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हिंदू धर्म में अनेक तीथियां जो बेहद पावन मानी गई है उनमें से ही एक है त्रयोदशी तिथि। यह तिथि भगवान शिव को समर्पित होती है। इस दिन साधक प्रदोष व्रत रखते हैं। ऐसा माना जाता है कि प्रदोष व्रत के दौरान शाम में भोले शंकर का पूजन करने से भगवान प्रसन्न होकर जातक के सभी कष्ट हर लेते हैं। साथ ही यह व्रत करने वाले को भोले शंकर दीर्घ आयु और आरोग्यता का वरदान भी देते हैं। तो आइए, इस आर्टिकल में प्रदोष व्रत में शाम की पूजा की विधि के बारे में विस्तार से जानते हैं।
पंचांग के अनुसार, फरवरी माह का पहले प्रदोष की तिथि 9 फरवरी दिन रविवार को शाम 7 बजकर 25 मिनट से अगले दिन यानी 10 फरवरी सोमवार को शाम 6 बजकर 57 मिनट तक रहेगा। आपको बता दें कि प्रदोष व्रत की पूजा रात में की जाती है, ऐसे में प्रदोष व्रत 9 फरवरी 2025 को रखा जाएगा। फरवरी माह का पहला प्रदोष रविवार को पड़ रहा है इसके कारण यह रवि प्रदोष होगा
- ॐ नमः शिवाय
- ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
- ॐ नमो भगवते रुद्राय नमः
- ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥
- ऊं पषुप्ताय नमः
बता दें कि प्रदोष व्रत पर इन शिव मंत्रों का जाप कर लेने पर उपवास का दोगुना फल प्राप्त हो सकता है।
पौराणिक कथा के अनुसार, प्राचीन समय में एक गांव में गरीब विधवा ब्राह्मणी और उसका एक पुत्र रहा करते थे। जो भिक्षा मांग कर अपना भरण-पोषण करते थे। एक दिन वह दोनों भिक्षा मांग कर वापस लौट रहे थे तभी उन्हें अचानक नदी के किनारे एक सुन्दर बालक दिखा। विधवा ब्राह्मणी उसे नहीं जानती थी कि वह बालक विदर्भ देश का राजकुमार, धर्मगुप्त है। उस बालक के पिता विदर्भ देश के राजा थे, जो युद्ध के दौरान मारे गए थे और उनके राज्य पर दुश्मनों का कब्जा हो गया था। पति के शोक में उस बालक की माता का भी निधन हो गया। उस अनाथ बालक को देख ब्राह्मण महिला को उसपर बहुत दया आ गई। इसलिए, वह उस अनाथ बालक को अपने साथ ही ले गई और अपने बेटे के सामान उसका भी लालन-पालन करने लगी।
एक दिन उस बुजुर्ग महिला की मुलाकात ऋषि शाण्डिल्य से हुई। उन्होंने, उस बुजुर्ग महिला और दोनों बेटों को प्रदोष व्रत रखने की सलाह दी। तब दोनों बालकों ने ऋषि के द्वारा बताए गए नियमों के अनुसार ब्राह्मणी और बालकों ने अपना व्रत सम्पन्न किया जिसके कुछ दिन बाद ही दोनों बालक जंगल में सैर कर रहे थे तभी उन्हें दो सुंदर गंधर्व कन्याएं दिखाई दी।
जिनमें से एक कन्या जिसका नाम अंशुमती था उसे देखकर राजकुमार धर्मगुप्त आकर्षित हो गए। तब गंधर्व कन्या अंशुमती और राजकुमार धर्मगुप्त का विवाह सम्पन्न हो गया। जिसके बाद राजकुमार धर्मगुप्त ने पूरी लगन और मेहनत से दोबारा गंधर्व सेना को तैयार किया और विदर्भ देश पर वापस लौटकर उसे हासिल कर लिया।
सब कुछ हासिल होने के बाद धर्मगुप्त को यह ज्ञात हुआ कि उसे जो कुछ भी आज हासिल हुआ है वो उसके द्वारा किए गए प्रदोष व्रत का ही फल है। तब से यह मान्यता है कि जो भी साधक पूरे विधि से प्रदोष व्रत करता है और इस व्रत कथा का पाठ अथवा श्रवण करता है उसे अगले जन्म में भी किसी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता।
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