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जब भी कुंभ मेले का उल्लेख होता है कल्पवास का नाम अनिवार्य रूप से लिया जाता है। कल्पवास एक आध्यात्मिक साधना और वैदिक परंपरा है जो प्राचीन भारतीय संस्कृति की गहरी जड़ों से जुड़ी हुई है। यह एक लंबी धार्मिक साधना होती है जिसमें व्यक्ति ईश्वर की भक्ति और आत्मशुद्धि के उद्देश्य से विशिष्ट अनुशासन का पालन करता है। कुंभ के दौरान कल्पवास करना भारतीय संस्कृति की गहन आध्यात्मिकता और धार्मिक परंपराओं को सजीव बनाए रखता है। तो आइए इस लेख में कल्पवास के बारे में विस्तार से जानते हैं।
'कल्प' का अर्थ है "निश्चित समय अवधि" और 'वास' का अर्थ है "निवास"। कल्पवास का आशय है कि व्यक्ति एक निश्चित अवधि के लिए पूरी तरह से ईश्वरमय दिनचर्या का पालन करते हुए भक्ति और साधना में लीन हो जाए। कुंभ मेले के दौरान संगम तट पर यह साधना सबसे अधिक प्रचलित है।
कल्पवास की परंपरा वैदिक काल की अरण्य संस्कृति से उत्पन्न मानी जाती है। भारतीय परंपरा में चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास निर्धारित हैं। इन आश्रमों में वानप्रस्थ आश्रम का संबंध गृहस्थ जीवन से मुक्त होकर आध्यात्मिक साधना की ओर बढ़ने से है। गृहस्थ जीवन व्यतीत कर चुके 50 वर्ष से अधिक आयु वाले गृहस्थ कल्पवास करते थे। वे अपने घर-परिवार को छोड़कर जंगलों में जाकर साधना और तपस्या में लीन हो जाते थे। यह साधना उन्हें जीवन के अंतिम दो आश्रमों वानप्रस्थ और संन्यास के लिए तैयार करती थी।
कुंभ एक लंबा धार्मिक अनुष्ठान है जो लगभग 50 दिनों तक चलता है। इस अवधि के दौरान भक्त संगम तट पर निवास करते हैं और ईश्वर की भक्ति में संलग्न रहते हैं।
कल्पवासियों को कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है।
मत्स्य पुराण और अन्य धर्म ग्रंथों में कल्पवास का उल्लेख मिलता है। मत्स्य पुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति पूरी तन्मयता और श्रद्धा के साथ कल्पवास करता है उसे अगले जन्म में राजा की योनि प्राप्त होती है। महाभारत में माघ मास में प्रयाग में स्नान करने को असीम पुण्य का कारक बताया गया है। माना जाता है कि कल्पवास करने से व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
कल्पवास केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह भारतीय परंपराओं और संस्कृति का प्रतीक है। कुंभ मेले में लाखों लोग कल्पवास के लिए आते हैं, जो भारतीय समाज में आस्था और धर्म की गहरी जड़ों को दर्शाता है।
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