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हमारी चेतना के भीतर सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण तीनों प्रकार के गुण व्याप्त है। प्रकृति के साथ इसी चेतना के उत्सव को नवरात्रि कहते हैं। इन नौ दिनों में हम पहले तीन दिन तमोगुणी प्रकृति की आराधना करते हैं। दूसरे तीन दिन रजोगुणी तथा आखिरी तीन दिन सतोगुणी प्रकृति की आराधना का महत्व है। लेकिन कई बार गलत विधि या पंडित के न होने पर घर में नवरात्रि की पूजा अर्चना ठीक तरीके से नहीं हो पाती है। ऐसे में भक्त वत्सल के नवरात्रि विशेषांक श्रृंखला के इस लेख में आप मैया की सही आराधना करते हुए मनवांछित फल प्राप्त कर सकते हैं। तो चलिए शुरू करते हैं देवी आराधना की सही विधि और उससे पहले कुछ महत्वपूर्ण जानकारी का भक्तिमय सफर…
नवरात्रि का पर्व मनाए जाने के पीछे कई तरह की मान्यता है। एक पौराणिक मान्यता के अनुसार, महिषासुर नाम का एक दैत्य था। ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान पाकर वह देवताओं को सताने लगा था। महिषासुर के अत्याचार से परेशान होकर सभी देवता शिव, विष्णु और ब्रह्मा के पास गए। इसके बाद तीनों देवताओं ने आदि शक्ति का आवाहन किया। भगवान शिव और विष्णु के क्रोध व अन्य देवताओं से मुख से एक तेज प्रकट हुआ जो नारी के रूप में बदल गया। अन्य देवताओं ने उन्हें अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए।
इसके बाद देवताओं से शक्तियां पाकर देवी दुर्गा ने महिषासुर को ललकारा। महिषासुर और देवी दुर्गा का युद्ध शुरू हुआ जो 9 दिनों तक चला। फिर दसवें दिन मां दुर्गा ने महिषासुर का वध कर दिया। मान्यता है कि इन 9 दिनों में देवताओं ने रोज देवी की पूजा-आराधना कर उन्हें बल प्रदान किया। तब से ही नवरात्रि का पर्व मनाने की शुरुआत हुई। इसलिए इन नौ दिनों को शक्ति की आराधना के लिए समर्पित किया गया।
साथ ही अश्विन मास से शरद ऋतु का नवरात्रि मनाने और नौ दिन व्रत रखने की परंपरा आरंभ हुई। इस प्रकार भगवान राम ही नवरात्रि मे के नौ दिनों तक व्रत रखने वाले पहले मनुष्य थे। दुर्गा असल में शिव की पत्नी आदिशक्ति का एक रूप हैं। शिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धि तत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है।
ये पर्व शक्ति की उपासना का पर्व है। कहा जाता है कि इन नौ दिनों में पूरी लगन निष्ठा और विधि विधान से मां दुर्गा की पूजा की जाए तो उचित फल अवश्य प्राप्त होता है।
ओम आ जिघ्र कलशं मह्या त्वा विशन्त्विन्दव:। पुनरूर्जा नि वर्तस्व सा नः सहस्रं धुक्ष्वोरुधारा पयस्वती पुनर्मा विशतादयिः।। ओम वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्काभसर्जनी स्थो वरुणस्य ऋतसदन्यसि वरुणस्य ऋतसदनमसि वरुणस्य ऋतसदनमा सीद।।
नवरात्रि में दुर्गा पूजा के अधिष्ठान हेतु कलश के साथ गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तचिरंजीवीं, चौसठ योगिनी, क्षेत्रपाल आदि का आव्हान अखंड दीप प्रज्वलन के साथ किया जाता है।
देवी प्रतिमा के अंग विन्यास की विधिवत पूजा की जानी चाहिए। नवदुर्गा के साथ ज्योति पूजा, मंगलपाठ,आसन शुद्धि, प्राणायाम, भूत शुद्धि, ध्यान पीठ पूजा, मंत्र पूजा, आवरण पूजा एवं प्रधान पूजा का शास्त्रीय पद्धति से अनुष्ठान किया जाना चाहिए।
वैसे तो ईश्वर भाव के भूखे होते हैं। हालांकि इसके बाद भी परिस्थिति अनुसार साधक स्नान करके आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके गंगाजल छीडककर स्थान व स्वयं को पवित्र कर लें। आसन ग्रहण कर मन चिंत से सारे विकारों से ध्यान हटाकर ललाट पर भस्म, चंदन अथवा रोली लगाकर शिखा बांध लें। इसके बाद पूर्वाभिमुख होकर तत्व शुद्धि के लिए आचमन करें।
ऊँ ऐं आत्मतत्वं शोधयामि नमः स्वाहा।पूजा करते समय बीच में न उठे।
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