मनाया जाता है। कथा के अनुसार कुमार कार्तिकेय को 6 कृतिकाओं ने 6 अलग-अलग बालकों के रूप में पाला इन्हें देवी पार्वती ने एक बालक में परिवर्तित कर दिया उसके बाद से यह त्योहार मनाया जाने लगा
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