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अष्ट लक्ष्मी में गज लक्ष्मी का व्रत और पूजन दिवाली के समान महत्वपूर्ण है। यह व्रत 16 दिनों तक चलता है। इस दिन महालक्ष्मी देवी अपार धन संपत्ति और खुशहाल जीवन का विशेष वरदान देती हैं। भक्त वत्सल के इस लेख में जानिए गज लक्ष्मी की पूजा विधि और पौराणिक कथा।
एक समय महर्षि श्री वेदव्यासजी हस्तिनापुर आए। महाराज धृतराष्ट्र ने उन्हें स्वर्ण सिंहासन पर बैठा कर उनका पाद प्रक्षालन किया। इसके बाद श्री व्यासजी से माता कुंती तथा गांधारी ने पूछा कि हमको कोई ऐसा सरल व्रत तथा पूजन बताएं जिससे हमारा राज्य, लक्ष्मी, सुख-संपत्ति, पुत्र-पोत्रादि व परिवार सभी सुखी और समृद्ध रहे। तब व्यासजी गजलक्ष्मी व्रत की कथा सुनाई। जो प्रतिवर्ष आश्विन कृष्ण अष्टमी को विधिवत किया जाता है।
व्यासजी बोले - यह व्रत भाद्रपद शुक्ल अष्टमी से प्रारंभ किया जाता है। स्नान के बाद 16 सूत के धागों का डोरा बनाएं और उसमें 16 गांठ लगाकर हल्दी से पीला करें। प्रतिदिन 16 दूब व 16 गेहूं डोरे पर चढ़ाएं। आश्विन (क्वांर) कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखें और मिट्टी के हाथी पर श्री महालक्ष्मीजी की प्रतिमा स्थापित करें । इसके बाद विधिपूर्वक पूजन करें। इस प्रकार श्रद्धा-भक्ति सहित व्रत, पूजन करने से आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होगी।
भाद्रपद शुक्ल अष्टमी से गांधारी तथा कुंती ने व्रत आरंभ किया। 15 दिन बीत गए। 16वें दिन आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन गांधारी ने प्रतिष्ठित महिलाओं को पूजन के लिए बुलावा भेजा, लेकिन माता कुंती को नहीं बुलाया। इस अपमान से कुंती दुखी हो गई और उसने पूजन की तैयारी नहीं की।
पांचों पांडव युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव ने जब अपनी मां को उदास देखा तो इसका कारण पूछा। तब कुंती ने सब कुछ बता दिया। उन्होंने यह भी कहा कि गांधारी के 100 पुत्रों ने मिट्टी का एक विशाल हाथी बनाया जिसकी पूजा करने नगर की सभी महिलाएं महल गई है।
यह सुनकर अर्जुन ने कहा- मैं आपके लिए स्वर्ग के ऐरावत हाथी लाउंगा। यह खबर नगर में फैल गई और माता कुंती विशाल पूजन की तैयारी की। अर्जुन ने जब स्वर्ग से ऐरावत हाथी को पृथ्वी उतार दिया तो सभी कुंती के महल में आ गए।
सभी ने शाम के समय ऐरावत की पुष्प-माला, अबीर, गुलाल, केशर आदि सुगंधित पदार्थों से पूजा कर स्वागत किया। राज्य पुरोहित ने ऐरावत पर महा लक्ष्मीजी की मूर्ति स्थापित कर वेद मंत्रोच्चार से पूजन संपन्न करवाया। महिलाओं ने 16 गांठों वाला डोरा लक्ष्मीजी को चढ़ाकर अपने-अपने हाथों में बांध लिया। ब्राह्मणों भोजन हुआ और दक्षिणा के रूप में स्वर्ण आभूषण, वस्त्र आदि भेंट किए गए।
दूसरे दिन प्रात: वेद मंत्रोच्चार के साथ जलाशय में महालक्ष्मीजी की मूर्ति का विसर्जन कर ऐरावत को इन्द्रलोक भेज दिया गया। इस प्रकार माता को गज लक्ष्मी के रूप में पूजा जाने लगा।
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