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हिन्दू धर्म में हम जिन जिन देवताओं की पूजा करते हैं उन सब की अपनी एक अलग छवि और आभा मंडल है जो भक्तों का मन मोह लेती है। लेकिन भोलेपन के स्वामी भगवान भोलेनाथ शिव इस मामले में भी विरले ही हैं। देवाधिदेव महादेव भगवान शंकर का श्रृंगार कुछ अलग ही है। उनकी पूजन सामग्री भी विलक्षण है। लेकिन क्या आप जानते हैं भूतनाथ भगवान शिव के श्रृंगार की हर वस्तु का अलग महत्व है और हर वस्तु से एक अलग पौराणिक मान्यता से जुड़ी है। भगवान शिव मतलब एक वैरागी, संन्यासी , भूतों के स्वामी और श्मशान के वासी। कहने का मतलब रहन सहन वस्त्र आभूषण निवास और गण से लेकर भगवान शंकर का पूर्ण स्वरूप अति विचित्र और समझ से परे। मनुष्य ही नहीं देवताओं के मन में भी यह प्रश्न कई बार उठता था की तीनों लोकों के स्वामी, संसार में जनक और संहारक की भूमिका निभाने वाले भगवान शंकर ऐसे क्यों है? जिन्हें देखकर कोई भी भयभीत हो जाए। शिव बारात का प्रसिद्ध प्रसंग आप सभी को स्मरण होगा जब स्वयं भगवान शंकर की सासू मां और देवी सती की माता वर पूजन के दौरान शिव का औघड़ स्वरूप देखकर मूर्छित हो गई थी। ऐसे कई किस्से हमारे पुराणों में वर्णित है जब शिव के विरले स्वरूप पर प्रश्न उठे और भगवान का उपहास तक किया गया। तो आइए जानते हैं शिव के शीष से लेकर नख तक के उनके श्रृंगार की वस्तुओं की विचित्रता के रहस्य और उनसे जुड़ी पौराणिक मान्यताओं को।
दरअसल शिव बड़े भोले हैं। उन्हें दुनिया के दिखावे, साजो श्रृंगार में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही। वे सदैव अपने ही स्वरूप में मग्न रहते हुए मानव मात्र के कल्याण हेतु अपने आराध्य भगवान श्री राम का भजन करते रहे। यहां तक कि वह विवाह भी नहीं करना चाहते थे लेकिन सृष्टि के कल्याण और दानवों के संहार के लिए देवताओं के आह्वान पर कामदेव ने उन्हें समाधि से जगाया। तब जाकर उन्होंने विवाह किया और उनके पुत्र गणेश और कार्तिकेय ने कई राक्षसों को मारकर इस धरती पर धर्म की रक्षा की।
अगर आप शिव चरित्र को समझने की कोशिश करेंगे तो पाएंगे कि शिव ने हर उस वस्तु, जगह या आत्मा को अपनाया है जिसे कोई भी छूना तक पसंद नहीं करता। उदाहरण के तौर पर कौन श्मशान का निवासी बनना चाहेगा? कौन भूतों के साथ रहना चाहेगा? या फिर कौन जहर पीना चाहेगा? यह सब शिव ही कर सकते हैं और यह उन्हीं के लिए संभव है। इसी भोलेपन और जगत कल्याण की भावना के चलते शिव के हिस्से में विचित्र तरह की श्रृंगार सामग्री और भोज्य पदार्थ आते हैं। तो जानिए शिव श्रृंगार के रहस्य।
भस्म
शिव श्रृंगार की सबसे प्रमुख सामग्री है भस्म। जगत के आकर्षण, मोह आदि से मुक्ति की प्रतीक भस्म को लगाकर शिव संसार को आध्यात्मिक संदेश देते हैं कि किसी भी परिस्थिति में चित को शांत रखते हुए प्रसन्न रखा जा सकता है। भस्म हमें यह भी बताती है कि में जगत नश्वर है और अंत में सिर्फ मुट्ठीभर भस्म (राख) ही शेष रहती है। भस्म के पीछे वैज्ञानिक कारण यह है कि तपस्चर्या के दौरान भस्म शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने का काम करती है। भस्म से रोम छिद्र बंद हो जातें हैं जिससे शरीर पर सर्दी, गर्मी का प्रभाव नहीं पड़ता साथ ही भस्म त्वचा संबंधी रोगों में भी शरीर की रक्षा करती है। उज्जैन का महाकाल ज्योतिर्लिंग मंदिर एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां शिव की भस्म आरती होती और श्मशान की भस्म का उपयोग किया जाता है।
