मार्गशीर्ष पूर्णिमा पर करें चालीसा पाठ

मार्गशीर्ष पूर्णिमा पर करें इन चालीसा का पाठ, जीवन से खत्म हो सकती है परेशानियां 


मार्गशीर्ष पूर्णिमा हिन्दू धर्म में एक पवित्र और शुभ अवसर है, जो भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा के लिए समर्पित है। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने का विशेष महत्व है। साधक इस दिन सत्यनारायण भगवान की पूजा-अर्चना भी करते हैं। इस दिन चंद्र देव की पूजा का भी विधान है। कहा जाता है कि यदि किसी की कुंडली में चंद्रदोष है तो इस दिन चंद्र देव की पूजा अवश्य करना चाहिए। वहीं, यदि कर्ज या धन संबंधी कोई समस्या है तो इस दिन माता लक्ष्मी की पूजा के बाद लक्ष्मी चालीसा का पाठ जरूर करना चाहिए। मान्यताओं के अनुसार यदि कोई व्यक्ति को जीवन में कष्ट है या रोग से परेशान है तो इस दिन विष्णु चालीसा का पाठ करने से आपकी परेशानियों का हल हो सकता है। ऐसे में आईये जानते हैं मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन विष्णु चालीसा और लक्ष्मी चालीसा के पाठ का विधान और इसके महत्व के बारे में।


कब है मार्गशीर्ष पूर्णिमा 2024? 


पंचाग के अनुसार, साल 2024 में मार्गशीर्ष पूर्णिमा तिथि की शुरूआत 14 दिसंबर को शाम 5 बजकर 13 मिनट पर हो रही है जो 15 दिसंबर दोपहर 2 बजकर 35 मिनट तक जारी रहेगी। ऐसे में 15 दिसंबर को मार्गशीर्ष की पूर्णिमा मनाई जाएगी। इसी दिन व्रत भी रखा जाएगा साथ ही इस दिन स्नान, दान और पूजन के साथ-साथ पितरों का भी तर्पण किया जाएगा। 


विष्णु चालीसा और लक्ष्मी चालीसा का पाठ करने का महत्व


मार्गशीर्ष पूर्णिमा पर विष्णु चालीसा और लक्ष्मी चालीसा का पाठ करना अत्यंत शुभ और लाभकारी माना जाता है। 


विष्णु चालीसा का पाठ:


  • भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने के लिए विष्णु चालीसा का पाठ करना अत्यंत शुभ है।
  • इस चालीसा के पाठ से भगवान विष्णु की कृपा से जीवन में सुख, शांति और समृद्धि आती है।
  • विष्णु चालीसा के पाठ से भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों और गुणों का वर्णन किया जाता है, जिससे जीवन में आध्यात्मिक ज्ञान और शांति प्राप्त होती है।


लक्ष्मी चालीसा का पाठ:


  • माता लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने के लिए लक्ष्मी चालीसा का पाठ करना अत्यंत शुभ है।
  • इस चालीसा के पाठ से माता लक्ष्मी की कृपा से जीवन में धन, समृद्धि और सुख आता है।
  • लक्ष्मी चालीसा के पाठ से माता लक्ष्मी की कृपा से जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और जीवन में सुख, शांति और समृद्धि आती है।


।।श्री लक्ष्मी चालीसा।।


दोहा


मातु लक्ष्मी करि कृपा करो हृदय में वास।

मनोकामना सिद्ध कर पुरवहु मेरी आस।।


सिंधु सुता विष्णुप्रिये नत शिर बारंबार।

ऋद्धि सिद्धि मंगलप्रदे नत शिर बारंबार।।


॥ सोरठा॥


यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करुं। सब विधि करौ सुवास, जय जननि जगदंबिका॥


॥ चौपाई ॥


सिन्धु सुता मैं सुमिरौ तोही। ज्ञान बुद्धि विद्या दो मोही॥


तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरवहु आस हमारी॥


जय जय जगत जननि जगदंबा सबकी तुम ही हो अवलंबा॥


तुम ही हो सब घट घट वासी। विनती यही हमारी खासी॥


जगजननी जय सिन्धु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥


विनवौं नित्य तुमहिं महारानी। कृपा करौ जग जननि भवानी॥


केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥


कृपा दृष्टि चितववो मम ओरी। जगजननी विनती सुन मोरी॥


ज्ञान बुद्घि जय सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता॥


क्षीरसिन्धु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिन्धु में पायो॥


चौदह रत्न में तुम सुखरासी। सेवा कियो प्रभु बनि दासी॥


जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा। रुप बदल तहं सेवा कीन्हा॥


स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥


तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥


अपनाया तोहि अन्तर्यामी। विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी॥


तुम सम प्रबल शक्ति नहीं आनी। कहं लौ महिमा कहौं बखानी॥


मन क्रम वचन करै सेवकाई। मन इच्छित वांछित फल पाई॥


तजि छल कपट और चतुराई। पूजहिं विविध भांति मनलाई॥


और हाल मैं कहौं बुझाई। जो यह पाठ करै मन लाई॥


ताको कोई कष्ट नोई। मन इच्छित पावै फल सोई॥


त्राहि त्राहि जय दुःख निवारिणि। त्रिविध ताप भव बंधन हारिणी॥


जो चालीसा पढ़ै पढ़ावै। ध्यान लगाकर सुनै सुनावै॥


ताकौ कोई न रोग सतावै। पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै॥


पुत्रहीन अरु संपति हीना। अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना॥


