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महाकुंभ की गलियां न केवल आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करती हैं, बल्कि यहां आपको ऐसे लोग भी मिल जाते हैं जो जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाना चाहते हैं। महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित पद्म पुराण में बताया गया है कि 84 लाख योनियों में से मुक्ति पाने के लिए साधना और आत्म-मुक्ति के मार्ग पर चलना आवश्यक है। महाकुंभ में नागा साधुओं की उपस्थिति एक आकर्षक और रहस्यमय अनुभव प्रदान करती है। उनके जीवन से लेकर मृत्यु तक हर एक चीज बहुत ही रहस्यमयी है। आमतौर पर माना जाता है कि मुक्ति के लिए अंतिम संस्कार की प्रक्रिया से गुजरना होता है लेकिन नागा साधुओं के मामले में यह प्रक्रिया अलग होती है। नागा साधुओं की मृत्यु के बाद उनका अंतिम संस्कार एक विशेष प्रक्रिया के माध्यम से किया जाता है जो उनके जीवन और आध्यात्मिक अनुभवों को दर्शाता है। यह प्रक्रिया न केवल उनके जीवन के अनुभवों को सम्मानित करती है बल्कि यह उनकी आत्म-मुक्ति की यात्रा का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। आइये आपको बताते हैं कि नागा साधुओं की मृत्यु के बाद उनका अंतिम संस्कार कैसा किया जाता है? साथ ही नागा साधुओं को मुखाग्नि क्यों नहीं दी जाती?
नागा संन्यासियों की मृत्यु के बाद उनके शरीर को जलाया नहीं जाता बल्कि उन्हें जल समाधि या भू-समाधि दी जाती है। यह प्रक्रिया उनके जीवन के अनुभवों और आध्यात्मिक उपलब्धियों को सम्मानित करती है। नागा संन्यासी अपनी मृत्यु के पहले ही यह इच्छा जाहिर कर देते हैं कि उनके शरीर को किस प्रकार से सम्मानित किया जाए। इसके बाद उनके शरीर को एक विशेष प्रक्रिया से गुजारा जाता है, जिसमें 17 शृंगार किए जाते हैं। यह 17 शृंगार उनके जीवनकाल में किए जाने वाले 21 शृंगारों से अलग होते हैं। 21 शृंगारों में प्रवचन, मधुर वाणी, साधना, और सेवा जैसे तत्व शामिल होते हैं जो मृत्यु के शृंगार में शामिल नहीं होते हैं। इस प्रक्रिया के माध्यम से नागा संन्यासी अपने जीवन के अनुभवों और आध्यात्मिक उपलब्धियों को सम्मानित करते हैं और अपने शरीर को एक अनोखे और सम्मानजनक तरीके से सम्मानित करते हैं।
इसके बाद उन्हें सिंहासन पर बैठाया जाता है, चूंकि मृत शरीर को बैठने में दिक्कत होती है तो उन्हें सिंहासन के साथ बांध दिया जाता है। अंत में नागा संन्यासी की जैसी इच्छा होती है उसके अनुसार उन्हें जल समाधि या भू-समाधि दे दी जाती है। एक बार सिंहासन पर बैठाने के बाद उन्हें उतारा नहीं जाता बल्कि सिंहासन के साथ ही समाधि दे दी जाती है।
नागा साधु बनने के लिए एक व्यक्ति को घोर तपस्या और आत्म-समर्पण की यात्रा पर चलना पड़ता है। यह यात्रा न केवल शारीरिक रूप से चुनौतीपूर्ण होती है बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक रूप से भी गहराई से प्रभावित करती है। नागा साधु जीवित रहते हुए ही अपना पिंडदान कर चुके होते हैं जो उनके आत्म-समर्पण और जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण को दर्शाता है। हिंदू धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक कई संस्कार बताए गए हैं जिनमें से एक है अंतिम संस्कार। अंतिम संस्कार के दौरान, व्यक्ति के मरने के बाद उनका पिंडदान किया जाता है जो उनके जीवन के अंतिम अध्याय को सम्मानित करता है। नागा साधु के लिए यह पिंडदान एक प्रतीक है उनके आत्म-समर्पण और जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण का जो उन्हें एक उच्च आध्यात्मिक स्तर पर ले जाता है।
जानकारों के अनुसार नागा साधुओं का दाह संस्कार नहीं किया जाता है। बल्कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी समाधि लगा दी जाती है। उनकी चिता को आग नहीं दी जाती है क्योंकि ऐसा करने पर दोष लगता है। ऐसा इसलिए क्योंकि नागा साधु पहले ही अपना जीवन समाप्त कर चुके होते हैं। अपना पिंडदान करने के बाद ही वह नागा साधु बनते हैं इसलिए उनके लिए पिंडदान और मुखाग्नि नहीं दी जाती है। उन्हें भू या जल समाधि दी जाती है।
नागा साधुओं की मृत्यु के बाद एक विशेष प्रक्रिया का पालन किया जाता है जो उनके जीवन और आध्यात्मिक अनुभवों को सम्मानित करती है। सबसे पहले उनका स्नान कराया जाता है और इसके बाद मंत्रोच्चारण कर उन्हें समाधि दे दी जाती है। समाधि की प्रक्रिया में, नागा साधु के शव पर भस्म लगाई जाती है और भगवा रंग का वस्त्र डाले जाते हैं। इसके बाद, समाधि बनाने के लिए एक विशेष स्थल चुना जाता है और वहां पर सनातन निशान बना दिया जाता है जिससे लोग उस स्थल को सम्मानित करें और उसे गंदा न कर पाएं। नागा साधुओं को धर्म का रक्षक भी कहा जाता है और उनकी मृत्यु के बाद उन्हें पूरे मान-सम्मान के साथ विदा किया जाता है। यह प्रक्रिया नागा साधुओं के जीवन और आध्यात्मिक अनुभवों को सम्मानित करती है और उनकी याद को जीवित रखती है।
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