बिहार के गया के बारे में गयासुर की कथा काफ़ी प्रचलित है। ऐसी मान्यता है कि गयासुर के नाम पर ही बिहार का गया जिला बसा हुआ है. ऐसा कहा जाता है कि जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया था. यही पांच कोस का पवित्र स्थान आगे चलकर गया जी के नाम से जाना जाने लगा। यही कारण है कि इस पवित्र स्थान पर पितृपक्ष मेले के दौरान पितरों की आत्मा की शांति के लिए विभिन्न कर्मकांड किए जाते हैं, जिनमें तर्पण और श्राद्ध सबसे अहम हैं. पितृपक्ष में पितरों के लिए तर्पण, पिंडदान के साथ श्राद्ध का आयोजन किया जाता है. मान्यता है कि इससे मनुष्य की तीन पीढ़ियों के पितर प्रसन्न होते हैं, जिससे घर-परिवार में सुख और खुशहाली बनी रहती है.
गया मंत्रालय में स्थित वैदिक पाठशाला के राजा आचार्य ने बताया कि तर्पण का शाब्दिक अर्थ जल का अर्पण होता है. हालांकि, तर्पण करते वक्त पितरों को जल के अलावा दूध, तिल और कुश भी समर्पित किया जाता है, जिससे उनकी आत्मा को शांति और संतोष प्राप्त होता है. यह प्रक्रिया विशेष रूप से पितृपक्ष के दौरान ही की जाती है और इसे किसी भी समय किया जा सकता है. तर्पण में काले तिल का मिश्रित जल अर्पण किया जाता है। ये हमारे पितरों के साथ साथ सभी देवताओं और ऋषि मुनियों के आत्मा को भी तृप्त कर देता है.
वहीं, श्राद्ध को पितरों के लिए श्रद्धा से सम्पूर्ण किए गए मुक्ति कर्मकाण्ड के रूप में जाना जाता है. हालांकि, तर्पण के वनिस्पत यह एक वृहद कर्मकांड माना जाता है। यही कारण है कि इसमें पिंडदान, हवन और अन्नदान जैसी कई धार्मिक प्रक्रियाएं शामिल होती हैं. बता दें कि श्राद्ध की पूरी प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य अपने पितरों की आत्मा को तृप्त करना और उन्हें मोक्ष प्रदान करना है. इसलिए इसे विशेष रूप से पितृपक्ष में किया जाता है और इसके लिए विधिवत नियमों का पालन करना भी अनिवार्य होता है।
वहीं, इसके यम नियम की बात करें तो ये भी काफी कठिन होता है। जानकार बताते हैं कि श्राद्ध के दौरान सभी तरह की क्रियाएं दाएं कंधे पर जनेऊ धारण करके और दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके पूरी की जाती हैं. इस दौरान पंचबली का भी आयोजन किया जाता है। जिसमें गाय, कुत्ता, कौआ, देवता और चींटी को अन्न का भोग लगाया जाता है. वहीं, राजा आचार्य ने आगे बताया कि जो लोग पहली बार श्राद्ध कर रहे हैं, उनके लिए यह जानना महत्वपूर्ण है कि मनुष्य जीवन में श्राद्ध कर्म सबसे प्रमुख और आवश्यक कर्मकांड में से एक है. इसलिए इसे तमाम तरह के यम- नियमों के साथ करना बेहद जरूरी होता है। हालांकि, तर्पण भी आवश्यक होता है पर यह श्राद्ध की तुलना में ये कम जटिल होता है। अगर किसी कारणवश श्राद्ध नहीं किया जा सकता, तो तर्पण करके भी पितरों की आत्माओं को तृप्त किया जा सकता है.
हिंदू धर्म में प्रदोष व्रत का विशेष महत्व होता है। यह व्रत भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा के लिए समर्पित है। 13 दिसंबर 2024 को मार्गशीर्ष मास का अंतिम प्रदोष व्रत रखा जाएगा।
प्रदोष व्रत हिंदू धर्म में अत्यंत महत्वपूर्ण व्रत है जो भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा के लिए समर्पित है। यह व्रत जीवन में सुख-समृद्धि, मनोकामना पूर्ति और कष्टों के निवारण का प्रतीक है। कुंवारी लड़कियों के लिए यह व्रत विशेष रूप से लाभकारी माना है।
प्रदोष व्रत हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण और पवित्र व्रत है। इसे भगवान शिव और माता पार्वती की कृपा प्राप्त करने के लिए किया जाता है। यह व्रत त्रयोदशी तिथि को मनाया जाता है और प्रत्येक वार पर आने वाले प्रदोष व्रत का अपना विशेष महत्व और फल है।
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को अनंग त्रयोदशी कहा जाता है। अनंग त्रयोदशी व्रत प्रेम और सौंदर्य का प्रतीक माना जाता है।