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तमिलनाडु में नवरात्रि का त्योहार बेहद खास और अनोखे तरीके से मनाया जाता है जिसे 'गोलू' परंपरा के नाम से जाना जाता है। जहां एक तरफ उत्तर और पश्चिम भारत में नवरात्रि को डांडिया और दुर्गा पूजा से जोड़ा जाता है। वहीं, दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य में नवरात्रि में गुड़ियों को सजाने और उनकी पूजा करने की विशेष परंपरा है। इस अनोखी परंपरा के पीछे कई कारण बताए जाते हैं, जो तमिलनाडु की लोक परंपराओं को और समृद्ध बनाते हैं। आइए जानते हैं इस परंपरा और इससे जुड़े अनूठी रीति-रिवाजों के बारे में विस्तार से…..
गोलू का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है और यह मुख्य रूप से देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से मनाया जाता है। तमिलनाडु में मान्यता है कि नवरात्रि के दिनों में मां दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती अलग-अलग रूपों में आशीर्वाद देने धरती पर आती हैं। इसलिए नवरात्रि के इन विशेष दिनों में गोलू गुड़िया सजाकर उन्हें अपने घर में स्थान देने की परंपरा है जिससे देवी अपने भक्तों पर कृपा बरसाती रहें।
बता दें कि 'गोलू' का अर्थ होता है गुड़ियों का संग्रहण। इन्हें विशेष रूप से मिट्टी या लकड़ी से बनाया जाता है। यह परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है और हर साल लोग नई गुड़िया खरीदकर अपनी इस सांस्कृतिक धरोहर को बढ़ाते हैं। ये गुड़िया अक्सर देवी-देवताओं, रामायण, महाभारत और अन्य पौराणिक कथाओं के किरदारों को भी दर्शाती दिखाई देती है।
तमिलनाडु में नवरात्रि के समय गोलू को सजाने की प्रक्रिया बेहद ही दिलचस्प होती है। नवरात्रि के नौ दिनों के लिए घरों में नौ सीढ़ियों का एक बड़ा सा मंच तैयार किया जाता है, जिसे ‘गोलू पड़ी’ कहते हैं। हर सीढ़ी पर विषम संख्या में गुड़ियों को रखा जाता है। जैसे 3, 5, 7 या फिर 9। इस सीढ़ी को पारंपरिक रूप से सफेद कपड़े से ढंका जाता है। लेकिन आजकल लोग कांचीपुरम साड़ी जैसी रंग-बिरंगी साड़ियों का भी इस्तेमाल करते हैं ताकि यह और भी आकर्षक लगे। इन सीढ़ियों पर रखी गई गुड़िया केवल सजावट के लिए नहीं होती। बल्कि इनका सांस्कृतिक महत्व भी होता है। आमतौर पर गोलू में देवी लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा की मूर्तियां रखी जाती हैं। इसके अलावा, मारापाची गुड़िया भी पारंपरिक रूप से रखी जाती हैं जो लकड़ी से बनाई जाती हैं और पीढ़ियों से हस्तांतरित होती हैं।
गोलू में सिर्फ देवी-देवताओं की गुड़िया ही नहीं बल्कि अन्य पौराणिक घटनाओं की मूर्तियों को भी रखा जाता है। जैसे रास लीला, लंका दहन, रामायण इत्यादि के दृश्य। कुछ लोग अपने गोलू में तिरुपति बालाजी मंदिर, सिद्धिविनायक मंदिर जैसे धार्मिक स्थलों की प्रतिकृति भी रखते हैं, जो इसे और भी आकर्षक बनाता है।
गोलू का एक खास सामाजिक पहलू भी है। इन 09 दिनों में महिलाएं और लड़कियां अपने घरों में एक-दूसरे को बुलाती हैं और अपने गोलू को दिखाती हैं। यह एक प्रकार का सामाजिक मिलन भी होता है। जहां महिलाएं एक-दूसरे से अपने अनुभव साझा करती हैं और सांस्कृतिक धरोहर को आगे बढ़ाती हैं। इसके अलावा गोलू के दौरान हर घर में खास पूजा का भी आयोजन किया जाता है। जिसमें देवी दुर्गा की पूजा होती है और भजन-कीर्तन का आयोजन भी किया जाता है। इस दौरान घरों में मिठाइयां और प्रसाद बनाए जाते हैं और लोगों में बांटे जाते हैं।
नवरात्रि से पहले बाजारों में गोलू गुड़िया की धूम मच जाती है। कुम्भकोणम और चेट्टीनाड जैसे क्षेत्रों में बड़ी संख्या में कारीगर इन गुड़ियों को तैयार करते हैं। ये गुड़िया मिट्टी, लकड़ी या कागज की होती हैं और इन्हें रंग-बिरंगे कपड़ों से सजाकर तैयार किया जाता है। गोलू गुड़िया दक्षिण भारतीय संस्कृति और लोक कला का प्रतीक भी होती हैं। हर साल लोग अपनी पुरानी गुड़ियों के साथ नई गुड़िया भी जोड़ते हैं और गोलू को और बढ़ाने की कोशिश करते हैं। गोलू गुड़िया को सजाने और खरीदने की इस परंपरा के चलते नवरात्रि के दौरान बाजारों में काफी चहल-पहल रहती है। यह एक प्रकार से समाज में महिलाओं की शक्ति और सृजनशीलता को भी दर्शाता है। गोलू सजाने की परंपरा में महिलाओं की भागीदारी ज्यादा होती है। जो इसे एक तरह से महिला सशक्तिकरण से भी जोड़ता है।
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