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सनातन धर्म में मंत्र और स्तोत्र का विशेष महत्व माना जाता है। धर्म शास्त्रों में मंत्र जाप और स्तोत्र के नियमित पाठ के द्वारा भगवान को प्रसन्न करने का विधान है। इसी परंपरा में शिव तांडव स्तोत्र एक महत्वपूर्ण स्तोत्र है, जो भगवान शिव की स्तुति और आराधना के लिए रचा गया है। शिव तांडव स्तोत्र की उत्पत्ति की कथा भी बहुत रोचक है। कहते हैं कि जब रावण ने अपने अहंकार के कारण कैलाश पर्वत को उठाने का प्रयत्न किया, तो भगवान शिव ने अपने अंगूठे से पर्वत को दबाकर स्थिर कर दिया। इससे रावण का हाथ पर्वत के नीचे दब गया और वह दर्द से कराहता हुआ भगवान शिव की स्तुति करने लगा। इसी स्तुति को शिव तांडव स्तोत्र के नाम से जाना जाता है। इस स्तोत्र की रचना रावण द्वारा की गई है, इसलिए इसे रावण तांडव स्तोत्र के नाम से भी जाना जाता है। शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करने से भगवान शिव बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं और साधक की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। यह स्तोत्र बहुत चमत्कारिक माना जाता है और इसका पाठ करने से साधक को आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के लाभ होते हैं। आइए जानते हैं शिव तांडव स्तोत्र का महत्व और इसके पाठ से होने वाले लाभ के बारे में।
शिवताण्डव स्तोत्र एक ऐसा स्तोत्र है, जो अपनी अनोखी भाषा शैली और काव्यात्मक प्रवाह के कारण शिवभक्तों में बहुत लोकप्रिय है। यह स्तोत्र पंचचामर छन्द में लिखा गया है, जो इसकी संगीतमय ध्वनि और प्रवाह को और भी आकर्षक बनाता है। इस स्तोत्र की भाषा में अनुप्रास और समास का अद्भुत संयोजन है, जो इसकी प्रभावशाली भाषा और काव्य शैली को दर्शाता है। यही कारण है कि शिवताण्डव स्तोत्र को शिवस्तोत्रों में विशिष्ट माना जाता है। इस स्तोत्र में रावण ने अपने द्वारा रचित 17 श्लोकों में भगवान शिव की स्तुति की है, जो उनकी भक्ति और समर्पण को दर्शाता है। यह स्तोत्र शिवभक्तों के लिए एक प्रेरणा और आध्यात्मिक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, शिवतांडव स्तोत्र का पाठ करने से महादेव की कृपा से विभिन्न कलाओं और सिद्धियों में सफलता प्राप्त होती है। यह स्तोत्र नृत्य, चित्रकला, लेखन, योग, ध्यान और समाधि जैसी विभिन्न कलाओं में सिद्धि प्रदान करने वाला माना जाता है। शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को अपार शक्ति, सौंदर्य और मानसिक शक्ति प्राप्त होती है। इसके अलावा यह स्तोत्र व्यक्ति को अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करता है और उन्हें सफलता की ओर ले जाता है। इस स्तोत्र का जाप करने या सुनने से व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आते हैं और उन्हें अपने जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने में मदद मिलती है।
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले, गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं, चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्॥1॥जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी, विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि।धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम॥2॥धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुर, स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे।कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि, क्वचिद्दिगम्बरे(क्वचिच्चिदम्बरे) मनो विनोदमेतु वस्तुनि॥3॥जटा भुजङ्ग पिङ्गल स्फुरत्फणा मणिप्रभा, कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे, मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि॥4॥सहस्र लोचनप्रभृत्य शेष लेखशेखर, प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।भुजङ्ग राजमालया निबद्ध जाटजूटक, श्रियै चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः5॥ललाट चत्वरज्वलद् धनञ्जयस्फुलिङ्गभा, निपीत पञ्चसायकं नमन्निलिम्प नायकम्।सुधा मयूखले खया विराजमानशेखरं, महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः ॥6॥कराल भाल पट्टिका धगद्धगद्धग ज्ज्वला, द्धनञ्जयाहुती कृतप्रचण्ड पञ्चसायके।धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक, प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम॥7॥नवीन मेघ मण्डली निरुद् धदुर् धरस्फुरत्, कुहू निशीथि नीतमः प्रबन्ध बद्ध कन्धरः।निलिम्प निर्झरी धरस् तनोतु कृत्तिसिन्धुरः, कला निधान बन्धुरः श्रियं जगद् धुरंधर: ॥8॥प्रफुल्ल नीलपङ्कज प्रपञ्च कालिम प्रभा, वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्।स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं, गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी, रसप्रवाह माधुरी विजृम्भण मधुव्रतम्।स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं, गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥10॥जयत् वदभ्र विभ्रम भ्रमद् भुजङ्ग मश्वस, द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्।धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल, ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ॥11॥स्पृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्- गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।तृष्णारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः, समप्रवृत्तिकः ( समं प्रवर्तयन्मनः) कदा सदाशिवं भजे॥12॥कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्, विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन्।विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः, शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्॥13॥इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं, पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम्।हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं, विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ॥14॥पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं, यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे।तस्य स्थिरां रथगजेन्द्र तुरङ्ग युक्तां, लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः॥15॥॥ इति रावणकृतं शिव ताण्डव स्तोत्रं संपूर्णम् ॥
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