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वामन अवतार (Vaaman Avataar)

भगवान विष्णु के वामन अवतार से हुई रक्षाबंधन और ओणम की शुरुआत, जानिए क्या है इस अवतार का संपूर्ण रहस्य


त्रेतायुग में भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को माता अदिति और कश्यप ऋषि के घर  भगवान विष्णु ने वामन भगवान के रूप में अवतार लिया। यह श्री हरि विष्णु का पांचवा अवतार है।  भगवान विष्णु का यह अवतार मनोकामनाएं पूरी करने वाला, संतान सुख देने वाला, शारीरिक और मानसिक पीड़ाओं को हरने वाला है। वामन भगवान के जन्मोत्सव को वामन जयंती के रूप में मनाया जाता है। इस दिन वामन भगवान की पूजा करने के लिए उनकी मिट्टी या किसी धातु की मूर्ति बनाई जाती है और व्रत रखा जाता है। पूजन में पंचामृत को शंख में भरकर भगवान वामन का अभिषेक किया जाता है। शाम को पूजा करने के बाद व्रत की कथा पढ़ते और सुनते हुए व्रत पूर्ण होता है। इस दिन छोटे बच्चे को भगवान वामन का रूप मानकर खाना खिलाने का विधान भी है। इस दिन चावल, दही, तिल, घी, पीले वस्त्र और मिश्री के दान का विशेष महत्व है। त्रेतायुग में भगवान विष्णु के जितने भी अवतार हुए उसमें भगवान विष्णु पहली बार मनुष्य रूप में आए थे। तो आइए जानते हैं भक्त वत्सल के इस लेख में वामन अवतार की संपूर्ण कथा। 


राजा बलि का अहंकार नष्ट करने हुआ वामन अवतार


भगवान के परम भक्त प्रहलाद जी के वंश में जन्म लेने वाले परम प्रतापी असुर राजा बलि ने देवताओं को हराकर स्वर्गलोक पर अधिकार कर लिया था। बलि से परास्त होकर देवता श्री हरि विष्णु की शरण में पहुंचे। बलि अपनी वचनबद्धता और दान देने के लिए विख्यात थे। लेकिन दैत्यराज बलि को स्वयं के सबसे बड़े दानी होने का अहंकार भी हो गया था। देवताओं की विनती सुनते हुए विष्णुजी ने कश्यप मुनि और देवमाता अदिति के पुत्र के रूप में जन्म लिया। समय आने पर बौने वामन रूप में भगवान एक दिन राजा बलि की यज्ञशाला में पहुंचे। वामन भगवान को देख ब्राह्मण भक्त और दानवीर राजा बलि ने उनका आदर सम्मान किया और दान देने की इच्छा जाहिर की। तब वामनदेव ने बलि से तीन पग धरती का दान मांगा। वामन भगवान की कद काठी देखकर उनकी ऐसे दान की बात सुनकर वहां मौजूद सभी लोग उनका उपहास यानी मजाक उड़ानें लगें। स्वयं बलि ने भी भगवान से अधिक दान मांगने की बात कही लेकिन, भगवान ने सिर्फ तीन पग धरती दान में मांगी। इस बीच दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने अपनी दिव्य दृष्टि से भगवान को पहचान लिया और राजा बलि को दान न देने का सुझाव दिया। लेकिन अपने वचन पर कायम रहते हुए राजा बलि ने वामनदेव को तीन पग धरती दान में देने का संकल्प ले लिया। 


बलि के संकल्प लेते ही वामनदेव अपने शरीर का विस्तार करने लगे और पलक झपकते ही विशाल रुप धारण कर लिया। अपने विशाल रूप में जब भगवान ने तीन पग नापने शुरु किए तो पहले पग में धरती और दूसरे पग में स्वर्गलोक को नाप लिया। इसके बाद जब वामन भगवान को संसार में तीसरा पैर रखने के लिए जगह नहीं मिली तो उन्होंने बलि की तरफ देखा और कहा कि तीन पग का संकल्प है और फिलहाल एक पग धरना बाकी है। ऐसे में अपने वचन को निभाने के लिए महादानी राजा बलि ने भगवान का तीसरा पैर अपने सिर पर रखवा कर वचन पूरा करने की बात कही। वामन भगवान के पैर रखते ही बलि पाताल लोक पहुंच गया। भगवान बलि की दानवीरता से बहुत प्रसन्न हुए और उसे पाताललोक का राजा बना दिया। इस तरह भगवान ने एक बौने ब्राह्मण के रूप में एक हाथ में छाता और दूसरे में लकड़ी लेकर बलि का अहंकार नष्ट कर उसका उद्धार किया।


