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सतयुग और त्रेता युग की तरह द्वापर युग में भी कई देवताओं ने मनुष्य रूप में जन्म लिया। सबके जन्म के कारण और उद्देश्य अलग-अलग थे। किसी ने वरदान के कारण जन्म लिया तो किसी ने श्राप के चलते। इसी प्रकार महाभारत के युद्ध में शामिल हर किरदार की अपनी कहानी है। एक ऐसी ही कथा है पांडवों में अग्रज धर्मराज युधिष्ठिर।
आज भक्त वत्सल के इस आर्टिकल में जानेंगे युधिष्ठिर की उत्पत्ति की कहानी…
धर्मराज युधिष्ठिर हस्तिनापुर के निर्वासित राजा पांडु और उनकी पत्नी कुंती के पुत्र थे। कुंती ने जब दुर्वासा ऋषि के कहें अनुसार देवहूति मंत्र की सहायता से यम देव का आह्वान किया तो धर्मराज ने अपने अंश से कुंती को एक पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया। इसी वरदान से कुंती को युधिष्ठिर पुत्र रूप में मिलें और धर्मराज यम का अंश होने के कारण धर्मराज युधिष्ठिर नाम से विख्यात हुए। युधिष्ठिर इतने पवित्र और सत्यवादी थे कि उनका रथ कुरुक्षेत्र की धरती से चार अंगुल ऊपर चलता था।
युधिष्ठिर के बचपन की एक कथा महाभारत में है जिसके अनुसार जब युधिष्ठिर अपने चारों भाइयों और 100 कौरवों के साथ गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तब एक दिन आचार्य द्रोण ने उन्हें 'सत्यं वद् धर्मं चर्'। यानि सत्य बोलो और धर्म पर चलो का मंत्र याद करने को कहा। सभी ने इस सूक्ति को बहुत कम समय में याद करते हुए गुरुदेव को सुना दिया लेकिन युधिष्ठिर मौन रहे।
तब द्रोणाचार्य ने प्रश्न किया कि हे युधिष्ठिर क्या तुम इतना सरल वाक्य नहीं याद कर सकें? तब युधिष्ठिर ने गुरु को प्रणाम करते हुए उत्तर दिया कि, आज मैंने और मेरे भाइयों ने खेल-खेल में चीटियों के एक दल को उनकी पक्तिं से हटा दिया था। क्या हमने धर्म किया? और अगर यह अधर्म था तो फिर हमने सत्य कहां बोला? गुरु द्रोण युधिष्ठिर की इस गंभीरता से बहुत प्रसन्न हुए। गुरु की इस शिक्षा को शिरोधार्य करके धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने पूरे जीवन में कभी भी झूठ नहीं बोला।
कौरवों ने छल से पांडवों को लाक्षागृह में जलाना चाहा लेकिन वे बच गए और खुद को छिपाते हुए जंगलों में भटक रहे थे। छुपते-छुपाते एक दिन वे एकचक्रा नगरी पहुंचे। यहां युधिष्ठिर ने एक कुम्हार के द्वार पर पहुंचकर आश्रय मांगा। कुम्हार ने पूछा कि तुम कौन हो? इस पर युधिष्ठिर ने कहा कि मैं एक मुसाफिर हूं। कुम्हार ने कहा कि आपका उत्तर अधूरा है और अधूरा उत्तर झूठ के बराबर होता है। युधिष्ठिर ने कहा कि, आप एकदम सही कह रहे हैं और आगे से यदि मैं सत्य न कह सका तो मौन रहूंगा पर झूठ नहीं बोलूंगा। इसके बाद से जब भी ऐसी स्थिति आती तो पांडवों की तरफ से भीम बात करते थे।
अज्ञातवास के समय भी युधिष्ठिर ने कभी झूठ नहीं बोला। अज्ञातवास के दौरान सभी पांडवों ने अपने नाम बदल लिए थे। अर्जुन ने अपना नाम बृहन्नला रखा और नृत्य सिखाने लगे। द्रौपदी ने अपना नाम सैरेन्ध्री रख लिया जो एक यक्षिणी का नाम था। भीम, वल्लभ रसोइये बन गए। नकुल सहदेव ने अपने नाम ग्रंथिक और तंतिपाल रखे और गाय घोड़े चराने का काम करने लगे। लेकिन यहां भी धर्मराज युधिष्ठिर के लिए दिक्कत थी। वो झूठ का नाम नहीं रख सकते थे। ऐसे में द्रौपदी ने इसका उपाय सुझाया।
द्रौपदी ने कहा कि पत्नी कभी पति का नाम नहीं लेती। लेकिन वो प्रेम से एकांत में किसी न किसी उपनाम के जरिए पति को पुकारती या बात करती है। तो मैं आपको एकांत के उसी क्षण के नाम कंक से संबोधित करते हुए आपकी समस्या का हल कर देती हूं। इस तरह युधिष्ठिर कंक के नाम से चौपड़ सिखाने वाले बन गए। इन नामों के साथ पांडवों ने राजा विराट के राज्य में अज्ञातवास का एक वर्ष बिताया था।
कभी झूठ नहीं बोलने वाले युधिष्ठिर पर भी जीवन में एक झूठ बोलने का कलंक लगा था। दरअसल महाभारत के युद्ध के 15वें दिन भीम ने अश्वत्थामा नाम के एक हाथी को मार गिराया। लेकिन गलतफहमी में खबर फैल गई कि द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा मारे गए। जब यह बात द्रोणाचार्य को पता चली तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। क्योंकि अश्वत्थामा के माथे पर अमरमणि लगी थी। फिर द्रोणाचार्य ने सोचा कि इस युद्ध में इच्छामृत्यु के वरदान वाले भीष्म तक नहीं बच सकें तो कोई भी अनहोनी संभव है।
इसलिए द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से पूछ कर आश्वस्त होना सही समझा। तब युधिष्ठिर ने कहा , अश्वत्थामा हतः नरो वा कुंजरो वा। युधिष्ठिर के मुंह से द्रोणाचार्य ने अभी अधूरा वाक्य ही सुना था कि श्रीकृष्ण ने विजय घोष का शंख बजा दिया, जिसमें गुरु द्रोण नर या हाथी शब्द नहीं सुन सकें। वे अधूरे सच को सुनकर ही शोक में डूब गए। इसी समय दृष्टद्युम्न ने तलवार से उनका गला काट दिया। इस तरह अधूरे सच का कलंक धर्मराज युधिष्ठिर पर लगा, जिसके कारण उन्हें एक क्षण नर्क में जाने की सजा मिली थी।
द्रौपदी और देविका। द्रौपदी के पुत्र थे प्रतिविंध्य और देविका के पुत्र थे धौधेय। युधिष्ठिर भाला चलाने में पारंगत थे। युधिष्ठिर ने देविका को उनके पिता शिवि साम्राज्य के राजा गोवा सेन के द्वारा आयोजित स्वयंवर में जीता था।
कर्ण की मृत्यु के बाद धर्मराज युधिष्ठिर प्रलाप कर रहे थे। जब कुंती ने उन्हें शांत करने की कोशिश की तो वे अपनी मां पर क्रोधित हो गए। उन्हें इस बात की नाराजगी थी कि कुंती ने यह असलियत छुपाई की कर्ण उनके बड़े भाई थे। अगर कुंती समय रहते उन्हें सच बता देती तो वें अपने भाई के हत्यारे नहीं कहलाते।
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