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‘गु’ मतलब अंधकार या अज्ञान तथा ‘रु’ मतलब प्रकाश यानी ज्ञान। संस्कृत के इन्हीं दो शब्दों के मेल से बना है गुरु। गुरु जो हमारे जीवन के अज्ञान रूपी अंधकार को ज्ञान के प्रकाश से रोशन करते हुए हमारे जीवन में उज्जवल भविष्य की राह प्रशस्त करते हैं। इसीलिए प्राचीन काल से ही हमारे जीवन में गुरु का विशेष महत्व है।
हमारे जीवन में गुरू का क्या स्थान है इसे समझने के लिए इतना ही काफ़ी है कि ईश्वर ने गुरू को स्वयं से बढ़कर बताया है। बदलते परिदृश्य में आज़ कहीं ना कहीं गुरु के प्रति सम्मान, आदरभाव और स्नेह कम होता जा रहा है। ऐसे में गुरु शिष्य परंपरा को आगे बढ़ाने में गुरु पूर्णिमा पर्व का अपना विशेष स्थान है। लेकिन क्या आप जानते हैं गुरु पूर्णिमा क्यों मनाईं जाती है और यह पावन परंपरा कब से शुरू हुई? आइए जानते हैं
गुरु पूर्णिमा का महत्व क्या है
गुरु के महत्व को चिरकाल तक जीवंत रखने और आने वाली पीढ़ियां गुरु की महिमा को समझें इसलिए महान गुरु महर्षी वेद व्यासजी की जयंती को गुरु पूर्णिमा पर्व के रूप में मनाया जाता है। गुरु पूर्णिमा के दिन ही महर्षि वेदव्यास ने चारों वेद की रचना की और वेद व्यास कहलाए। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव द्वारा इसी दिन अपने शिष्य सप्तऋषियों को योग का ज्ञान दिया गया था।
आधुनिक दौर में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपने अध्यात्मिक गुरु श्रीमद राजचंद्र को गुरु पूर्णिमा के दिन ही प्रथम श्रद्धांजलि दी थी। गुरु पूर्णिमा भारत ही नहीं बल्कि नेपाल और भूटान में भी बड़े हर्षोल्लास से मनाई जाती हैं। नेपाल में गुरु पूर्णिमा को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं। बौद्ध धर्म में मान्यता है कि भगवान बुद्ध ने इसी दिन उत्तर प्रदेश के सारनाथ में अपना पहला उपदेश शिष्यों को दिया। इसके बाद ही बौद्ध धर्म की स्थापना और धर्मचक्र का प्रवर्तन हुआ। कई महान गुरुओं का जन्म भी इसी दिन हुआ था।
इन्हीं सभी महत्वों को लेकर आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का उत्सव मनाने की परंपरा शुरू हुई। जिसे आज़ हिन्दू, जैन, बौद्ध और सिख धर्म के लोग बड़े भाव से मनाते हैं। गुरु की महिमा का बखान मनुस्मृति में कुछ इस तरह से किया गया है कि उपनयन संस्कार विद्यार्थी का दूसरा जन्म होता है। इसीलिए उसे द्विज कहा जाता है। शिक्षा समाप्त होने पर गायत्री को माता और आचार्य को पिता कहा गया है। शास्त्रानुसार गुरुजनों के प्रति सम्मान और आदर भाव बनाए रखने के लिए गुरु पूर्णिमा एक महत्वपूर्ण त्योहार है। इस दिन अपने गुरु का पाद पूजन, दान दक्षिणा, मान-सम्मान, आभार व्यक्त करना हमारी परंपरा है। इस दिन दान-पुण्य और पूजा-पाठ का भी विशेष महत्व है।
गुरु शिष्य परंपरा के कुछ महान गुरु
भारत में गुरु और शिष्य की प्राचीन परंपरा में सर्वप्रथम भगवान शिव का नाम आता है। उनके बाद गुरु दत्तात्रेय को सबसे बड़ा गुरु कहा गया है। देवताओं के पहले गुरु अंगिरा ऋषि हुए उनके बाद उनके पुत्र बृहस्पति देव गुरु बने और आगे चलकर बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाया। वहीं महर्षि भृगु असुरों के गुरु थे, उनके बाद असुरों के गुरु शुक्राचार्य हुए।
महाभारत काल में द्रोणाचार्य कौरव और पांडवों के गुरु थे। वे एकलव्य के गुरु भी थे। भगवान परशुरामजी कर्ण के गुरु थे। महर्षि वेद व्यास, गर्ग मुनि, सांदीपनि, दुर्वासा, विस्वामित्र से लेकर चाणक्य तक परंपरा गुरुओं के गौरवशाली इतिहास से भरी हुई है। चाणक्य के गुरु उनके पिता चणक थे। चाणक्य महान सम्राट चंद्रगुप्त के गुरु हुए। चाणक्य के काल में ही महावतार बाबा, आदिशंकराचार्य के गुरु हुए और बाद में उन्होंने संत कबीर को भी अपना शिष्य बनाया। प्रसिद्ध संत लाहिड़ी महाशय को भी उन्हीं का शिष्य बताया जाता है। महान संत और विचारक स्वामी विवेकानंद जी के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस थे। इसी क्रम में नवनाथों के महान गुरु गोरखनाथ हुए जिनके गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) हुए जिन्हें 84 सिद्धों का गुरु कहा जाता है।
गुरु पूर्णिमा की कथा
महाभारत के रचयिता महान संत महर्षि वेद व्यास के जन्मोत्सव पर हम आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा मनाते हैं। गुरु पूर्णिमा की कथा वेद व्यास जी के बचपन से संबंधित है। एक बार वेद व्यास ने अपने माता-पिता से भगवान के दर्शन करने की ज़िद कर ली। लाख समझाने के बाद भी जब वेद व्यास जी हठ करते रहे। तो उनकी माता ने उन्हें वन जाने की बात कही। भगवान के दर्शन की इच्छा लेकर वेदव्यास जी वन की ओर बढ़ गए जहां उन्होंने कठोर तपस्या की। तपस्या के प्रभाव से वेद व्यास जी संस्कृत भाषा के ज्ञाता हो गए और उन्होंने चारों वेदों की रचना की। उन्होंने महाभारत, अठारह पुराण और ब्रह्मसूत्र जैसे महान ग्रंथों को लिखा। चारों वेदों और अठारह पुराणों के ज्ञाता वेदव्यास जी के जन्मोत्सव को ही आज हम गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाते हैं और गुरु की पूजा करने की पावन परम्परा को निभाते हैं।
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