श्री हरितालिका तीज व्रत कथा (Shri Haritalika Teej Vrat Katha)

(भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को किया जाने वाला व्रत)


श्री परम पावनभूमि कैलाश पर्वत पर विशाल वट वृक्ष के नीचे भगवान् शिव-पार्वती एवं सभी गणों सहित अपने बाघम्बर पर विराजमान थे। बलवान् वीरभद्र, भृंगी, श्रृंगी, नन्दी आदि अपने-अपने पहरों पर सदाशिव के दरबार की शोभा बढ़ा रहे थे । गन्धर्वगण, किन्नर, ऋषि, हर भगवान् की अनुष्टुप छन्दों से स्तुति-गान कर वाद्यों के बजाने में संलग्न थे। उसी सुअवसर पर महारानी पार्वती जी ने भगवान् शिव से दोनों हाथ जोड़कर प्रश्न किया कि हे महेश्वर ! मेरे बड़े सौभाग्य हैं जो मैंने आप सरीखे पति को वरण किया। क्या मैं जान सकती हूँ कि मैंने वह कौन-सा पुण्य अर्जन किया था। आप अन्तर्यामी हैं, मुझको बताने की कृपा करें। पार्वती जी की ऐसी प्रार्थना सुनने पर शिवजी बोले- हे वरानने, तुमने अति उत्तम पुण्य का संग्रह किया था, जिससे तुमने मुझे प्राप्त किया है। वह अति गुप्त है फिर भी तुम्हारे आग्रह पर प्रकट करता हूँ।


कथा प्रारम्भ-भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष के तीज का व्रत हरताल के नाम से प्रसिद्ध है। यह जैसे तारागणों में चन्द्रमा, नवग्रह में सूर्य, वर्णों में ब्राह्मण, नदियों में गंगा, पुराणों में महाभारत, वेदों में साम, इन्द्रियों में मन, ऐसा ही यह व्रत श्रेष्ठ है । जो तीज हस्त नक्षत्र युक्तपड़े तो वह और भी महान् पुण्यदायक होती है । ऐसा सुनकर श्री पार्वतीजी ने पूछा- हे महेश्वर ! मैंने कब और कैसे यह तीज व्रत किया था विस्तार के साथ श्रवण करने की इच्छा है। इतना सुन भगवान् शंकर बोले कि हे भाग्यवान् उमा ! भारत के उत्तर में श्रेष्ठ एक पर्वत है। उसके राजा का नाम हिमांचल है, वहाँ तुम भाग्यवती रानी मैंना से पैदा हुई थीं। तुमने बाल्यकाल से ही मेरी आराधना करना आरम्भ कर दिया था ।


 कुछ उम्र बढ़ने पर तुमने हिमालय की दुर्गम गुफाओं में जाकर मुझे पाने हेतु तप आरम्भ किया। तुमने ग्रीष्म काल में चट्टानों पर आसन लगाकर तप किया । वर्षा ऋतु में पानी में तप किया, शीतकाल में पानी में खड़े होकर मेरे ध्यान में संलग्न रहीं। इस प्रकार छः कालों में तपस्या करके भी जब मेरे दर्शन न मिले तब तुमने ऊर्ध्वमुख होकर केवल वायु सेवन की, फिर वृक्षों के सूखे पत्ते खाकर इस शरीर को क्षीण किया । ऐसी तपस्या में तुम्हें लीन पाकर महाराज हिमांचल को अति चिंता हुई और तुम्हारे विवाह हेतु भी चिंता करने लगे। इसी सुअवसर पर महर्षि नारदजी उपस्थित हुए। राजा ने हर्ष के साथ नारद जी का स्वागत व पूजन किया और उपस्थित होने का कारण जानने को इच्छुक हुए।


