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शिवपुराण की एक कथा के अनुसार एक बार ब्रह्माजी और विष्णुजी में अहंकारवश सर्वश्रेष्ठ होने की बहस हुई और बहस होते होते दोनों ने अपने पक्ष में कई तर्क दिए लेकिन दोनों एक दूसरे से असहमत थे तभी दोनों ने भगवान शिव के पास जाने और उनसे फैसला लेने के बारे में निश्चय किया। जब दोनों भगवान शिव के पास पहुंचे और उनकी स्तुति की तो महादेव ने उन्हें लिंगरूप में दर्शन दिए और कहा कि आप दोनों में से जो भी मेरे इस लिंग-स्वरुप का छोर पता कर लेगा वही सवर्श्रेष्ठ माना जायेगा।
ऐसा सुनकर ब्रह्माजी लिंग के ऊपरी तरफ और विष्णुजी लिंग के नीचे कि तरफ का छोर ढूंढने निकल पड़े, कई वर्ष बीत जाने के बाद भी उन्हें कोई छोर नहीं मिला, लिंग का अंत न मिलने के कारण भगवान विष्णु को अपनी गलती और अभिमान का अहसास हुआ और वो वहां से लौट पड़े लेकिन ब्रह्माजी को शुरुआत न मिलने पर भी समझ नहीं आया और उन्होंने युक्तिपूर्वक केतकी के फूल को अपने साथ मिला लिया ये गवाही देने के लिए कि उन्होंने लिंग का ऊपरी छोर या शुरुआत मिल गयी है।
दोनों देवता भगवान शिव के पास लौटे तो महादेव ने उनसे परिणाम पूछा तो भगवान विष्णु (जो अब अभिमान रहित हो चुके थे) ने निर्मल भाव और भक्ति से भगवान शिव को प्रणाम करते हुए कहा कि हे प्रभो! मुझसे गलती हुई और मैं अब जान गया हूँ कि आपका ये लिंग स्वरुप जिसका न कोई आदि (शुरुआत) है न ही कोई अंत है और ये स्वयंभू है अर्थात हमेशा है और स्वयं प्रकट हुआ है इसलिए हे प्रभु आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं। लेकिन ब्रह्माजी का अभिमान का पर्दा अभी तक उनकी आँखों पर था और वो तो केतकी के फूल को गवाही देने के लिए भी साथ लाये थे तो उन्होंने कहा कि हे महादेव मैंने तो लिंग का आदि अर्थात शुरुआत देख ली है और ये केतकी का फूल इसका साक्षी भी है इसलिए अब ये सिद्ध हो गया है कि मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ।
भगवान भोलेनाथ जो अनादि हैं अनंत हैं और सभी देवो के देव हैं वे तो सारा सत्य जानते ही थे ब्रह्माजी के ऐसे झूठ बोलने पर उन्होंने दंडस्वरूप श्राप दिया कि हे ब्रह्मा तुमने अभिमान में आकर स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए झूठ का साथ लिया है इसलिए अबसे तुम जगत के जनक तो रहोगे किन्तु तुम्हारी कहीं पूजा नहीं होगी और जिस मुख से तुमने झूठ बोला है उस मुख को भी काट देता हूँ और ऐसा कहते हुए महादेव ने ब्रह्माजी का एक शीश अपने त्रिशूल से भंग कर दिया, जब ब्रह्माजी को अपनी भूल का एहसास हुआ तो उन्होंने भोलेनाथ कि वंदना करते हुए क्षमा याचना कि तब भगवान भोलेनाथ ने प्रसन्न होकर उन्हें पुष्कर में पूजित होने का वरदान दिया।
तो इसलिए ब्रह्माजी की पूजा सिर्फ पुष्कर में होती है और कहीं नहीं।
क्यों दिया था माता सरस्वती ने ब्रह्माजी को श्राप
एक और कथा के अनुसार, एक समय वज्रनाभ (कहीं कहीं वज्रांश नाम से भी प्रचलित) नाम का राक्षस हुआ जिसने पूरी पृथ्वी पे उत्पात मचा दिया और लोगों, संतों की हत्याएं करने लगा। पृथ्वी माता ये सब देखकर ब्रह्माजी के पास प्रार्थना करने पहुंची तो ब्रह्माजी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके वज्रनाभ के साथ युद्ध किया और उसका वध किया।
वज्रनाभ से युद्ध करते समय ब्रह्माजी के हाथ से कमल की तीन पत्तियां भूमि पर गिरी और जिन तीन स्थानों पर ये तीन पत्तियां गिरीं वहां तीन तालाब निर्मित हो गए, पहले तालाब का नाम ज्येष्ठा, दूसरे का मध्य और तीसरे का कनिष्ठा रखा गया। ये तीनो तालाब जहाँ बने उस जगह का नाम पुष्कर रखा गया, पुष अर्थात पुष्प और कर मतलब हाथ। हाथ के पुष्प से निर्मित इस जगह का नाम पुष्कर पड़ा।
राक्षस वध के बाद ब्रह्माजी ने पुष्कर में एक यज्ञ करने का निश्चय किया, जिसकी विधि में माता सरस्वती की भी जरुरत थी किन्तु माता सरस्वती किन्हीं कारणों से समय पर यज्ञ स्थल पे नहीं पहुँच सकीं तो ब्रह्माजी वहां उपस्थित देवगणों से परामर्श लिया तो देवराज इंद्र ने वहां उपस्थित गायत्री नाम की कन्या से ब्रह्माजी के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखा जिसे समय का महत्त्व समझते हुए ब्रह्माजी को स्वीकार करना पड़ा।
तब ब्रह्माजी और माता गायत्री ने यज्ञ प्रारम्भ किया, लेकिन थोड़े समय बाद ही माता सरस्वती यज्ञ स्थल पर पहुँच गयीं और अपने स्थान पर किसी और स्त्री को यज्ञ करता हुआ देखकर बहुत क्रोधित हो उठीं, तभी उन्होंने क्रोध में ब्रह्माजी को श्राप दिया कि अब आप अपने इस कृत्या के कारण पूज्यनीय नहीं रह गए हैं और आज से इस संसार में आपकी पूजा नहीं होगी। ब्रह्माजी ने यज्ञ के बाद माता सरस्वती को स्थिति से अवगत कराया और बताया कि उन्होंने ऐंसा कि परिस्थिति में किया और माता सरस्वती से क्षमा याचना की, तब ब्रह्माजी की याचना को स्वीकार करते हुए माता ने कहा की परिस्थिति का ज्ञान होने के बाद भी ये क्षमा योग्य अपराध तो नहीं है फिर भी आपने ये यज्ञ जगत कल्याण के लिए किया तथा इसमें आपका कोई स्वार्थ निहित नहीं था और अब आपने क्षमा प्रार्थना भी की है तो सिर्फ पुष्कर में ही आपकी पूजा होगी।
जय हो माता सरस्वती की, जय हो परमपिता ब्रह्माजी की
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