ऋषि के शरीर पर ऊगे बांस से बना था भगवान शिव का धनुष, सीता स्वंयवर में भंग होने के बाद तीन हिस्सो में टूटा


आध्यात्मिक मान्यताओं और पौराणिक कथाओं में जानकारी मिलती है कि जनक जी की सभा श्रीराम ने भगवान शिव का दिव्य धनुष 'पिनाक' भंग कर दिया तब ही उनका विवाह माता सीता से संपन्न हो सका। ऐसा कहा जाता है कि जो धनुष श्री राम ने भंग किया था वो किया मामूली धनुष नहीं बल्कि एक ऐसा दिव्य धनुष था जिसकी टंकार मात्र से पृथ्वी थरथरा उठती थी। ऐसे में एक सवाल ये भी उठता है कि जब श्री राम ने उस धनुष को भंग कर दिया तो उस दिव्य धनुष का क्या हुआ.

जानेंगे भक्तवत्सल के इस आर्टिकल में साथ ही जानेंगे भगवान शिव के दिव्य धनुष पिनाक की सारी कथा विस्तार से…


क्या है पिनाक की उत्पत्ति की कहानी?


भगवान शंकर का अद्भुत धनुष ‘पिनाक’ का निर्माण देव शिल्पी विश्वकर्मा जी ने किया था। इसके निर्माण के वक्त विश्वकर्मा जी ने दो धनुष बनाए थे जिनमें से एक का नाम सारंग और दूसरे का नाम पिनाक हुआ। निर्माण के बाद विश्वकर्मा जी ने पिनाक धनुष भगवान शिव को सौंप दिया तो वहीं सारंग धनुष भगवान विष्णु को अर्पित किया गया। ऐसी मान्यता है कि पिनाक भगवान शिव का मूल धनुष था, जिसको धारण करने के बाद शिव का एक नाम पिनाकी भी हुआ। कहा जाता है कि, शिव के पिनाक धनुष की एक टंकार इतनी तेज होती है कि पृथ्वी और आकाश कांप उठते थे, उस धनुष पर प्रत्यंचा खींचने मात्र से बादल फट जाते थे और पृथ्वी डगमगाने लगती थी। यह असाधारण धनुष अत्यंत ही शक्तिशाली था। इस धनुष के एक तीर से भगवान शंकर ने त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया था। वहीं धनुष को तोड़ने की कोशिश खुद सबसे बड़े शिवभक्त रावण ने भी की थी लेकिन वह असफल रहा था। 


पिनाक धनुष के उत्पत्ति में एक एक बड़ी विचित्र कथा सामने आती है। कथा के अनुसार एक बार घने जंगल में कण्व मुनि घोर तपस्या कर रहे थे। तपस्या में लीन होने की वजह से कण्व मुनि को भनक नहीं लगी और उनके शरीर में दीमक ने बाँबी (चींटियों और दीमकों का घोंसला) बना लिया। कुछ दिनों में उस बाँबी पर एक बाँस ऊग आया। जब मुनि की कठोर तपस्या से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए तो उन्होंने अपने अमोघ जल के द्वारा कण्व जी की शरीर को वापस सुंदर बना दिया। जिसके बाद ब्रह्मा जी ने मुनी को अनेक वरदान प्रदान किए और जाते जाते कण्व की मूर्धा पर उगे हुए बाँस का उपयोग करने का सोचा, ब्रह्मा जी जानते थे कि ये कोई साधारण बांस नहीं है। इसलिए इसका उपयोग किया जाना चाहिए। ऐसा सोचकर ब्रह्मा जी ने वह बाँस काटकर विश्वकर्मा जी को दे दिए। भगवान विश्वकर्मा ने उस बांस से दो शक्तिशाली धनुष बनाये, जिनमें एक जिसका नाम सारंग था जिसे भगवान विष्णु को  सौंपा गया और एक जिसका नाम पिनाक था, वह भगवान शिव को समर्पित कर दिया। 


राजा जनक को कैसे मिला शिव का धनुष


देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद यह धनुष देवताओं को सौंप दिया। देवताओं ने इस धनुष को भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम को दिया था। परशुराम ने फिर आगे चलकर यह धनुष महाराजा जनक के पूर्वज देवरात को दे दिया। महाराजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात थे। कहा जाता है कि इस शिव-धनुष को उठाने की क्षमता किसी में नहीं थी। रामायण के बालकांड के 67 वें सर्ग के मुताबिक, यह धनुष एक विशालकाय लोहे के संदूक में रखा था। इस संदूक में आठ बड़े पहिये लगे थे जिसे 5000 लोग खींचकर लाए थे। 


राम के धनुष भंग करने के बाद शिव धनुष का क्या हुआ?


कुछ कथाओं में वर्णन मिलता है कि अपने पूजा ग्रह की सफाई करते वक्त माता सीता ने अपने बांए हाथ से भगवान शिव का धनुष उठा लिया था. जिसे देख जनक जी समझ गए थे कि ये कोई साधारण कन्या नहीं है और जो और जो भी इससे विवाह करेगा, वह भी साधारण पुरुष नहीं होगा। इसी बात की परख करने के लिए जनक ने माता सीता के स्वयंवर का आयोजन किया था। स्वयंवर में जब भगवान श्री राम ने इस शिव-धनुष को भंग किया तो इसकी आवाज से पूरी पृथ्वी कांप उठी और धनुष तीन टुकड़ों में विभाजित हो गया। इनमें से धनुष का एक टुकड़ा आकाश में चला गया था। दूसरा टुकड़ा पाताल लोक में जाकर गिरा और तीसरा टुकड़ा जो धनुष के बीच का हिस्सा वह धरती पर ही रह गया। धरती के जिस जगह पर धनुष का तीसरा भाग गिरा वह आज नेपाल में है। यहाँ एक मंदिर का निर्माण हुआ जिसे धनुषा धाम जाना जाता है। यह मंदिर जनकपुर से कुछ ही दूरी पर है।

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