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नवरात्रि भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख त्योहार है जो मां दुर्गा की आराधना के लिए जाना जाता है। यह 09 दिवसीय उत्सव ना केवल धार्मिक श्रद्धा का प्रतीक है बल्कि इस दौरान पूरे भारत में देवी दुर्गा के सम्मान में विशेष पूजा-अर्चना, व्रत और गरबा जैसे पारंपरिक कार्यक्रम का आयोजन भी किया जाता है। इस दौरान महिलाएं पारंपरिक कपड़े खासतौर पर साड़ी पहनकर इस उत्सव में शामिल होती हैं। लेकिन गुजरात में एक ऐसा स्थान है जहां पुरुष भी साड़ी पहनकर गरबा नृत्य करते हैं। यह परंपरा लगभग 200 साल पुरानी है और इसे अहमदाबाद में बड़ौत समुदाय के पुरुष निभाते हैं।
गुजरात के अहमदाबाद में नवरात्रि के दौरान बड़ौत समुदाय के पुरुष साड़ी पहनकर गरबा नृत्य पेश करते हैं। यह अनोखी परंपरा लगभग 200 साल से भी अधिक पुरानी है। इसके पीछे एक खास धार्मिक मान्यता जुड़ी है। मान्यता के अनुसार बड़ौत समुदाय के पुरुषों को सादुबा नाम की एक महिला ने श्राप दिया था, जिससे बचने के लिए वे नवरात्रि के दौरान साड़ी पहनकर गरबा करते हैं। इसे 'शेरी गरबा' कहा जाता है और ये विशेष रूप से नवरात्रि के आठवें दिन आयोजित होता है।
धार्मिक कहानियों की मानें तो सादुबा नाम की एक महिला ने बड़ौत समुदाय के पुरुषों को श्राप दे दिया था। इस श्राप को दूर करने के लिए ही इस समुदाय के पुरुष हर साल नवरात्रि में साड़ी पहनकर गरबा करते हैं और माता की पूजा अर्चना करते हैं। इस पूजा के माध्यम से वे देवी दुर्गा से क्षमा याचना करते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस परंपरा को निभाने से सादुबा का श्राप समाप्त होता है और समुदाय पर किसी भी प्रकार की आपदा नहीं आती।
पुरुषों द्वारा किए जाने वाले इस विशेष तरह के गरबा को शेरी गरबा कहते हैं। इसको देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग अहमदाबाद में जमा होते हैं। यह आयोजन नवरात्रि के आठवें दिन रात में होता है। तब बड़ौत समुदाय के पुरुष सादु माता के मंदिर में पूजा अर्चना के बाद साड़ी पहनकर गरबा करते दिखते हैं। इस अनोखे दृश्य को देखने के लिए स्थानीय लोग और दूर-दराज से आए श्रद्धालु भी बड़ी संख्या में उपस्थित रहते हैं। गरबा का यह रूप दर्शकों के लिए अद्वितीय और अविस्मरणीय अनुभव होता है।
आज जब समाज तेजी से आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है। ऐसे समय में भी अहमदाबाद के बड़ौत समुदाय ने अपनी इस प्राचीन परंपरा को जीवित रखा है। हर साल नवरात्रि के दौरान यह परंपरा उसी श्रद्धा और भक्ति के साथ निभाई जाती है जैसे 200 साल पहले निभाई जाती थी। यह परंपरा दर्शाती है कि भारतीय समाज में धार्मिक मान्यताओं का कितना गहरा प्रभाव है और लोग अपने रीति-रिवाजों को कितनी गंभीरता से मानते हैं।
बड़ौत समुदाय के इस अनोखे उत्सव ने देशभर के लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। यही कारण है कि भारी संख्या में लोग इसे देखने और इसका हिस्सा बनने के लिए पहुंचते हैं। यह आयोजन सिर्फ धार्मिक महत्व का नहीं है बल्कि सामाजिक समरसता का भी प्रतीक है। इस परंपरा में महिलाओं और पुरुषों के बीच कोई भेदभाव नहीं होता बल्कि दोनों ही समान रूप से माता की भक्ति में लीन दिखाई देते हैं।
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