नारदजी ने कहा, राजन् मैं भगवान् विष्णु का भेजा आया हूँ। मैं चाहता हूँ कि आपकी सुन्दर कन्या को योग्य वर प्राप्त हो, बैकुण्ठ निवासी शेषशायी भगवान् ने आपकी कन्या का वरण स्वीकार किया है। राजा हिमांचल ने कहा महाराज, मेरे सौभाग्य हैं जो मेरी कन्या को विष्णु जी ने स्वीकार किया है। मैं अवश्य ही उन्हें अपनी कन्या उमा का वाग्दान करूँगा । यह सुनिश्चित हो जाने पर नारदजी बैकुण्ठ पहुँचकर श्री विष्णु भगवान् से पार्वती जी के विवाह का निश्चित होना सुनाया। इधर महाराज हिमांचल ने वन में पहुँचकर पार्वती जी से भगवान् विष्णु से विवाह होने का निश्चित समाचार दिया। ऐसा सुनते ही पार्वती जी को महान दुःख हुआ।


 उस दुःख से तुम विह्वल होकर अपनी सखी के पास पहुँचकर विलाप करने लगीं। तुम्हारा विलाप देख सखी ने तुम्हारी इच्छा जानकर कहा, देवि मैं तुम्हें ऐसी गुफा में तपस्या को ले चलूँगी जहाँ तुम्हें महाराज हिमांचल भी न ढूंढ सकेंगे। ऐसा कह उमा उस सहेली सहित हिमालय की गहन गुफा में विलीन हो गई। तब महाराज हिमांचल घबराकर पार्वतीजी को ढूँढते हुए विलाप करने लगे कि मैंने विष्णु को जो वचन दिया है, वह कैसे पूर्ण हो सकेगा ? ऐसा कह मूर्छित हो गये। तत्पश्चात् सभी पुरवासियों को साथ लेकर ढूँढने को महाराज ने पदार्पण कर ऐसी चिंता करके कहा कि क्या मेरी कन्या को व्याघ्र खा गया या सर्प ने डस लिया या कोई राक्षस हरके ले गया उस समय तुम अपनी सहेली के साथ ही गहन गुफा में पहुँच, बिना जल-अन्न के मेरे व्रत को आरम्भ करने लगीं। उस दिन भाद्रमास की तृतीया शुक्ल पक्ष हस्त नक्षत्र युक्त थी। 


व्रत पूजा के फलस्वरूप मेरा सिंहासन हिल उठा तो मैंने जाकर तुम्हें दर्शन दिया और तुमसे कहा- देवी, मैं तुम्हारे व्रत और पूजन से अति प्रसन्न हूँ, तुम अपनी कामना का मुझसे वर्णन करो। इतना सुन तुमने लज्जित भाव से प्रार्थना की, कि आप अन्तर्यामी हैं, मेरे मन के भाव आपसे छुपे नहीं हैं, मैं आपको पति रूप से चाहती हूँ। इतना सुनकर मैं तुम्हें एवमस्तु इच्छित पूर्ण वरदान दे अन्तर्ध्यान हो गया। इसके बाद तुम्हारे पिता हिमांचल मंत्रियों सहित ढूँढ़ते-ढूँढ़ते नदी तट पर मारे शोक से मूच्छित होकर गिर पड़े। उसी समय तुम सहेली के साथ मेरी बालू की मूर्ति विसर्जन करने हेतु नदी तट पर पहुँचीं। तुम्हारे नगर-निवासी, मंत्रीगण हिमांचल सहित तुम्हारे दर्शन कर अति प्रसन्नता को प्राप्त हुए और तुमसे लिपट-लिपट कर रोने लगे। बोले- उमा, तुम इस भयंकर वन में कैसे चली आयीं जो अति भयानक है। यहाँ सिंह, व्याघ्र, जहरीले भयानक सर्पों का निवास है, जहाँ मनुष्य के प्राण संकट में हो सकते हैं अतः हे पुत्री ! इस भयंकर वन को त्याग कर अपने गृह को प्रस्थान करो।


