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भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों में वराह अवतार को तीसरा अवतार माना जाता है। वराह अवतार सतयुग में हुआ था जिसका उद्देशय धरती पर पापियों का अंत करके धर्म की स्थापना करना था। अपने तीसरे अवतार में श्री हरि विष्णु ने वराह का रुप धारण कर दैत्य हिरण्याक्ष के पापों से पृथ्वी को मुक्त कराया था और पृथ्वी को रसातल से निकाल नक वापस अपनी जगह स्थापित किया थाष पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु का ये अवतार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को हुआ था, इसलिए इन दिन को अब वराहजयंती के रूप में मनाया जाता है। आइए जानते हैं वराह अवतार की सारी कथा को विस्तार से:
दरअसल वराह का मतलब होता है शुकर, इस अवतार में प्रभु मानव और शुकर दोनों के रूप में पृथ्वी पर आए थे, इसमें भगवान का शरीर मानव का था लेकिन उनका मुख शुकर का था। वराह अवतार की कहानी शुरु होती है मरीचि के पुत्र कश्यप मुनि से, एक बार शाम के समय मरीचि के पुत्र कश्यप मुनि भगवान की पूजा कर रहे थे, तभी उनकी पत्नी और दक्ष प्रजापति की बेटी दिति काम इच्छा लेकर उनके पास पहुंची। इस पर मुनि ने उन्हें समझाया कि ये समय इस कार्य के लिए ठीक नहीं है और तुम्हें एक प्रहर इंतजार करना चाहिए, इस समय काम की इच्छा से संतान असुरी प्रवृति की होती है। लेकिन काम वासना से लिप्त दिति ने पति की बात नहीं मानी और मुनि ने इसे भगवान की इच्छा मानकर दिति की बात मान ली। कुछ देर बाद मुनि कश्यप ने पुन: स्नान किया और संध्या वंदन करने लगे। फिर एक पहर बाद अपनी पत्नी से बोले की तुमने मेरी बात नहीं मान कर असमय जो कार्य करवाया है, उसका परिणाम बहुत भयंकर होगा। तुम्हारे गर्भ से दो असुरों का जन्म होगा जो महापापी और अधर्मी होंगे और उनसे संसार की रक्षा करने के लिए स्वयं भगवान विष्णु उनका वध करेंगे। मुनि की बात सुनकर दिति ने उत्तर दिया, मेरे पुत्रों का वध ब्राह्मण के शाप से न हो और भगवान के हाथों हो यही मेरी इच्छा है। क्योंकि ब्राह्मण विरोधी सदैव नर्क का वासी बनता है। कश्यप मुनि को पत्नी की इच्छा जानकर प्रसन्नता हुई और उन्होंने कहा, इसी असुर कुल में जन्मा तुम्हारा नाती भगवान का परम भक्त होगा और कुल का तारणहार बनेगा। संसार में उसकी कीर्ति फैलेगी और वह काल पर विजय प्राप्त कर भगवान के पार्षद पद का अधिकारी होगा।
धीरे धीरे समय बीतने लगा, कुछ दिनों बाद दिती ने हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकश्यप को जन्म दिया. ये दोनों बचपन से एकदम अनाचारी और असुरी प्रवृति के व्यक्ति थे, जो ऋषि मुनियों द्वारा जारी पूजा पाठ में विघ्न उत्पन्न कर उनकी पूजा में विघ्न डालते थे, आगे चलकर इन्होंने पूरी पृथ्वी पर आतंक मचाना शुरु कर दिया और भक्तों पर जुल्म ढाने लगे। दोनों असुरों का जुल्म इतना बढ़ गया कि सभी जीव जंतु और मानव परेशान होने लगे।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार एक बार हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छिपा दिया, जब पृथ्वी जलम्न हो गई तो पृथ्वी पर वास करने वाले लोगों को कई दिक्कतें आने लगीं और धीरे धीरे लोगों की मृत्यु होना भी शुरू हो गई। लोगों में दर्द और पीड़ा बढ़ती देख भगवान विष्णु का वराह अवतार हुआ. मान्यता है कि ब्रह्मा जी की नाक से एक अंगूठे के आकार वाले वराह अवतार ने पलक झपकते ही पर्वताकार रूप धारण कर लिया, जिसे देखकर सभी देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों ने उनकी स्तुति की. इसके बाद भगवान वराह ने अपने थूंंथनी की सहायता से पृथ्वी को ढ़ूंढ़ा और फिर उसे अपने दातों पर रखकर बाहर लाने लगे। जब भगवान पृथ्वी को बाहर लेकर आ रहे थे तो हिरण्याक्ष दैत्य ने भगवान वराह काे युद्ध के लिए ललकारा. इसके बाद भगवान वराह और हिरण्याक्ष के बीच हुए भयंकर युद्ध हुआ जिसमें हिरण्याक्ष मारा गया और भगवान वराह ने अपने खुरों से जल को स्तंभित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया.
हिरण्याक्ष के वध के बाद धीरे-धीरे हिरण्यकश्यप का आतंक बढ़ने लगे जिसके कुल में प्रहलाद जी का जन्म हुआ, आगे चलकर प्रहलाद की रक्षा और भक्तों को दुष्ट से बचाने के लिए भगवान विष्णु नरसिंह रूप में आए और लोगों को हिरण्यकश्यप के पापाों से मुक्ति दिलाई।
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