महामंडलेश्वर कैसे बनते हैं

MahaKumbh 2025:महामंडलेश्वर बनने की होती है कठिन प्रक्रिया,  जीतेजी करना पड़ता है पिंड दान, जानें नियम


अध्यात्म का मार्ग आसान नहीं होता। यह एक ऐसा पथ है, जहाँ साधना, तपस्या और त्याग के कठिन इम्तिहान से गुजरना पड़ता है। जब बात साधु-संतों की हो, तो यह मार्ग और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इसी कठिन राह पर चलते हुए एक पद ऐसा है, जिसे सर्वोच्च सम्मान और गौरव प्राप्त है...महामंडलेश्वर। हिंदू धर्म में महामंडलेश्वर का स्थान इतना ऊंचा है कि इसे शंकराचार्य के बाद का सबसे प्रमुख पद माना गया है। यह केवल एक पद नहीं, बल्कि साधु-संतों के तप, त्याग और ज्ञान का प्रतीक है। चलिए इस आर्टिकल में जानते हैं आखिर कैसे होती है इसकी गुरु दीक्षा...


कौन होते हैं अखाड़ों में महामंडलेश्वर?

 
सनातन धर्म में संन्यासी परंपरा का एक गौरवशाली इतिहास है, जिसमें साधु-संतों की विभिन्न श्रेणियां और उनकी भूमिकाएं महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इस परंपरा में सर्वोच्च पद शंकराचार्य का होता है, जिन्हें धर्म के सर्वोपरि संरक्षक और मार्गदर्शक माना जाता है। शंकराचार्य के बाद, दूसरे सबसे बड़े पद के रूप में महामंडलेश्वर का स्थान आता है। महामंडलेश्वर को अखाड़ों में सर्वोच्च स्थान और अधिकार प्राप्त होते हैं। यह पद केवल उन व्यक्तियों को दिया जाता है, जो वेदांत, शास्त्रों और सनातन धर्म के गहन अध्ययन में पारंगत होते हैं। 


कैसे बनते हैं महामंडलेश्वर? 


महामंडलेश्वर बनने के लिए सख्त नियमों का पालन करना पड़ता है। चयन प्रक्रिया पूरी होने के बाद, संबंधित व्यक्ति को संन्यास ग्रहण करवाया जाता है। इस दौरान उसे एक विशेष परंपरा का पालन करते हुए अपने ही हाथों से खुद का पिंडदान करना होता है, जो उसकी सांसारिक जिम्मेदारियों के त्याग का प्रतीक है। इसके बाद महामंडलेश्वर का पट्टाभिषेक किया जाता है, जिसमें 13 अखाड़ों के संत और महंत मौजूद रहते हैं। इस आयोजन में पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद और चीनी का मिश्रण) का वितरण किया जाता है, और विशेष चादर भेंट की जाती है। इस पूरी प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति को महामंडलेश्वर के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है।


चयन के मानदंड


महामंडलेश्वर बनने के लिए केवल साधारण योग्यता या इच्छा पर्याप्त नहीं होती। इसके लिए गहन वेद-पुराण का ज्ञान अनिवार्य होता है। यदि कोई व्यक्ति आचार्य या शास्त्री की उपाधि प्राप्त कर चुका हो, तो यह उसके चयन में सहायक साबित होता है। इसके अलावा, उस व्यक्ति का किसी गुट या मठ से जुड़ा होना और समाज कल्याण के कार्यों में सक्रिय भागीदारी निभाना भी महत्वपूर्ण माना जाता है। यदि कोई कथावाचक 10-12 वर्षों से कथा कहने का अनुभव रखता है, तो यह भी उसकी योग्यता में जोड़ा जाता है।व्यक्ति का जिस मठ या स्थान से जुड़ाव है, वहाँ धार्मिक और सामाजिक कार्यों की उपस्थिति भी ध्यान में रखी जाती है।


साधुओं के लिए होते हैं विभिन्न पद 


साधुओं को उनके ज्ञान, कार्य और योग्यता के आधार पर विभिन्न पदों से नवाजा जाता है। इन पदों की श्रेणी में आचार्य महामंडलेश्वर सबसे उच्च पद होता है, इसके बाद महामंडलेश्वर और फिर महंत का स्थान आता है। इसके अलावा अन्य पदों में कोठारी, भंडारी, थानापति, कोतवाल, श्री महंत और सचिव शामिल हैं।

इन पदों के लिए विशिष्ट जिम्मेदारियां और योजनाएं होती हैं। यदि कोई साधु इन नियमों का उल्लंघन करता है या अनुशासनहीनता करता है, तो उसे पद से हटा दिया जा सकता है और दंड की प्रक्रिया भी अपनाई जा सकती है। इस व्यवस्था में नियमों का पालन और कार्यों का ईमानदारी से निर्वहन अत्यंत आवश्यक माना जाता है।

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