चैत्र नवरात्रि और सालभर में पड़ने वाली सभी नवरात्रियों में अखंड ज्योति जलाई जाती है। अखंड ज्योति का अर्थ है—ऐसी ज्योति जो खंडित न हो। नवरात्रि में अखंड ज्योति जलाने से माता रानी प्रसन्न होती हैं और उनके आशीर्वाद से घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है। साथ ही, इसे जलाने से मनोकामनाएं भी पूर्ण होती हैं।
अखंड ज्योति जलाने के कई नियम होते हैं, और इसे जलाते समय पूरी सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि इसका बुझना शुभ नहीं माना जाता। लेकिन यदि किसी कारणवश अखंड ज्योति बीच में ही बुझ जाए या बार-बार बुझने लगे, तो ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए? आइए जानें।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, अखंड ज्योति को पूरे नौ दिनों तक जलते रहना चाहिए। नवरात्रि पूजा के दौरान यदि यह बुझ जाती है, तो इसे अशुभ संकेत माना जाता है। लेकिन घबराने की जरूरत नहीं है। यदि ऐसा हो जाए, तो सबसे पहले मां दुर्गा से क्षमा याचना करें।
इसके बाद, अखंड ज्योति की आधी जली हुई बाती को हटा दें और नई बाती लगाकर दीपक को फिर से जलाएं। ज्योति जलाने के लिए दीपक के बीच में रखे जलते हुए रक्षा सूत्र का उपयोग करें या फिर अखंड ज्योति के पास रखे किसी अन्य दीपक से इसे प्रज्वलित करें।
अगर अखंड ज्योति की बाती बदलनी हो, तो पहले इस बुझी हुई बाती से पास का कोई दीपक जलाएं। इसके बाद, नई बाती और घी डालकर उसी जलते हुए दीपक से अखंड ज्योति को पुनः प्रज्वलित करें। छोटे दीपक को जलने दें और उसके बुझने के बाद उसे हटा दें।
सबसे अच्छा तरीका यह है कि यदि आपको लगे कि अखंड ज्योति की बाती बुझने वाली है, तो उसमें पहले से ही एक नई बाती डाल दें। ऐसा करने से ज्योति खंडित नहीं मानी जाती।
अखंड ज्योति का तात्पर्य है कि नवरात्रि के दौरान दीपक बुझना नहीं चाहिए। मान्यता है कि अखंड ज्योति जलाने से देवी दुर्गा प्रसन्न होती हैं, जिससे परिवार में सुख-शांति और खुशहाली बनी रहती है। इसके साथ ही, देवी की कृपा से मनोकामनाएं भी पूर्ण होती हैं।
ऋग्वेद
यजुर्वेद संस्कृत के दो शब्द यजुष् और वेद शब्द की संधि से बना हुआ शब्द है। यज का अर्थ होता है समर्पण जिसमें यज्ञ यानी हवन को समर्पण की क्रिया माना जाता है।
साम शब्द का अर्थ होता है गायन या गाना। सामवेद में गायन विद्या का भंडार है और माना जाता है कि यहीं से संगीत की उत्पत्ती हुई है। इस वेद में समस्त स्वर, ताल, लय, छंद, गति, मंत्र, स्वरचिकित्सा, राग, नृत्य मुद्रा और भाव के बारे में भी जानकारी मिलती है।
अथर्ववेद की रचना और उसके स्वरूप के आधार पर ऐसा माना जाता है कि इस वेद की रचना चारों वेदों में सबसे आखिर में हुई थी।