वामन अवतार में ही फूटी थी शुक्राचार्य की आंख 


वामन भगवान को दान देने से पहले जब राजा बलि जल कमंडल लेकर संकल्प लें रहें थे, तभी दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने उन्हें रोकना चाहा था। लेकिन राजा बलि ने उनकी बात नहीं मानी। तब अपने शिष्य की भलाई के लिए शुक्राचार्य छोटा रूप धारण कर कमंडल की दंडी यानी मुख नलिका में जाकर बैठ गए, ताकि कमंडल से जल न निकले और बलि संकल्प न ले सकें। विष्णु के अवतार वामन देव शुक्राचार्य की चाल समझ चुके थे और जब संकल्प के दौरान कमंडल से पानी नहीं निकला तो वामन देव ने एक पतली लकडी कमंडल में डाल दी, जिससे अंदर बैठे शुक्राचार्य की एक आंख फूट गई। इसके बाद राजा बलि ने संकल्प लेकर वामन देव को तीन पग भूमि दान दी। 


कैसे मिला राजा बलि को अमर होने का वरदान


राजा बलि भी सात चिरंजीवियों में से एक है। पाताल लोक का राज मिलने के बाद उन्होंने भगवान से अपनी प्रजा से मिलने की इजाजत मांगी थी। तब भगवान ने उन्हें साल में एक दिन अपनी प्रजा से मिलने धरती पर आने का वरदान दिया। मान्यता है कि इसके बाद से चिरंजीवी राजा बलि हर साल ओणम पर अपनी प्रजा से मिलने आते हैं।


भगवान विष्णु बनें राजा बलि के द्वारपाल 


बलि के दान से प्रसन्न भगवान वामन ने जब उसे वर मांगने को कहा तो राजा बलि ने भगवान को पाताल लोक में अपने महल के द्वार पर द्वारपाल बनने को कहा ताकि वो हमेशा आते जाते भगवान के दर्शन कर सके। ऐसी मान्यता है कि तभी से भक्त वत्सल भगवान विष्णु राजा बलि के द्वारपाल बन गए।


माता लक्ष्मी और राजा बलि ने की थी रक्षाबंधन की शुरुआत


बलि के द्वारपाल बने भगवान विष्णु जब लम्बे समय तक क्षीरसागर में अपने धाम नहीं पहुंचे तो माता लक्ष्मी को चिंता हुई। उन्होंने पता लगाया तो जानकारी मिली कि भगवान श्री हरि बलि के द्वारपाल बनकर पाताल में हैं तो लक्ष्मी जी राजा बलि के पास गईं और उन्हें रक्षासूत्र बांध कर  अपना भाई बना लिया। जब बलि ने अपनी बहन को उपहार देने के बारे में पूछा तो मां लक्ष्मी ने राजा बलि से भगवान विष्णु को मांग लिया। बलि ने बहन की बात मान ली लेकिन भगवान से प्रार्थना करते हुए कहा कि, आपको साल में चार महीने मेरे घर पर बिताने होंगे। इस पर भगवान विष्णु ने बलि के घर चार महीने बिताने का वचन दे दिया। ऐसी मान्यता है कि तभी से भगवान देवशयनी एकादशी से देव उठनी एकादशी तक चौमासा राजा बलि के यहां बिताते हैं। इस तरह विष्णु जी पाताल से विष्णु लोक पहुंचे। यह दिन श्रावण मास की पूर्णिमा का था और तभी से इस दिन को रक्षाबंधन के रूप में मनाया जाने लगा।


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