 पिता के ऐसे कहने पर तुमने कहा- पिता, मेरा विवाह तुमने भगवान् विष्णु के साथ स्वीकार किया है, इससे मैं इसी वन में रहकर अपने प्राण विसर्जन करूँगी। ऐसा सुन, महाराज हिमांचल अति दुःखी हुए और बोले प्यारी पुत्री ! तुम शोक मत करो। मैं तुम्हारा विवाह भगवान् विष्णु के साथ कदापि न करूँगा, तुम्हारा अभीष्ट वर जो तुम्हें पसन्द है, उन्हीं सदाशिव के साथ करूँगा। तब तुम मेरे पर अति प्रसन्न हो, सहेली के साथ नगर में उपस्थित होकर अपनी माता एवं अन्य सहेलियों से मिलती हुई घर पहुँचीं। कुछ समय बाद शुभ मुहूर्त में तुम्हारा विवाह वेदविधि के साथ महाराज हिमांचल व महारानी मैना ने मेरे साथ कर पुण्य का अर्जन किया। हे सौभाग्यशालिनी ! जिस सहेली ने तुमको हरण कर हिमालय की गुफा में रख मेरी प्राप्ति का व्रत कराया इसी से इस व्रत का नाम हरितालिका पड़ा है। इस प्रकार यह व्रत सब व्रतों में उत्तम है। यह सुनकर माता पार्वतीजी ने कहा, प्रभो, आपने मेरे आपसे मिलने की सुखद कथा सुनाकर मुझे प्रसन्न तो किया पर इस व्रत के करने का विधान व इसका फल नहीं सुनाया। कृपा करके मुझे इसके करने की विधि व पृथक-पृथक फल भी सुनाइये।


इतना सुनके भगवान सदाशिव ने कहा, प्रिये मैं इस व्रतराज का फल सुना रहा हूँ। यह व्रत सौभाग्यशाली नारी व पति चाहने वाली कन्याओं को करना चाहिये। यह व्रत भाद्रपद के शुक्लपक्ष की द्वितीया की शाम को आरम्भ कर तीज का व्रत धारण करें। यह व्रत निराहार अर्थात् बिना आहार और निर्जला होकर रखना चाहिये। भगवान् शिव-पार्वती की प्रतिमा सुवर्ण की स्थापना करके केले, पुष्प आदि के खम्भे स्थापित कर रेशमी वस्त्र के चन्दोवा तानकर बंदनवार लगाकर भगवान् शिव का बालू का लिंग स्थापित करके पूजन वैदिक मंत्र, स्तुति, गान वाद्य, शंख, मृदंग, झांझ आदि से रात्रि-जागरण करना चाहिए। भगवान् शिव के पूजन के बाद फल, फूल, पकवान, लड्डू, मेवा, मिष्ठान तरह-तरह के भोग की सामग्री समर्पण करें, फिर ब्राह्मणों को द्रव्य, अन्न, वस्त्र, पात्र आदि का दान श्रद्धायुक्त देना चाहिए। भगवान् शिव को हर वस्तु को सिद्धपंचाक्षरी मन्त्र (नमः शिवाय) से समर्पित करना चाहिए। प्रार्थना के समय अपनी इच्छा भगवान् के सामने प्रेषित करें। अन्त में, पार्वतीजी से प्रार्थना इस प्रकार करें 


-ःप्रार्थना पदः-


जय जग माता, जय जग माता, मेरी भाग्य विधाता ॥टेक॥


तुम हो पार्वती शिव की प्यारी, तुम दाता आनन्द पुरारी।


सती सन्तों में रेख तुम्हारी, जय हो आनन्द दाता। जय.


इच्छित वर मैं तुमसे पाऊँ, भूल-चूक का दुःख न उठाऊँ।


भाव-भक्ति से तुमको पाऊँ, कर दो पूरन बाता।


जय प्रार्थना के बाद पुष्पों को दोनों हाथों में लेकर पुष्पांजलि समर्पित करें। चतुर्थी को शिवलिंग का किसी नदी या तालाब में विसर्जन करें। तीन ब्राह्मणों को भोजन कराके दक्षिणा देवें। इस प्रकार यह व्रत पूर्ण करने से नारी सौभाग्यवती होती हैं। धन व पुत्र-पौत्रों से सुखी होकर जीवन व्यतीत करती हैं। कन्याओं के व्रत करने से कुलीन धनवान् वर को प्राप्त होने का सौभाग्य प्राप्त होता है। हे देवी ! जो सौभाग्यवती नारी इस व्रत को नहीं धारण करतीं, वह बार-बार वैधव्य एवं पुत्र-शोक को प्राप्त होती हैं।


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