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दस महाविद्याओं में भैरवी की उपासना का बड़ा महत्व है। भैरवी की पूजा अर्चना करने से बंधनों से मुक्ति के साथ व्यापार में बढ़ोतरी और धन सम्पदा में लाभ होता है। माता को त्रिपुर भैरवी और बंदीछोड़ माता के नाम से भी पूजा गया है। भैरवी के मुख्य नाम त्रिपुरभैरवी, चैतन्य भैरवी, सिद्ध भैरवी, भुवनेश्वर संपदाप्रद भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी तथा षटकुटा भैरवी आदि हैं। वहीं भैरवी को दुर्गा सप्तशती में चण्डी के नाम से वर्णित किया गया है। जिन्होंने चण्ड-मुण्ड नामक दो दैत्यों का वध किया था। हिन्दू पञ्चाङ्ग के अनुसार, भैरवी की उत्पत्ति मार्गशीर्ष पूर्णिमा को हुई है।
ऊर्ध्वान्वय की देवी भैरवी माता की चार भुजाएं और तीन नेत्र हैं। इसी कारण मैया को षोडशी के नाम से श्रीविद्या के रूप में भी पूजा गया है।
देवी भैरवी के दो स्वरूपों का वर्णन पौराणिक कथाओं में वर्णित है। देवी भैरवी एक स्वरूप में देवी काली के समान है और श्मशान में एक बिना सिर वाले शव के ऊपर विराजमान हैं। उनकी चार भुजाओं में तलवार, त्रिशूल तथा राक्षस का कटा हुआ मस्तक हैं। चौथी भुजा अभय मुद्रा में भक्तों को आशीर्वाद दे रही हैं।
दूसरे स्वरूप में देवी भैरवी को देवी पार्वती के रूप में वर्णित किया गया है। इस स्वरूप में देवी भैरवी सूर्य के समान प्रकाशमान है। कमल पुष्प के ऊपर सुशोभित इस रूप में भी देवी भैरवी चतुर्भुज रूप में हैं। मैया के दो हाथों में पुस्तक और माला है वहीं दो भुजाएं अभय मुद्रा एवं वरद मुद्रा में हैं।
नारद-पाञ्चरात्र के अनुसार, एक बार देवी काली अपना गौर वर्ण पुनः प्राप्त करने के विचार से अन्तर्धान हो गई। जब भगवान शिव ने लम्बे समय तक देवी को अपने समक्ष नहीं पाया तो वें चिंतित हो गए। देवी की खोज करते हुए शिवजी ने नारदजी से पूछा तो उन्होंने कहा कि, देवी सुमेरु पर्वत के उत्तर में हो सकती है। शिव के आदेश पर जब महर्षि नारद ने वहां देवी को खोज लिया तो उनके सामने शिवजी के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। नारद जी के इस प्रस्ताव से देवी नाराज हो जाती हैं और उनकी देह से एक अन्य षोडशी प्रकट हुई जो त्रिपुर-भैरवी के नाम से विख्यात हुईं।
भैरवी की साधना आसुरी शक्तियों एवं शारीरिक दुर्बलताओं से मुक्ति प्राप्त करने हेतु की जाती है।
ॐ ह्रीं भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहा॥मंत्र- ह्नीं भैरवी क्लौं ह्नीं स्वाहा:
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