भगवान विष्णु की उत्पत्ति, Bhagavaan Vishnu kee utpatti

शिव की इच्छा से जन्में  हैं भगवान विष्णु, जानें कैसे मिला विष्णु नाम?


पौराणिक कथाओं के अनुसार त्रिदेव यानी ब्रह्मा विष्णु महेश देवताओं में सर्वश्रेष्ठ माने गए हैं। संसार के निर्माण, संचालन और संहार का कार्य इन तीनों के ही हाथ में है। इन त्रिदेवों में भगवान विष्णु पालनकर्ता के रूप में संसार को चलाते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि दुनिया के संचालन कर्ता श्रीहरि विष्णु जी की उत्पत्ति कैसे हुई? इस संदर्भ में , शिवपुराण की कथा प्रचलित हैं। 


शिव पुराण में उल्लेख है कि विष्णु जी की उत्पत्ति भगवान शंकर जी की इच्छा से हुई है। शिव जी ने एक बार अपने मनोभाव प्रकट करते हुए पार्वती से कहा कि मैं सृष्टि का पालन करने में सक्षम एक ऐसे श्रेष्ठतम साधक की रचना करना चाहता हूं जो संसार का संचालन कर सकें। शिव जी की इच्छानुसार आदिशक्ति ने कमल नयन, चतुर्भुजी और कौस्तुकमणि से सुशोभित विष्णु जी को अवतरित किया। सर्वत्र व्याप्त होने में सक्षमता के कारण उनका नाम विष्णु हुआ़। अवतरित होने के तुरंत बाद भगवान शिव ने उन्हें तप के लिए भेजा। चिरकाल तक तपस्या करने के बाद भगवान श्रीहरि विष्णु जी ने अपने तपोबल से जल की उत्पत्ति कर जीवन सृजन किया।


भगवान विष्णु की सवारी गरुड़ है। इनके एक हाथ में कौमोदकी गदा, दूसरे हाथ में पाञ्चजन्य शंख, तीसरे हाथ में सुदर्शन चक्र और चौथे हाथ में कमल है।


शास्त्रानुसार यह है भगवान विष्णु के मुख्य 24 अवतार


1. आदि पुरुष, 

2. चार सनतकुमार, 

3. आदि वराह, नील वराह

4. नारद

5. नर-नारायण 

6. कपिल

7. दत्तात्रेय 

8. याज्ञ

9. ऋषभ 

10. पृथु

11. मत्स्य

12. कच्छप  

13. धनवंतरी 

14. मोहिनी

15. नृसिंह

16. हयग्रीव 

17. वामन

18. परशुराम 

19. व्यास

20. राम

21. बलराम 

22. कृष्ण

23. बुद्ध

24. कल्कि - मान्यता है कि यह अवतार कलयुग में होगा जिसमें भगवान विष्णु कल्की नामक योद्धा का अवतार लेकर धर्म की रक्षा करेंगे। 


भगवान विष्णु की पत्नी लक्ष्मी जी है इसलिए उन्हें  ‘लक्ष्मीपति’ भी कहा जाता है। तुलसी भी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय हैं। इसलिए तुलसी को ‘विष्णुप्रिया‘ नाम मिला। भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेषनाग पर शयन की मुद्रा में विराजमान हैं। उनकी नाभि से उत्पन्न कमल में ब्रह्मा जी का वास है। ऋग्वेद में विष्णु जी को ‘बृहच्छरीर‘ (विशाल शरीर वाला), परम बलशाली, युवाकुमार आदि नाम दिए गए हैं। इसके अलावा जिष्णु, महाविष्णु, हरि, कृष्ण, भधोक्षज, केशव, माधव, राम, अच्युत, पुरुषोत्तम, गोविंद, वामन, श्रीश, श्रीकांत, नारायण, मधुरिपु, अनिरुद्ध, त्रीविक्रम, वासुदेव, यगत्योनि, अनन्त, विश्वाक्षिभूणम्, शेषशायिन, संकर्षण, प्रद्युम्न, दैत्यारि, विश्वतोमुख, जनार्दन आदि नामों से भी भगवान विष्णु की आराधना की जाती है। 

विष्णु जी के मंत्र

1. ॐ अं वासुदेवाय नम:

2. ॐ विष्णवे नम:।

3. ॐ हूं विष्णवे नम:।

4. श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे। हे नाथ नारायण वासुदेवाय।।

5. ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नम:।

6. ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।

7. ॐ नमो नारायण। श्री मन नारायण नारायण हरि हरि। 

8. ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि। ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि।

9. ॐ अं प्रद्युम्नाय नम:

10. दन्ताभये चक्र दरो दधानं, कराग्रगस्वर्णघटं त्रिनेत्रम्। धृताब्जया लिंगितमब्धिपुत्रया, लक्ष्मी गणेशं कनकाभमीडे।

11. ॐ नारायणाय नम:।

12. ॐ अ: अनिरुद्धाय नम:। 


विष्णु पुराण का महत्व 


देवताओं में सर्वश्रेष्ठ माने गए भगवान विष्णु की महिमा विष्णुपुराण में बताई गई है। अट्ठारह पुराणों में से एक इस महा ग्रन्थ को श्री पाराशर ऋषि द्वारा लिखा गया है। यह विष्णु प्रधान ग्रंथ है लेकिन इसमें विष्णु और शिव के परस्पर आराध्य होने का विस्तार से जिक्र है। इसमें भगवान कृष्ण शिव के साथ अपनी अभिन्नता को इस श्लोक में पारिभाषित किया है। 


“ त्वया यदभयं दत्तं तद्दत्तमखिलं मया। मत्तोऽविभिन्नमात्मानं द्रुष्टुमर्हसि शंकर।

योऽहं स त्वं जगच्चेदं सदेवासुरमानुषम्। मत्तो नान्यदशेषं यत्तत्त्वं ज्ञातुमिहार्हसि। अविद्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्शिनः। वन्दति भेदं पश्यन्ति चावयोरन्तरं हर॥


विष्णु पुराण मुख्यतः श्रीकृष्ण के चरित्र चित्रण का ग्रंथ भी कहा जा सकता है लेकिन इसमें राम कथा का भी आंशिक वर्णन है। 


श्री विष्णु पुराण में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी की सर्वव्यापकता, ध्रुव प्रह्लाद, वेनु की कथा, नौ खण्ड मेदिनी, सप्त सागरों, अर्द्ध लोकों, चौदह विद्याओं, पुरुवंश, कुरुवंश, यदुवंश के साथ-साथ महाप्रलय का भी वर्णन है।

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