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महाभारत के युद्ध में पांडवों की तरफ से लोगों ने धर्म के लिए लड़ाई लड़ी और कौरवों ने अधर्म का साथ दिया। इसलिए इतिहास में पांडवों का साथ देने वालों की प्रशंसा हुई। वहीं कौरव पक्ष के लोगों को अधर्म के लिए याद किया जाता है।
लेकिन इन सब योद्धाओं में एक योद्धा ऐसा भी हैं जो कौरवों के साथ शामिल था फिर भी संसार उसे एक महान योद्धा और महाभारत के युद्ध के सर्वश्रेष्ठ वीर के रूप में याद करता रहा है। इतिहास में उसे अपनी वीरता के लिए बहुत सम्मान मिला। इस महान योद्धा का नाम कुंती पुत्र कर्ण है।
महाभारत के युद्ध का वह योद्धा जिसने साथ तो अधर्म का दिया लेकिन फिर भी अपनी वीरता और वचनबद्धता के लिए अमर हो गए। आज हम भक्त वत्सल के आर्टिकल में आपको कर्ण के जीवन की गौरव गाथा बताने जा रहे हैं।
एक बार ऋषि दुर्वासा माता कुंती के दत्तक पिता कुंतीभोज के राजमहल पहुंचे। माता कुंती के पिता शूरसेन थे और माता मारिशा थीं। लेकिन राजा कुंतीभोज ने उन्हें गोद लिया था। ऋषि दुर्वासा ने कुंती और पांडु को लेकर भविष्यवाणी करते हुए कहा कि पांडु से कुंती को कोई संतान प्राप्ति नहीं होगी। लेकिन कुंती के सेवा भाव से प्रसन्न होकर उन्होंने कुंती को उसे छह पुत्रों की माता बनने का वरदान दिया।
कुंती को ऋषि दुर्वासा से प्राप्त देवहूति मंत्र का परीक्षण सूर्य देव के सामने करना था। माता कुंती ने जब सूर्य देव का आह्वान किया उस समय वे अविवाहित ही थी यानी कुंवारेपन में ही उनके गर्भ से कर्ण का जन्म हुआ। संसार के डर से लोक-लाज के कारण कुंती ने नवजात शिशु को गंगा नदी में बहा दिया।
गंगा किनारे हस्तिनापुर के सारथी अधिरथ ने जब नदी में एक शिशु को बहता हुआ देखा तो वो उस बालक को अपने घर ले गए। अधिरथ की पत्नी का नाम राधा था। इसलिए कर्ण का एक नाम राधेय भी हैं। कर्ण का पालन-पोषण सूत (सारथी) अधिरथ और उनकी पत्नी राधा ने किया इसलिए उन्हें सूतपुत्र भी कहा जाता था।
कर्ण को जीवन भर मिली सभी तकलीफों का कारण पूर्व जन्म का फल था। सतयुग में एक ओर जहां श्री हरि विष्णु के अंशावतार नर और नारायण ऋषि घोर तपस्या कर रहे थे। वहीं दुरदु्म्भ (दम्भोद्भवा) नाम का राक्षस संसार में पाप फैला रहा था। उसको वरदान था कि उसका वध वो ही कर सकता है जिसने एक हजार साल तक तप किया हो। इस राक्षस ने सूर्य देव ने 100 कवच और दिव्य कुंडल का वरदान भी प्राप्त कर लिया था। जो भी उसका एक कवच तोड़ता उसकी मौत हो जाती थी। दुरदुम्भ से बचने के लिए देवता विष्णु जी से मदद मांगने गए। भगवान ने उन्हें नर-नारायण से सहायता मांगने को कहा।
देवताओं की मदद करते हुए पहले नर ने उस दानव से युद्ध किया और नारायण ने तपस्या जारी रखी। युद्ध के दौरान नर ने राक्षस का कवच तोड़ दिया और नर की भी मृत्यु हो गई। लेकिन नारायण ने अपनी तपस्या के बल से नर को फिर से जीवित कर दिया। लेकिन अब नारायण युद्ध करने लगे और नर ने तपस्या की।
