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दशहरे का महत्व, उससे जुड़ी मान्यताओं और पौराणिक कथाओं के विषय में विस्तृत जानकारी आपको भक्त वत्सल के विभिन्न लेखों के माध्यम से हमने दी हैं। इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए हम आपको कुछ ऐसी मान्यताओं के बारे में बताने जा रहे हैं जो दशहरे से जुड़ी है और हिंदू धर्म में जिनका बड़ा महत्व है। इनमें शस्त्र पूजन, वाहन पूजन और अपराजिता के पूजन का विधान शामिल हैं। चलिए जानते हैं शस्त्र पूजन, वाहन पूजन और अपराजिता के पूजन का महत्व…
दशहरा के दिन अपराजिता की पूजा को बहुत शुभ माना जाता है। मान्यता है कि अपराजिता की पूजा करने से जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है। नकारात्मक ऊर्जा दूर रहती है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
विजयादशमी के दिन उत्तर-पूर्व यानी ईशान कोण में जगह को स्वच्छ कर चंदन से आठ पत्तियों वाला कमल का फूल बनाएं। इसके बाद इसमें अपराजिता के फूल या पौधे को रखें।
‘मम सकुटुम्बस्य क्षेम सिद्धयर्थे अपराजिता पूजनं करिष्ये’, इस मंत्र के जाप के साथ पूजन शुरू करें।
कुमकुम, अक्षत, सिंदूर, भोग और घी का दीपक जलाएं। पूजा करने के बाद देवी मां को अपने स्थान पर वापस जाने का निवेदन करें।
दशहरे के दिन शस्त्र पूजन की परंपरा के पीछे मान्यता है कि लंका विजय के बाद श्री राम ने युद्ध में सहयोग करने वाले प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सभी लोगों के प्रति उन्होंने कृतज्ञता प्रकट की थी। इनमें जड़ चेतन सभी शामिल थे। ऐसे में श्री राम ने जड़ वस्तुओं में शामिल अस्त्र-शस्त्र, रथ और वाहनों का भी पूजन कर आभार प्रकट किया था। उसी परंपरा को निभाते हुए आज हम वाहनों की पूजा करते हैं। यह वाहन पूजन रथ-पूजन का ही एक स्वरूप हैं। पहले रथ-पूजन, अश्व-पूजन, शस्त्र-पूजन कर इस परंपरा निर्वाह किया जाता था जो आज वाहन-पूजन का रूप ले चुका है।
इस दौरान सेना के वाहन, पुलिस विभाग के वाहन, आवागमन के यात्री वाहन, निजी वाहन आदि का पूजन किया जाता है। इस पूजा में मां रणचंडी के साथ रहने वाली योगनियों जया और विजया को पूजा जाता है।
दशहरे पर शस्त्र पूजन का भी विशेष महत्व है। इस परंपरा को भारतीय सेना भी हर साल निभाती हैं। मां दुर्गा की दोनों योगिनियों, जया और विजया की पूजा के बाद सेना अपने युद्ध आयुधों और अस्त्र-शस्त्रों की पूजा करती हैं। भगवान राम ने भी रावण से युद्ध करने से पहले शस्त्र पूजा की थी।
कथा के अनुसार, राम ने रावण पर विजय प्राप्त करने हेतु नौ दिनों तक देवी का पूजन कर नवरात्र व्रत किया था, ताकि देवी दुर्गा उनकी विजय में सहायक बने। तभी से नवरात्र में शक्ति एवं शस्त्र पूजा की परंपरा हैं।
इसके अलावा एक और मान्यता है कि माता ने महिषासुर इंद्र भगवान ने दशहरे के दिन ही असुरों पर विजय प्राप्त की थी। महाभारत का युद्ध भी इसी दिन प्रारंभ हुआ था और पांडव अज्ञातवास के बाद इसी दिन पांचाल नगर आए थे। वही अर्जुन ने इसी दिन द्रौपदी को स्वयंवर में जीता था। यह सब कथाएं युद्ध और विजय से संबंधित है इसलिए इस दिन शस्त्र पूजन का विधान है।
राजा विक्रमादित्य ने दशहरा के दिन ही देवी हरसिद्धि की आराधना-पूजा की थी। छत्रपति शिवाजी को इसी दिन देवी दुर्गा की कृपा से तलवार प्राप्त हुई थी। तभी से मराठा अपने शत्रु पर आक्रमण की शुरुआत दशहरे से ही करने लगे थे। तभी से लेकर आज तक महाराष्ट्र में शस्त्र पूजा एक बड़ा महोत्सव है, जिसे सीलांगण एवं अहेरिया नाम से मनाया जाता है।
सीलांगण का अर्थ होता है सीमा उल्लंघन अर्थात वे दूसरे राज्य की सीमा का उल्लंघन करते हुए युद्ध आरंभ करना। इस प्रथा के दौरान सर्वप्रथम नगर के पास स्थित छावनी में शमी वृक्ष की पूजा के बाद पेशवा खेत में जाकर मक्का तोड़ते थे और वहां उपस्थित लोग मिलकर उस खेत को लूटते हैं। यह लूट युद्ध में विजय का प्रतीक है। वही दशहरे के दिन एक विशेष दरबार में बहादुर मराठों की पदोन्नति की परंपरा है।
यह परंपरा राजपूतों में भी है। राजपूत सीलांगण से पूर्व अहेरिया करते थे। वे इस दिन शस्त्र एवं शमी वृक्ष की पूजा कर दूसरे राज्य का अहेर करते थे। अहेर अर्थात उन्हें शिकार मानकर आक्रमण करना।
दशहरे पर शमी पूजा को लेकर एक कथा है कि जब राजा विराट की गायों को कौरवों से छुड़ाने के लिए अर्जुन ने अपने धनुष को फिर से धारण किया था। यह धनुष अर्जुन ने अज्ञातवास की अवधि में शमी की कोटर में छिपाकर रखा था। जब अर्जुन ने अपने गांडीव धनुष को फिर से धारण किया तो पांडवों ने शमी वृक्ष की पूजा की और गांडीव धनुष की रक्षा हेतु शमी वृक्ष का आभार प्रदर्शन किया था । तभी से शस्त्र पूजा के साथ ही शमी वृक्ष की पूजा की परंपरा है।
इससे संबंधित एक और कथा के अनुसार एक बार एक साधु राजा रघु के पास दान प्राप्त करने की इच्छा से आएं। लेकिन उन्हें देने के लिए जब रघु अपने खजाने से धन निकालने गए, तो उन्होंने खजाना खाली पाया। रघु को इस पर लज्जा आई और क्रोध में उन्होंने इंद्र पर चढ़ाई करने का निर्णय लिया। तब इंद्र ने रघु के डर से शमी वृक्ष के पत्तों को सोने का बना दिया। तभी से क्षत्रिय इस दिन शमी वृक्ष के पत्तों पर तीर चलाते हैं एवं उन्हीं पत्तों को पगड़ी में धारण करते हैं।
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