रुद्राक्ष
रुद्र का अक्ष (आंसू) अर्थात रुद्राक्ष भगवान शिव को बहुत ही प्रिय है। रुद्राक्ष भगवान शिव के आंसुओं से निर्मित हुआ है। यह भी भगवान के श्रृंगार की महत्वपूर्ण वस्तु है। रुद्राक्ष कई तरह की मुसीबतों से रक्षा करते हुए जीवन में सकारात्मकता का संचार करने का कार्य करता है।
डमरू
भगवान शिव संगीत के जनक है और तांडव नृत्य करते हैं। वाद्ययंत्र के रूप में आकाश, पाताल एवं पृथ्वी को एक लय में बांधने और सृष्टि सृजन के मूल बिंदु के रूप में शिव अपने हाथों में डमरू धारण किए हुए हैं। डमरू नाद का प्रतीक है। नाद अर्थात ऐसी ध्वनि, जो ब्रह्मांड में निरंतर गूंजती रहे। जिसे 'ॐ' कहा जाता है। संगीत में अन्य स्वर से महत्वपूर्ण है नाद जिससे ही वाणी के चारों स्वरूप पर,पश्यंती मध्यमा और वैखरी की उत्पत्ति हुई।
शिव जटाएं
अंतरिक्ष के देवता शिव का एक नाम व्योमकेश अर्थात आकाश जैसी जटाओं वाला भी है। शिव जटाएं वायुमंडल, शिव रुद्रस्वरूप, शिव उग्रता और संहारक स्वरूप के प्रतीक है।
शीश पर गंगा
जब भागीरथ जी ने अपनी तपस्या से गंगा को पृथ्वी पर उतार लिया तो स्वर्ग से उतरी गंगा के वेग को रोकना असंभव हो गया। तभी संसार को बचाने के लिए शिव ने अपनी जटाओं को खोला और गंगा को शीश पर धारण कर लिया। इस तरह शिव ने संसार की रक्षा की और गंगा के अहंकार को भी नष्ट किया।
चंद्रमा
स्वभाव से शीतलता का प्रतीक चंद्रमा शिव के शीश पर विराजमान हैं। शिव का एक नाम सोम यानी चन्द्रमा भी है। चंद्रमा मन का कारक है और शिव का चंद्रमा को धारण करना मन के नियंत्रण का प्रतीक कहा गया है। शिव के सभी त्योहार और पर्व चन्द्रमास में आते हैं। शिवरात्रि, महाशिवरात्रि सभी चंद्र कलाओं से प्रभावित है। कथा है कि भगवान शिव ने सोम अर्थात चन्द्रमा को श्राप से मुक्ति दिलाई तभी चंद्रमा ने शिवलिंग की स्थापना की जिसे हम सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के रूप में जानते हैं।
तीसरी आंख
त्रिनेत्र धारी भगवान शिव को त्रिलोचन भी कहते हैं। शिव का तीसरा नेत्र बंद अवस्था में हमेशा जाग्रत रहता है और खुलने पर प्रलय का पर्याय है। आधा खुला और आधा बंद यह शिव नेत्र ध्यान-साधना या संन्यास के साथ गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों को निभाने का संदेश देता है।
त्रिपुंड तिलक
भगवान शिव के मस्तक पर तीन लंबी धारियों वाला तिलक होता है। इसे त्रिपुंड कहते हैं जो त्रैलोक्य और त्रिगुण - सतोगुण, रजोगुण और तपोगुण का प्रतीक है। यह सफेद चंदन या भस्म से लगाया जाता है।
त्रिशूल
सत, रज और तम गुणों के मिलन को दर्शाता शिव त्रिशूल परम शक्ति और शिव के रौद्र रूप का प्रतीक है। 3 प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक, भौतिक के विनाश के सूचक त्रिशूल में सत, रज और तम के रूप में प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन की शक्तियां निहित है। त्रिशूल के 3 शूल उदय, संरक्षण और लयीभूत सृष्टि का भी प्रतीक है जो शैव सिद्धांत के पशुपति, पशु एवं पाश का प्रतिनिधित्व करते है। इसे वर्तमान, भूत, भविष्य तीनों कालों का सूचक भी कहा गया है।
