नवीनतम लेख
सामा-चकेवा पर्व एक महत्वपूर्ण लोक-परंपरा है जो भाई-बहन के पवित्र रिश्ते और समाज में सत्य और प्रेम की अहमियत को दर्शाता है। यह पर्व धार्मिक मान्यताओं के साथ समाज को यह संदेश भी देता है कि झूठी अफवाह फैलाना बुरी बात है। इस पर्व की शुरुआत मिथिला क्षेत्र में हुई थी और अब यह पूर्वी भारत समेत अन्य स्थानों में भी आस्था और उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस साल यह शुक्रवार, 08 नवंबर 2024 से शुरू होकर शुक्रवार, 15 नवंबर 2024 तक मनाया जाएगा। आइए इस लेख में इस मनोरम पर्व के बारे में विस्तार से जानते हैं।
सामा-चकेवा पर्व की कथा भगवान श्रीकृष्ण की पुत्री सामा से जुड़ी है। कथा के अनुसार किसी चुगलखोर ने श्रीकृष्ण को यह झूठी खबर दी कि उनकी बेटी सामा का किसी के साथ अनुचित संबंध है। इस अफवाह से क्रोधित होकर श्रीकृष्ण ने सामा को पक्षी बन जाने का श्राप दे डाला। सामा पक्षी का रूप लेकर जंगलों में भटकती रही। उसके भाई चकेवा को जब इस घटना की जानकारी मिली तो उसने अपने प्रेम और समर्पण से अपनी बहन को फिर से मनुष्य का रूप दिलवाया। सामा को पुनः उसका जीवन मिलने के साथ ही चुगले को भी सजा दी गई। इस कथा की स्मृति में ही सामा-चकेवा पर्व मनाया जाता है। जिससे सामा और चकेवा दोनों भाई-बहन के प्रेम को हर साल याद किया जा सके और समाज में झूठी अफवाह फैलाने वालों को बुराई का प्रतीक बताया जा सके।
सामा-चकेवा पर्व कार्तिक महीने में छठ पर्व के समापन के बाद आरंभ होता है और लगभग सात से दस दिनों तक चलता है। इस दौरान बहनें अपने भाइयों के लंबी उम्र और सुखमय जीवन की कामना करती हैं। इस पर्व में मिट्टी की सामा, चकेवा, चुगला और अन्य पक्षियों की प्रतिमाएं बनाकर पूजा की जाती है। सामा, चकेवा और अन्य प्रतीकात्मक मूर्तियों को मिट्टी से तैयार किया जाता है। चुगला नामक प्रतिमा बुराई और अफवाह फैलाने वाले लोगों का प्रतीक माना जाता है। महिलाएं टोली बनाकर सामा-चकेवा की मूर्तियों को सुंदर तरीके से डाला (बांस की टोकरी) में सजाती हैं और लोकगीत गाते हुए भाइयों के मंगल की कामना करती हैं। इस दौरान शारदा सिन्हा के प्रसिद्ध गीत "सामा-चकेवा" और "चुगला-चुगली" गूंजते रहते हैं जो इस पर्व के माहौल को और भी जीवंत बनाते हैं।
चुगला की प्रतिमा की चोटी में आग लगाकर और उसे प्रतीकात्मक रूप से जूते से पीटकर समाज में झूठ और चुगली की बुराई और उसके परिणाम को दर्शाया जाता है। यह परंपरा बुराई के खिलाफ जागरूकता का प्रतीक भी है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन इस पर्व का समापन होता है। बहनें सामा-चकेवा की मूर्तियों को गीत गाते हुए खेतों में विसर्जित करती हैं। समदाउन गीत गाते हुए वे उदास मन से सामा को अगले वर्ष फिर आने का न्योता देती हैं। इसके बाद भाई-बहन एक दूसरे को चूड़ा और दही खिलाते हैं। जो इस पर्व का एक अनिवार्य हिस्सा है।
इस पर्व के दौरान बहनें अपने भाइयों को नयी फसल से बना चूड़ा-दही खिलाती हैं, जो नई शुरुआत और समृद्धि का प्रतीक है। वहीं, सामा-चकेवा पर्व के अंतिम दिन बहनें सेखारी (मिट्टी के हंडी नुमा पात्र) में चूड़ा, मूढ़ी और मिठाई भरकर भाइयों को देती हैं। इसे पांच मुठ्ठी देने का रिवाज है जो भाई-बहन के संबंध की मिठास और मजबूती का प्रतीक है।
सामा-चकेवा पर्व केवल भाई-बहन के प्रेम और उनके बीच के रिश्ते की मिठास को नहीं दर्शाता, बल्कि समाज को यह सीख भी देता है कि झूठी अफवाह और चुगली से हमें बचना चाहिए। चुगले की प्रतिमा का जलाया जाना समाज को यह संदेश देता है कि बुराई और अफवाह फैलाने वालों को उसकी करनी सजा अनिवार्य रूप से मिलती है।
'इस लेख में दी गई जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। सूचना के विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/धार्मिक मान्यताओं/धर्मग्रंथों से संकलित करके यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक या उपयोगकर्ता इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह से उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता या पाठक की ही होगी।