भगवत गीता चालीसा की रचना और महत्त्व
भगवत गीता आपको आगे बढ़ने की राह दिखाती है और बताती है कि इंसान को अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए और बिना फल की चिंता किए अपना हर काम सच्चाई और ईमानदारी से करना चाहिए। जीवन में सुख-सौभाग्य और जीवन की सही राह पाने के लिए भगवत गीता चालीसा का पाठ नियमित रूप से करना चाहिए। भगवत गीता चालीसा श्रीमद्भगवद्गीता का सार है। इसमें चालीसा छंद है। भगवद गीता चालीसा का पाठ करने से व्यक्ति के जीवन में नई ऊर्जा आती है आपको बता दें कि जो व्यक्ति नियमित रूप से भगवद गीता का पाठ करता है, उसका मन हमेशा शांत रहता है। वह कठिन परिस्थितियों में भी अपने मन को नियंत्रित करने की क्षमता रखता है। वह अपने मन का इस्तेमाल अपनी इच्छानुसार कर सकता है। आईये जानते हैं इस चालीसा को पढ़ने से होने वाले लाभ...
१) भगवत गीता चालीसा हमें जीवन जीने की कला सिखाती है, जो मनुष्य की हर समस्या का समाधान है।
२) सुख-सौभाग्य में वृद्धि होती है।
३) सिद्धि-बुद्धि, धन-बल और ज्ञान-विवेक की प्राप्ति होती है।
४) इंसान जीवन की हर कठिन परिस्थिति का बड़ी ही सरलता से सामना कर लेता है।
प्रथमहिं गुरुको शीश नवाऊँ | हरिचरणों में ध्यान लगाऊँ ||१||
गीत सुनाऊँ अद्भुत यार | धारण से हो बेड़ा पार ||२||
अर्जुन कहै सुनो भगवाना | अपने रूप बताये नाना ||३||
उनका मैं कछु भेद न जाना | किरपा कर फिर कहो सुजाना ||४||
जो कोई तुमको नित ध्यावे | भक्तिभाव से चित्त लगावे ||५||
रात दिवस तुमरे गुण गावे | तुमसे दूजा मन नहीं भावे ||६||
तुमरा नाम जपे दिन रात | और करे नहीं दूजी बात ||७||
दूजा निराकार को ध्यावे | अक्षर अलख अनादि बतावे ||८||
दोनों ध्यान लगाने वाला | उनमें कुण उत्तम नन्दलाला ||९||
अर्जुन से बोले भगवान् | सुन प्यारे कछु देकर ध्यान ||१०||
मेरा नाम जपै जपवावे | नेत्रों में प्रेमाश्रु छावे ||११||
मुझ बिनु और कछु नहीं चावे | रात दिवस मेरा गुण गावे ||१२||
सुनकर मेरा नामोच्चार | उठै रोम तन बारम्बार ||१३||
जिनका क्षण टूटै नहिं तार | उनकी श्रद्घा अटल अपार ||१४||
मुझ में जुड़कर ध्यान लगावे | ध्यान समय विह्वल हो जावे ||१५||
कंठ रुके बोला नहिं जावे | मन बुधि मेरे माँही समावे ||१६||
लज्जा भय रु बिसारे मान | अपना रहे ना तन का ज्ञान ||१७||
ऐसे जो मन ध्यान लगावे | सो योगिन में श्रेष्ठ कहावे ||१८||
जो कोई ध्यावे निर्गुण रूप | पूर्ण ब्रह्म अरु अचल अनूप ||१९||
निराकार सब वेद बतावे | मन बुद्धी जहँ थाह न पावे ||२०||
जिसका कबहुँ न होवे नाश | ब्यापक सबमें ज्यों आकाश ||२१||
अटल अनादि आनन्दघन | जाने बिरला जोगीजन ||२२||
ऐसा करे निरन्तर ध्यान | सबको समझे एक समान ||२३||
मन इन्द्रिय अपने वश राखे | विषयन के सुख कबहुँ न चाखे ||२४||
सब जीवों के हित में रत | ऐसा उनका सच्चा मत ||२५||
वह भी मेरे ही को पाते | निश्चय परमा गति को जाते ||२६||
फल दोनों का एक समान | किन्तु कठिन है निर्गुण ध्यान ||२७||
जबतक है मन में अभिमान | तबतक होना मुश्किल ज्ञान ||२८||
जिनका है निर्गुण में प्रेम | उनका दुर्घट साधन नेम ||२९||
मन टिकने को नहीं अधार | इससे साधन कठिन अपार ||३०||
सगुन ब्रह्म का सुगम उपाय | सो मैं तुझको दिया बताय ||३१||
यज्ञ दानादि कर्म अपारा | मेरे अर्पण कर कर सारा ||३२||
अटल लगावे मेरा ध्यान | समझे मुझको प्राण समान ||३३||
सब दुनिया से तोड़े प्रीत | मुझको समझे अपना मीत ||३४||
प्रेम मग्न हो अति अपार | समझे यह संसार असार ||३५||
जिसका मन नित मुझमें यार | उनसे करता मैं अति प्यार ||३६||
केवट बनकर नाव चलाऊँ | भव सागर के पार लगाऊँ ||३७||
यह है सबसे उत्तम ज्ञान | इससे तू कर मेरा ध्यान ||३८||
फिर होवेगा मोहिं सामान | यह कहना मम सच्चा जान ||३९||
जो चाले इसके अनुसार | वह भी हो भवसागर पार ||४०||
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