यदि इंसान चाहे तो अपने कर्मों के दम पर देवता और दानव दोनों बन सकता है। इस बात के कई उदाहरण सनातन परंपरा के धर्म ग्रंथों में मौजूद हैं। लेकिन पहले एक अहंंकारी गंधर्व, फिर शूद्र मनुष्य और बाद में देवत्व प्राप्त करने का इकलौता उदाहरण शायद देवर्षि नारद हैं। नारदजी ने देवताओं में भी देवर्षि जैसा परम पद प्राप्त किया। भगवान के अनन्य भक्त बने और संसार को नारायण-नारायण करते हुए प्रभु भक्ति का संदेश दिया।
वैसे अब तक आप समझ ही चुके होंगे कि आज हम भक्त वत्सल में आपको देवर्षि नारद की कथा बताने वाले हैं।
नारद शब्द का शाब्दिक अर्थ देखें तो इसमें नार का अर्थ होता है जल और द का मतलब दान। तो आइए जानते हैं अपने नाम के अनुरूप सभी को जलदान, ज्ञानदान और तर्पण करने में मदद करने वाले देवर्षि नारद के तीन जन्मों की कथा।
पहला जन्म - पौराणिक कथाओं के अनुसार पूर्व जन्म में नारद जी उपबर्हण नाम के गंधर्व थे। उन्हें अपने रूप पर बहुत अहंकार था। एक बार जब अप्सराएं और गंधर्व ब्रह्म लोक में प्रस्तुति दे रहे थे तो उपबर्हण ने वहां अशिष्ट व्यवहार किया। जिससे ब्रह्मा जी क्रोधित हो गए। उन्होंने उसे ‘शूद्र योनि’ में जन्म लेने का श्राप दिया।
दूसरा जन्म - ब्रह्मा जी के श्राप के कारण अगले जन्म में एक दासी के घर उपबर्हण का जन्म हुआ। इस जन्म में उसका नाम नंद था। नंद बचपन से ही ब्राह्मणों की सेवा में लग गया जिसके कारण वह ब्राह्मण भक्त और भगवान का भक्त बन गया। उसने भगवान विष्णु की आराधना कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। भगवान ने उसे दर्शन दिए और ब्रह्मा जी के पुत्र के रूप में उत्पन्न होने और भगवान के परम भक्त होने का वर दिया।
अंततः विष्णु भगवान के वरदान के अनुसार नंद अगले जन्म में देवर्षि बन गए। वे भगवान विष्णु का गुणगान करते हुए वीणा लेकर समस्त लोकों में घूमते रहे। नारद मुनि सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं और ब्रह्म देव की गोद से उत्पन्न हुए हैं। वहीं ब्रह्मवैवर्त पुराण में उनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के कंठ से बताईं गई है। श्रीमद्भागवत और वायुपुराण के अनुसार नारद जी का जन्म ब्रह्मा जी की जंघा से हुआ था। नारद पुराण में नारद जी के जीवन के बारे में और भी विस्तार से जानकारी दी गई है। इस ग्रन्थ के पूर्व खंड में 125 अध्याय और उत्तर खंड में 182 अध्याय हैं।
नारदजी ने राजा दक्ष के 10 हजार पुत्रों को मोह-माया से दूर रहकर भगवान का भजन करते हुए मोक्ष राह दिखाई। इस कारण दक्ष के पुत्रों ने का राज सिंहासन नहीं संभाला। इससे नाराज दक्ष ने नारद जी को सदैव यहां-वहां भटकने और एक स्थान पर दो घड़ी से ज्यादा नहीं ठहरने का श्राप दिया।
इसी प्रकार एक बार नारदजी ने अपने पिता ब्रह्मा जी की भी किसी बात पर अवज्ञा कर दी थी। इसके फलस्वरूप ब्रह्म देव ने भी उन्हें आजीवन अविवाहित रहने का श्राप दे दिया था।
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