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हिंदू धर्म में श्राद्ध एक महत्वपूर्ण धार्मिक कर्म है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने पितरों (पूर्वजों) का सम्मान करता है और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करता है। श्राद्ध कर्म मुख्य रूप से पितृपक्ष के दौरान किया जाता है, लेकिन धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, श्राद्ध केवल पितृपक्ष तक सीमित नहीं है। इसे विभिन्न अवसरों पर भी संपन्न किया जा सकता है।
धर्मसिंधु और अन्य धर्मशास्त्रों के अनुसार, श्राद्ध करने के 96 अवसर बताए गए हैं। ये अवसर निम्नलिखित हैं:
1. 12 अमावस्याएं: एक साल में आने वाली सभी अमावस्या तिथियों पर श्राद्ध किया जा सकता है।
2. चार पुण्य तिथियां: ये तिथियां विशेष धार्मिक महत्व वाली होती हैं।
3. 14 मन्वादि तिथियां: ये तिथियां विशेष पौराणिक और धार्मिक घटनाओं से जुड़ी होती हैं।
4. 12 संक्रांतियां: प्रत्येक महीने की संक्रांति पर श्राद्ध करने का विधान है।
5. 12 वैधृति योग: वैधृति योग का विशेष ज्योतिषीय महत्व है, जिसमें श्राद्ध किया जाता है।
6. 12 व्यतिपात योग: व्यतिपात योग में किए गए श्राद्ध को विशेष फलदायी माना गया है।
7. 16 पितृपक्ष: पितृपक्ष में 16 दिन होते हैं, जिसमें प्रत्येक दिन श्राद्ध किया जा सकता है।
8. पांच अष्टका श्राद्ध: विशेष तिथियों पर किया जाने वाला श्राद्ध।
9. पांच अन्वष्टका श्राद्ध: विशिष्ट तिथियों पर किया जाने वाला श्राद्ध।
10. पांच पूर्वेद्युः श्राद्ध: विशिष्ट अवसरों पर किया जाने वाला श्राद्ध।
धर्मशास्त्रों और पुराणों में श्राद्ध के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख मिलता है। जैसे मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख किया गया है, यम स्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन है, जबकि भविष्य पुराण में बारह प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख मिलता है। ये बारह प्रकार के श्राद्ध निम्नलिखित हैं:
1. नित्य श्राद्ध: यह श्राद्ध रोज किया जाता है। भोजन से पहले गौ ग्रास निकालना नित्य श्राद्ध कहलाता है।
2. नैमित्तिक श्राद्ध: यह श्राद्ध पितृपक्ष के दौरान किया जाता है।
3. काम्य श्राद्ध: यह श्राद्ध किसी विशेष कामना की पूर्ति के लिए किया जाता है।
4. वृद्धि श्राद्ध: मुंडन, उपनयन, विवाह आदि अवसरों पर किया जाने वाला श्राद्ध वृद्धि श्राद्ध कहलाता है। इसे नंदीमुख भी कहते हैं।
5. पार्वण श्राद्ध: अमावस्या या किसी पर्व के दिन किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है।
6. सपिंडन श्राद्ध: मृत्यु के बाद प्रेत योनि से मुक्ति के लिए मृतक के पिंड को पितरों के पिंड में मिलाना सपिंडन श्राद्ध कहलाता है।
7. गोष्ठी श्राद्ध: गौशाला में वंशवृद्धि के लिए किया जाने वाला श्राद्ध गोष्ठी श्राद्ध कहलाता है।
8. शुद्धयर्थ श्राद्ध: प्रायश्चित स्वरूप अपनी शुद्धि के लिए ब्राह्मणों को भोजन कराना शुद्धयर्थ श्राद्ध कहलाता है।
9. कर्मांग श्राद्ध: गर्भाधान, सीमंत, पुंसवन संस्कार के समय किया जाने वाला श्राद्ध कर्मांग श्राद्ध कहलाता है।
10. दैविक श्राद्ध: देवताओं के निमित्त सप्तमी तिथियों पर हविष्यान्न से किया जाने वाला श्राद्ध दैविक श्राद्ध कहलाता है।
11. यात्रार्थ श्राद्ध: तीर्थ यात्रा पर जाने से पहले और यात्रा के दौरान किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थ श्राद्ध कहलाता है।
12. पुष्ट्यर्थ श्राद्ध: वंश वृद्धि और व्यापार की समृद्धि के लिए किया जाने वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थ श्राद्ध कहलाता है।
पितृपक्ष में श्राद्ध कर्म के साथ-साथ 'पंचबलि' या 'पंच ग्रास' देने का भी प्रावधान है। इसमें ब्राह्मण भोज के साथ-साथ गाय, कुत्ता, कौआ, चींटी और देवताओं के निमित्त भी भोजन निकाला जाता है। पंच ग्रास निम्नलिखित हैं:
1. गाय: गाय को दिया जाने वाला भोजन पृथ्वी तत्व का प्रतीक है।
2. कुत्ता: कुत्ते को दिया जाने वाला भोजन जल तत्व का प्रतीक है।
3. कौआ: कौवे को दिया जाने वाला भोजन वायु तत्व का प्रतीक है।
4. चींटी: चींटी को दिया जाने वाला भोजन अग्नि तत्व का प्रतीक है।
5. देवता: देवताओं के निमित्त निकाला गया भोजन आकाश तत्व का प्रतीक है।
इन पंचबलियों को आहार देकर हम प्रकृति के पांच तत्वों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं, क्योंकि मनुष्य इन्हीं पांच तत्वों से निर्मित होता है। इस प्रकार श्राद्ध कर्म के माध्यम से न केवल पितरों का सम्मान किया जाता है, बल्कि प्रकृति के प्रति भी अपनी कृतज्ञता व्यक्त की जाती है।
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