इस बार नारायण ने दूसरा कवच तोड़ा और उनकी भी मृत्यु हो गई। नर ने उन्हें फिर जीवित कर दिया। ऐसे करते हुए दोनों ने मिलकर राक्षस के 99 कवच तोड़ दिए। घबरा कर राक्षस सूर्य के पीछे जाकर छुप गया। सूर्य देव ने अपने शरण में आए राक्षस की नर-नारायण से रक्षा की। इस पर नारायण ने सूर्य देव को श्राप दिया कि द्वापर में यही राक्षस आपके तेज से उत्पन्न होगा और इसके पास बचे हुए एक कवच-कुंडल भी होंगे। लेकिन मृत्यु के समय इसकी रक्षा नहीं कर सकेंगे।
द्वापर में कवच-कुंडल के साथ जन्मा कर्ण वही राक्षस थे, जिससे इंद्र ने कवच-कुंडल का दान मांगा। यदि कवच कुंडल के साथ अर्जुन कर्ण को मार भी देते तो वरदान के हिसाब से अर्जुन की भी मृत्यु हो जाती। हालांकि सूर्यदेव ने कर्ण की यहां भी रक्षा करनी चाही। वे जानते थे महाभारत में नारायण कृष्ण के अवतार में है और पांडवों के पक्षधर होंगे। इसलिए उन्होंने कर्ण को सबसे बड़े पांडव के रूप में कुंती के गर्भ से उत्पन्न करवाया। महाभारत के आदिपर्व और भागवत पुराण में कर्ण के पूर्व जन्म की कथा है।
महारथी और महादानी कर्ण एक दिन प्रातः गंगा स्नानकर सूर्य देव को अर्घ्य दे रहे थे। उनका एक संकल्प था कि स्नान ध्यान और पूजन के बाद उनसे जो भी दान मांगा जाएगा वो उसे तुरंत दे देते थे। कर्ण के समक्ष एक ब्राह्मण देवता आए ब्राह्मण ने कर्ण से कवच-कुंडल मांग लिए।
कर्ण ने अपनी ख्याति के अनुसार बिना देर किए सहर्ष ब्राह्मण को कवच-कुंडल दान में दे दिए। उसके बाद कर्ण ने ब्राह्मण से कहा कि मैं जानता हूं आप देवराज इन्द्र है और अर्जुन की सहायता करना चाहते हैं। क्योंकि सूर्यदेव ने एक रात पहले ही सपने में आकर कर्ण को इस घटनाक्रम के बारे में बता दिया था। कर्ण ने देवराज इन्द्र से कहा, मैं आपको धन्यवाद देना चाहता हूं। क्योंकि आपने मुझे एक सामान्य योद्धा बना दिया है। कवच-कुंडल के बिना मैं एक आम योद्धा की तरह अर्जुन से लडूंगा। ऐसे में मेरी जीत का महत्व और ज्यादा होगा।
कर्ण को महाभारत के युद्ध के शुरू हो जाने तक खुद की असलियत पता नहीं थी। इसी दौरान एक बार जब कर्ण सुबह सूर्यपूजा कर रहे थे, तभी मां कुंती उन्हें बतातीं है कि हे कर्ण तुम राधा पुत्र राधेय नहीं, असलियत में कुंती पुत्र कौन्तेय हो। मेरे सबसे बड़े पुत्र हो। तब कर्ण ने अपनी मां से कहा कि युद्ध में अर्जुन या कर्ण में से एक बचेगा। फिर भी दुनिया में आपको पांच पुत्रों की माता होने का गौरव इसी तरह हासिल रहेगा।
दानवीर कर्ण बहुत बलशाली भी थे। इसके कई प्रमाण पौराणिक कथाओं में मौजूद हैं। कहा जाता है अर्जुन के एक बाण कर्ण का रथ कई हाथ पीछे चला जाता था और जवाब में जब कर्ण बाण चलाता तो अर्जुन का रथ मुश्किल से कुछेक अंगुल ही पीछे जा पाता था। इस पर अर्जुन ने गर्व करते हुए अपने सारथी श्रीकृष्ण से कहा कि, देखा मेरा रथ सिर्फ कुछ इंच या अंगुल ही हिला।
तब कृष्ण ने कर्ण की प्रशंसा करते हुए अर्जुन से कहा, तुम धर्म की लड़ाई लड़ रहे हो, तुम्हारे रथ की ध्वजा पर स्वयं हनुमान जी विराजमान हैं, तुम खुद इंद्र के अवतार हो और इन सबके साथ मैं स्वयं तुम्हारे रथ का सारथी हूं। इसके बावजूद कर्ण तुम्हारे रथ को चार अंगुल पीछे धकेल रहा है। ऐसे में कर्ण की शक्ति का अंदाजा लगाओ यदि ये सब तुम्हारे साथ नहीं होते तो कर्ण तुम्हारे रथ का क्या हाल करता?