नाग देवता
भगवान शिव के गले में नाग देवता को धारण करते हैं। यह नाग समुद्र मंथन के समय रस्सी के रूप में उपयोग किया गया था। परम शिव भक्त वासुकी नाम के इस नाग पर प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अपने गले में आभूषण के रूप में स्थान दिया था। वैसे भी नागवंशियों पर शिव की विशेष कृपा है क्योंकि नाग कुल हिमालय के मूलनिवासी कहे गए हैं। कश्मीर का अनंतनाग इन नागवंशियों का गढ़ कहा जाता है। शिव के अनन्य भक्त नाग शैव धर्म का पालन करते थे। शिव ने नाग गले में धारण कर संसार को विरोधियों, क्रूर लोगों और भयानक जीव को भी प्रेम से अपनाने का संदेश दिया है। शिव पुराण में नागों के 5 कुल शेषनाग (अनंत), वासुकी, तक्षक, पिंगला और कर्कोटक का उल्लेख है।
खप्पर
एक समय भगवान शिव ने पृथ्वी पर पड़े अकाल के समय मां अन्नपूर्णा से खप्पर में भिक्षा मांगी और संसार के सभी प्राणियों की क्षुधा को शांत कर जीवन की रक्षा की थी तभी से वे अपने साथ खप्पर रखते हैं। यह संन्यासी होने का प्रतीक भी माना जाता है। तभी तो साधु संत हमेशा अपने पास खप्पर रखते हैं।
पैरों में कड़ा
स्थिरता और एकाग्रता के प्रतीक शिव जी हमेशा एक पैर में कड़ा धारण करते हैं।
कान में कुंडल
शिव अपने कानों में कुंडल धारण करते हैं। इसलिए मन को शांति प्रदान करने और एकाग्रता बढ़ाने के लिए हिन्दुओं में कर्ण छेदन संस्कार का बड़ा महत्व है। शैव, शाक्त और नाथ संप्रदाय में यह आज भी एक महत्वपूर्ण प्रथा है।
वृषभ या नंदी
शिव का वाहन वृषभ है। मनुस्मृति में वृषभ की व्याख्या 'वृषो हि भगवान धर्म:' के रूप में की गई है। अर्थात धर्म 4 पैरों वाला है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही महादेव के वृषभ के चार पैर है और शिव धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के स्वामी हैं। शिव वृषभ यानी नंदी ने ही धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्ष शास्त्र की रचना की थी।
मृगछाला
शिव पुराण के अनुसार, एक बार भगवान शिव निर्वस्त्र अवस्था में जंगल से गुजर रहे थे तभी ऋषि-मुनि की धर्मपत्नियां शिव स्वरूप पर आकर्षित होने लगी। इससे ऋषि-मुनि क्रोधित हो गए और भगवान शिव को दंड देने के लिए उन्होंने मार्ग में एक बड़ा सा गड्ढा खोद दिया। भगवान शिव उस गड्ढे में जा गिरे। इसके बाद ऋषि-मुनियों ने उस गड्ढे में एक शेर छोड़ दिया। शिव ने शेर से युद्ध कर उसे मार कर शेर की खाल को वस्त्र बना लिया। जब भगवान शिव बाहर आए तो ऋषि मुनियों की उनके वास्तविकता का पता चला और उन्होंने भगवान शिव की बाघम्बर धारी स्वरूप में स्तुति की।
एक कथा यह भी है कि हिरण्यकश्यप के संहार के बाद नृसिंह भगवान पुनः विष्णु के शरीर में मिल गए और सिंह चर्म वहीं छोड़ गए जिसे भगवान शंकर ने अपना आसन और वस्त्र बना लिया।
इन सब के साथ श्रृंगारित भगवान शिव के भक्त उन्हें चंदन, रोली, चावल, काले तिल, जनेऊ, बेलपत्र, फूल माला, धतूरा, वस्त्र, पंच मेवा, बादाम, काजू, छुहारा, मखाना, किशमिश, भांग, मेंहदी, धूप, नारियल की जटा, कपूर, गूगल, अबीर, जौ और फलों के श्रृंगार भी अर्पण करते हैं।
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