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हिंदू धर्म में कुबेर देव को धन के देवता के रूप में पूजा जाता है। मान्यताओं के अनुसार दिपावली के दिन कुबेर की पूजा करने का विशेष महत्व है। कहा जाता है कि कुबेर की पूजा से जीवन में आर्थिक संकट नहीं आते। वास्तू अनुसार घर की उत्तर दिशा में कुबेर देव का वास होता है। उन्हें भगवान शिव के परम भक्त और नौ निधियों का स्वामी कहा गया है। लेकिन बहुत कम ही लोग जानते हैं कि आखिरकार दिपावली को लक्ष्मी जी के साथ कुबेर की पूजा क्यों की जाती है और कुबेर कौन हैं? कैसे वे धन के देवता बने और क्या है उनके जन्म की कहानी? भक्त वत्सल के इस आर्टिकल में जानते हैं कुबेर देव के जन्म से लेकर सारी कथा विस्तार से…
स्कंद पुराण के अनुसार कुबेर का पहला जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इस जन्म में उनका नाम गुणनिधि था। बचपन में वे धर्माचरण करते रहे लेकिन युवावस्था में कुसंगति के कारण जुआ और चोरी जैसे कुकर्मों में लिप्त हो गए। इसके बाद उनके पिता ने उन्हे घर से निकाल दिया। एक दिन वे भटकते हुए एक शिव मंदिर में पहुंचे और प्रसाद चुराने का प्रयास करने लगें। छुपने के लिए उन्होंने अंगवस्त्र का सहारा लिया लेकिन मंदिर के पुजारी ने उन्हें देख लिया। इसके बाद उनकी पुजारी से हाथापाई हुई जिसमें गुणनिधि की मृत्यु हो गई। मृत्यु के उपरांत जब यमदूत गुणनिधि को ले जाने लगे तो भगवान शिव के दूतों ने उन्हें रोका और गुणनिधि को कैलाश पर्वत पर ले जाया गया। वहां भगवान शिव ने कुबेर से कहा कि तुम्हारे अंगवस्त्र से मेरे मंदिर के दिपक की रक्षा हुई है, मैं तुमसे प्रसन्न हूं और तुम्हें कुबेर की उपाधि देते हुए देवताओं का खजांची नियुक्त होने का वरदान देता हूं।
इसके बाद कुबेर के अगले जन्म की कथा रामायण में मिलती है, जिसके अनुसार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र महर्षि पुलस्त्य का विवाह राजा तृणबिंदु की पुत्री से हुआ। महर्षि पुलस्त्य के पुत्र का नाम विश्रवा था। विश्रवा का विवाह महामुनि भरद्वाज की कन्या देववर्णिणी के साथ हुआ। इसी काल खंड में शिव के वचनों के अनुसार धन के देवता कुबेर ने ऋषि विश्रवा और माता देववर्णिणी के पुत्र और रावण के सौतेले भाई के रूप में जन्म लिया। विश्रवा का पुत्र होने के कारण ही कुबेर एक नाम वैश्रवण भी है। महर्षि पुलस्त्य के पुत्र महर्षि विश्रवा की एक और पत्नी थीं जिनका नाम कैकसी था। कैकसी ने ही रावण, कुंभकर्ण और विभिषण को जन्म दिया। रावण की मृत्यु के बाद कुबेर को पुन असुरों के नए राजा और यक्षों का सम्राट भी नियुक्त किया गया। साथ ही वे उत्तर दिशा के दिग्पाल भी हुए। भगवान शिव के परम भक्त कुबेर नौ निधियों के भी स्वामी कहे जाते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार कुबेर देव ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए हिमालय में तप किया था। तप के बीच में ही शिव तथा पार्वती वहां प्रकट हुए और कुबेर ने जैसे ही बाएं नेत्र से माता को देखा तो पार्वती माता के तेज से उनका नेत्र भस्म होकर पीला हो गया। फिर कुबेर ने एक अन्य स्थान पर जाकर तपस्या जारी रखी और उनके घोर तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया कि पार्वती के तेज से तुम्हारा नेत्र जलकर पीला पड़ गया है अतः तुम एकाक्षी पिंगल नाम से जाने जाओगे।
उत्तर दिशा के स्वामी व धनाध्यक्ष कुबेर ने कठोर तपस्या से ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर मन की गति से चलने वाला पुष्पक विमान प्राप्त किया था। रावण के पास जो सोने की लंका थी उसका निर्माण भी कुबेर ने ही किया था। लेकिन अपने पिता के कहने पर कुबेर ने सोने की लंका अपने सौतेले भाई रावण को दे दी और स्वयं कैलाश पर्वत पर अलकापुरी नगरी में जाकर बस गए। कुछ समय बाद विश्व विजय पर निकले रावण ने अलकापुरी पर आक्रमण किया और कुबेर से पुष्पक विमान भी छीन लिया। रावण के मृत्यु के बाद कुबेर फिर से असुराधिपति हो गए।
धन के देवता कुबेर को एक बार तीनों लोकों के धन और संपत्ति के अधिपति होने का अहंकार हो गया। अहंकार वश अपने धन वैभव के प्रदर्शन हेतु कुबेर ने सभी देवताओं को महाभोज के लिए आमंत्रित किया। न्योता भगवान शिवजी को भी दिया गया जिस पर भोलेनाथ ने कहा कि उनके स्थान पर उनके पुत्र गणेश आएंगे। महाभोज का आयोजन हुआ। स्वादिष्ट भोजन सोने-चांदी के थालियों में परोसा गया। सभी देवताओं ने पेट भर भोजन किया और बड़े प्रसन्न हुए तभी गणेश जी पहुंचे और उन्हें भी भोज परोसा गया। गणेश जी ने खाते-खाते कुबेर का अन्न भंडार खाली कर दिया। गणेश जी को इस अवस्था में देख कुबेर देव को अपनी गलती का एहसास हुआ और वे अहंकार त्याग कर क्षमा याचना करने लगे। इसके बाद गणेश जी ने उन्हें क्षमा कर सद्बुद्धि का आशिर्वाद दिया।
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