कर्ण की शक्ति का एक और उदाहरण है कि उसके प्रहार से अर्जुन का रथ भस्म हो गया था, लेकिन हनुमान जी ने उसकी रक्षा की और स्वयं माधव ने उसे संभाला। इसका पता अर्जुन को तब चला जब युद्ध समाप्त होने के बाद कृष्ण रथ को एक सुनसान जगह ले गए और वो भस्म हो गया। यह देखकर अर्जुन ने इसका कारण पूछा तो वहां हनुमान जी प्रकट हुए।
हनुमान जी ने अर्जुन से कहा कि हे पार्थ, यह रथ कर्ण के बाणों से युद्ध के 16वें दिन ही टूट गया था। केशव ने रथ को झुकाकर आपकी रक्षा की और मैंने इसे थाम रखा था। आज युद्ध समाप्त होते ही यह रथ भस्म हो गया।
सूर्य पुत्र कर्ण बचपन से ही युद्ध कला में महारथी थे। उन्होंने आचार्य द्रोण से युद्ध कला सीखी लेकिन ब्रह्मास्त्र हासिल न कर सके। कर्ण ने अनुचित तरीके से ब्रह्मास्त्र सीखना चाहा लेकिन आचार्य द्रोण ने उन्हें यह शिक्षा देने से इंकार कर दिया। इसके लिए कर्ण ने परशुराम जी को गुरु बनाया। लेकिन परशुराम भगवान केवल ब्राह्मणों को यह शिक्षा देते थे। ऐसे में कर्ण ने झूठ का सहारा लिया और ब्रह्मास्त्र हासिल कर लिया।
एक दिन परशुराम जी कर्ण की जांघ पर सिर रखकर सो रहे थे, तभी एक बिच्छू ने कर्ण को काट लिया और बार-बार डंक मारने लगा। गुरु की निद्रा में खलल न पड़े इसके लिए कर्ण उस दर्द को सहते रहे। डंक मारने से कर्ण की जंघा पर जख्म हो गया और खून बहने लगा । तभी भगवान परशुराम की नींद खुल गई और कर्ण की इस हालत को देखकर वो समझ गए कि इतना दर्द कोई ब्राह्मण सहन नहीं कर सकता। यह बालक अवश्य क्षत्रिय है।
कर्ण का झूठ गुरू के सामने प्रकट हो गया था। तभी परशुराम जी ने कर्ण को श्राप दिया कि, तुम क्षत्रिय हो और तुमने छल से ब्रह्मास्त्र पाया है। सो जब तुम्हें ब्रह्मास्त्र की सबसे ज्यादा जरूरत होगी तुम इसे चलाना भूल जाओगे। इसी कारण महाभारत युद्ध के 17वें दिन अर्जुन ने सूर्य पुत्र कर्ण पर ब्रह्मास्त्र चलाया, जिसके जवाब में कर्ण ब्रह्मास्त्र नहीं चला सके। शक्ति भूल जाने के बाद अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र से कर्ण का वध कर दिया।
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