विप्र बोलाय कै पाठ करावै। शंका दिल में कभी न लावै॥


पाठ करावै दिन चालीसा। ता पर कृपा करैं गौरीसा॥


सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै। कमी नहीं काहू की आवै॥


बारह मास करै जो पूजा। तेहि सम धन्य और नहिं दूजा॥


प्रतिदिन पाठ करै मन माही। उन सम कोइ जग में कहुं नाहीं॥


बहुविधि क्या मैं करौं बड़ाई। लेय परीक्षा ध्यान लगाई॥


करि विश्वास करै व्रत नेमा। होय सिद्घ उपजै उर प्रेमा॥


जय जय जय लक्ष्मी भवानी। सब में व्यापित हो गुण खानी॥


तुम्हरो तेज प्रबल जग माहीं। तुम सम कोउ दयालु कहुं नाहिं॥


मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै। संकट काटि भक्ति मोहि दीजै॥


भूल चूक करि क्षमा हमारी। दर्शन दजै दशा निहारी॥


बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी। तुमहि अछत दुःख सहते भारी॥


नहिं मोहिं ज्ञान बुद्घि है तन में। सब जानत हो अपने मन में॥


रुप चतुर्भुज करके धारण। कष्ट मोर अब करहु निवारण॥


कहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। ज्ञान बुद्घि मोहि नहिं अधिकाई॥

रामदास अब कहाई पुकारी। करो दूर तुम विपति हमारी।।


॥ दोहा॥


त्राहि त्राहि दुख हारिणी, हरो वेगि सब त्रास। जयति जयति जय लक्ष्मी, करो शत्रु को नाश॥


रामदास धरि ध्यान नित, विनय करत कर जोर। मातु लक्ष्मी दास पर, करहु दया की कोर॥


।। इति लक्ष्मी चालीसा संपूर्णम।।


।।श्री विष्णु चालीसा।।


दोहा 

विष्णु सुनिए विनय सेवक की चितलाय। कीरत कुछ वर्णन करूं दीजै ज्ञान बताय॥


चौपाई 


नमो विष्णु भगवान खरारी, कष्ट नशावन अखिल बिहारी ।


प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी, त्रिभुवन फैल रही उजियारी ॥


सुन्दर रूप मनोहर सूरत, सरल स्वभाव मोहनी मूरत ।


तन पर पीताम्बर अति सोहत, बैजन्ती माला मन मोहत ॥


शंख चक्र कर गदा विराजे, देखत दैत्य असुर दल भाजे ।


सत्य धर्म मद लोभ न गाजे, काम क्रोध मद लोभ न छाजे ॥


सन्तभक्त सज्जन मनरंजन, दनुज असुर दुष्टन दल गंजन ।


सुख उपजाय कष्ट सब भंजन, दोष मिटाय करत जन सज्जन ॥


पाप काट भव सिन्धु उतारण, कष्ट नाशकर भक्त उबारण ।


करत अनेक रूप प्रभु धारण, केवल आप भक्ति के कारण ॥


धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा, तब तुम रूप राम का धारा ।


भार उतार असुर दल मारा, रावण आदिक को संहारा ॥


आप वाराह रूप बनाया, हिरण्याक्ष को मार गिराया ।


धर मत्स्य तन सिन्धु बनाया, चौदह रतनन को निकलाया ॥


अमिलख असुरन द्वन्द मचाया, रूप मोहनी आप दिखाया ।


देवन को अमृत पान कराया, असुरन को छवि से बहलाया ॥


कूर्म रूप धर सिन्धु मझाया, मन्द्राचल गिरि तुरत उठाया ।


शंकर का तुम फन्द छुड़ाया, भस्मासुर को रूप दिखाया ॥


वेदन को जब असुर डुबाया, कर प्रबन्ध उन्हें ढुढवाया ।


मोहित बनकर खलहि नचाया, उसही कर से भस्म कराया ॥


असुर जलन्धर अति बलदाई, शंकर से उन कीन्ह लड़ाई ।


हार पार शिव सकल बनाई, कीन सती से छल खल जाई ॥


सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी, बतलाई सब विपत कहानी ।


तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी, वृन्दा की सब सुरति भुलानी ॥


देखत तीन दनुज शैतानी, वृन्दा आय तुम्हें लपटानी ।


हो स्पर्श धर्म क्षति मानी, हना असुर उर शिव शैतानी ॥


तुमने ध्रुव प्रहलाद उबारे, हिरणाकुश आदिक खल मारे ।


गणिका और अजामिल तारे, बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे ॥


हरहु सकल संताप हमारे, कृपा करहु हरि सिरजन हारे ।


देखहुं मैं निज दरश तुम्हारे, दीन बन्धु भक्तन हितकारे ॥


चाहता आपका सेवक दर्शन, करहु दया अपनी मधुसूदन ।


जानूं नहीं योग्य जब पूजन, होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन ॥


शीलदया सन्तोष सुलक्षण, विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण ।


करहुं आपका किस विधि पूजन, कुमति विलोक होत दुख भीषण ॥


करहुं प्रणाम कौन विधिसुमिरण, कौन भांति मैं करहु समर्पण ।


सुर मुनि करत सदा सेवकाई, हर्षित रहत परम गति पाई ॥


दीन दुखिन पर सदा सहाई, निज जन जान लेव अपनाई ।


पाप दोष संताप नशाओ, भव बन्धन से मुक्त कराओ ॥


सुत सम्पति दे सुख उपजाओ, निज चरनन का दास बनाओ ।


निगम सदा ये विनय सुनावै, पढ़ै सुनै सो जन सुख पावै ॥


॥ इति श्री विष्णु चालीसा ॥


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