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छठ पूजा भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों विशेष तौर पर बिहार, झारखंड, और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रमुख लोकपर्व है। इस पर्व की खासियत है कि इसमें किसी पुरोहित या पंडित की आवश्यकता भी नहीं होती। व्रती स्वयं ही छठी मईया और भगवान सूर्य से सीधे संवाद स्थापित करते हैं। यह धार्मिक आस्था के साथ सामाजिक एकता, सामूहिक सहयोग और आत्मानुशासन का अनुपम उदाहरण भी पेश करता है। इस पर्व में विभिन्न धर्मों और जातियों के बीच की दूरियां भी मिट जाती हैं और हर व्यक्ति इसमें बराबर की भूमिका निभाता है। आइए इस आलेख में विस्तार से जानते हैं।
छठ पूजा एकमात्र ऐसा पर्व है जहां ना तो मंत्रोच्चार की परंपरा है और ना ही किसी पंडित की आवश्यकता पड़ती है। व्रती महिलाएं और पुरुष दोनों हो सकते हैं। और वे सीधे सूर्य देवता और छठी मैया से प्रार्थना करते हैं। इस अनूठे लोकपर्व का उद्देश्य केवल पूजा-अर्चना तक सीमित नहीं है बल्कि यह जाति, धर्म और सामाजिक भेदभाव के सारे बंधनों को समाप्त कर एकजुटता का संदेश भी देता है। यह त्योहार समाज के हर तबके को जोड़ता है। चाहे वह हिंदू हों या मुस्लिम, ऊँची जाति के हों या नीची जाति के। इस पर्व के माध्यम से लोग ना सिर्फ एक-दूसरे के प्रति सम्मान दिखाते हैं। बल्कि, अपने कर्मों में शुद्धता और समर्पण का भाव भी प्रकट करते हैं। समाज में जिन्हें कभी अछूत माना गया उन्हीं डोम जाति के लोग छठ पूजा के सबसे आवश्यक पूजन सामग्री जैसे सूप और दउरा बनाते हैं। व्रती इन्हीं के हाथों से बने बांस के सूप और डलिया को प्रसाद अर्पण और सूर्य को अर्घ्य देने के लिए उपयोग में लाते हैं।
छठ पर्व में प्रसाद पकाने के लिए मिट्टी के चूल्हे का विशेष महत्व है। ये चूल्हे प्रायः कुम्हार जाति और मुस्लिम समुदाय की महिलाएं ही बनाती हैं। समाज में कुम्हारों को पिछड़ी जातियों में गिना जाता रहा है लेकिन छठ महापर्व के दौरान उनकी कला और श्रम को विशेष सम्मान दिया जाता है। आश्चर्यजनक रूप से, मुस्लिम महिलाएं भी हर साल मिट्टी के चूल्हे बनाकर व्रतियों को बेचती हैं और व्रती इन्हें सहर्ष स्वीकार करते हैं। इस पर्व में यह नहीं देखा जाता है कि चूल्हा किस धर्म के व्यक्ति ने बनाया है। बल्कि, उसकी पवित्रता और सादगी को महत्व दिया जाता है। यह पहल सामाजिक सद्भावना और धार्मिक समन्वय का जीवंत उदाहरण पेश करती है।
छठ पूजा का एक महत्वपूर्ण पहलू इसका अनुशासन है। व्रती अपने आहार और जीवनशैली में विशेष संयम बरतते हैं। प्रसाद तैयार करने की पूरी प्रक्रिया में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। अनाज को अच्छी तरह से धोना, धूप में सुखाना और पूरी सावधानी से प्रसाद पकाना इस पर्व का अभिन्न हिस्सा है। इस दैरान झूठ और छल- कपट से दूर रहना भी अनिवार्य माना जाता है। क्योंकि, छठी मइया से कुछ भी छिपाना असंभव है। व्रती सूर्य को अर्घ्य देने के बाद भी प्रार्थना में विनम्रता बनाए रखते हैं और किसी गलती के लिए छठी मैया से क्षमा भी मांगते हैं। यह आत्मशुद्धि और आत्मानुशासन का श्रेष्ठ उदाहरण है।
छठ पूजा का एक अनूठा पक्ष यह है कि इसमें उगते सूर्य के साथ-साथ डूबते सूर्य को भी अर्घ्य दिया जाता है। डूबते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा इस बात का प्रतीक है कि जीवन के हर पक्ष को समान रूप से सम्मान दिया जाना चाहिए। चूंकि, छठी मैया को प्रकृति की देवी का छठा अंश माना जाता है। इसलिए, यह पूजा प्रकृति और जीवन के प्रति आभार व्यक्त करने का भी एक माध्यम है। अर्घ्य देते समय व्रती जल और दूध से भरे सूप में दीप जलाकर सूर्य देवता का आह्वान करते हैं।
छठ पूजा में प्रसाद ग्रहण करने के बाद व्रती के पैर छूकर आशीर्वाद लेने की प्रथा है। इसमें कोई भेदभाव नहीं होता कि व्रती किस जाति या धर्म से है। यहां तक कि अगर कोई मुस्लिम व्यक्ति भी छठ पूजा करता है तो उसे भी वही सम्मान और स्वीकृति मिलती है। यह परंपरा जाति और धर्म की दीवारों को तोड़कर एक समानता और भाईचारे का संदेश देती है।
छठ पूजा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि समाज को एकजुट करने वाला एक महापर्व है। यह पर्व धर्म, जाति और सामाजिक भेदभाव को समाप्त कर मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देता है। बिना किसी पुरोहित के, यह पूजा आत्मानुशासन, पवित्रता और समानता की एक अद्भुत मिसाल पेश करती है।
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