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छोटा-बड़ा ऊंच-नीच राजा-रंक कोई नहीं।
प्रेम की धरा पर मित्र केवल एक मित्र है।।
संगीतकार और गायक रविंद्र जैन की लिखी ये पंक्तियों मित्रता की परिभाषा को दर्शाती हैं। इन पक्तियों को एक श्रीकृष्ण के चरित्र पर बने एक टीवी सीरियल में कृष्ण-सुदामा के मिलन के दृश्यों पर दिखाया गया था। श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता को लेकर कई कहानियां है। उनकी मित्रता दुनिया में मिसाल के रूप में याद की जाती है।
भक्त वत्सल की जन्माष्टमी स्पेशल सीरीज ‘श्रीकृष्ण लीला’ के तीसरे एपिसोड में आज हम आपको श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता की कहानी बताते हैं…
तीर्थ नगरी उज्जयिनी में गुरु सांदीपनि के आश्रम में कृष्ण और सुदामा एक साथ शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। इसी दौरान दोनों में गहरी दोस्ती हो गई। श्रीकृष्ण जहां गोकुल एक संपन्न घर से थे, वहीं सुदामा एक गरीब ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखते थे। लेकिन कृष्ण ने सुदामा को कभी भी उनकी गरीबी महसूस नहीं होने दी और एक सच्चे मित्र की तरह हमेशा साथ रखा।
एक बार की बात है, कृष्ण सुदामा गुरु माता की आज्ञा से जंगल में लड़कियां लेने गए। गुरु माता ने उन्हें रास्ते में खाने के लिए एक पोटली में चने बांध कर दिए थे। पोटली सुदामा को पकड़ाई गई थी। जब दोनों मित्र लकड़ी चुन रहे थे। तभी अचानक तेज बारिश होने लगी और दोनों एक पेड़ पर चढ़कर बैठ गए। सुदामा पेड़ की ऊपर वाली डाली पर थे और कृष्ण नीचे वाली डाली पर। तेज बारिश में दोनों भीग चुके थे और ठंड के मारे दोनों का बुरा हाल था। दोनों बारिश रुकने का इंतजार कर रहे थे। तभी अचानक कृष्ण को कुछ आवाज सुनाई दी।
कृष्ण ने सुदामा से पूछा, सुदामा यह कैसी आवाज है? क्या कुछ खा रहे हो? सुदामा ने झूठ बोलते हुए कहा कि, ठंड से मेरे दांत किटकिटा रहे हैं। जबकि सुदामा उस समय गुरु माता के दिए हुए चने खा रहे थे। कृष्ण के कानों पर पड़ी आवाज चने चबाने की ही थी। लेकिन सुदामा ने झूठ बोला और अपने मित्र को चने नहीं दिए।
समय बीता और दोनों की शिक्षा पूरी हो गई। भगवान विष्णु की माया से सुदामा को मित्र का अधिकार खाने की सजा मिली। वह एक गरीब ब्राह्मण के रूप में जीवन-यापन करते रहे। मित्र के हिस्से की एक मुट्ठी चने खाने की सजा उन्हें कई वर्षों तक मिलती रही।
लेकिन द्वारकाधीश श्रीकृष्ण अपने मित्र को ज्यादा देर तकलीफ में नहीं देख सके और एक दिन उन्हीं की माया से प्रेरित होकर सुदामा जी अपने मित्र से मदद मांगने द्वारका नगरी जाने की तैयारी करने लगे। वे बड़े संकोच में थे तो उनकी पत्नी ने उन्हें कहा कि श्रीकृष्ण भक्त वत्सल है और अवश्य ही आपकी मदद करेंगे। आप जाएं वह आपके मित्र हैं। इस पर सुदामा ने कहा कि, मैं खाली हाथ कैसे जाऊं? उनके लिए कुछ ना कुछ भेंट तो लेकर जानी होगी? लेकिन सुदामा इतने गरीब थे कि उस समय उनके घर में एक फूटी कौड़ी तक नहीं थी। तभी उनकी पत्नी अपनी पड़ोसन से तीन मुट्ठी चावल मांग कर लाईं और एक लाल कपड़े में बांध कर उन्हें देते हुए कहा कि अपने मित्र को यह भेंट देना।
सुदामा तीन मुट्ठी चावल की पोटली लेकर द्वारका पहुंचे। द्वारका में पहुंचते ही कृष्ण के महल के सामने उन्होंने द्वारपाल से कहा कि मुझे श्रीकृष्ण से मिलना है और उनसे कहिएगा कि मेरा नाम सुदामा है और उनके बचपन का मित्र हूं। पहले तो द्वारपालों ने उनका मजाक उड़ाया,फिर यह सूचना भगवान कृष्ण को जाकर दी। सुदामा का नाम सुनते ही श्रीकृष्ण नंगे पैर ही अपने मित्र से मिलने दौड़ते हुए महल के द्वार पर आ गए।
श्रीकृष्ण ने सुदामा को महल के अंदर ले जाकर खूब आदर सत्कार किया। फिर बातों ही बातों में उन्होंने पूछा कि, मेरे लिए भाभी ने कुछ तो भेंट भेजी होगी। लेकिन कृष्ण के महल की रौनक देखकर सुदामा को वह तीन मुठ्ठी चावल देने में जरा शर्म आने लगी। तब कृष्ण ने खुद ही सुदामा के हाथ से पोटली छीन ली और कच्चे चावल ही खाने लगे। पहली मुट्ठी खाते ही भगवान ने धरती का सारा सुख सुदामा के नाम कर दिया। दूसरी मुट्ठी में बैकुंठ और स्वर्ग लोक सुदामा को दे दिए। भगवान तीसरी मुट्ठी खाने वाले थे, तभी अचानक रुक्मणी जी ने उनका हाथ पकड़ लिया और कहां की क्या आप अकेले ही सारा प्रसाद खा लेंगे? हमारे हिस्से में भी तो आने दीजिए? रुक्मणी ने ऐसा इसलिए किया था क्योंकि अगर भगवान तीसरी मुट्ठी खा लेते तो सारा संसार सुदामा का हो जाता। उसके बाद किसी के पास कुछ नहीं बचता। ऐसे में माता ने अपनी समझदारी से सुदामा को पता भी नहीं लगने दिया और कृष्णा को रोक भी लिया।
कुछ समय बाद सुदामा का जाने का वक्त हो गया और सुदामा कृष्ण से विदा लेने लगे। लेकिन उनके मन में यही था कि कृष्ण ने सारी बातें की लेकिन अभी तक अपने मित्र की गरीबी को देखकर कुछ देने का नहीं सोचा। सुदामा कृष्ण से मांगना नहीं चाहते थे। इसलिए चुपचाप वहां से चल पड़े। लेकिन उन्हें नहीं पता था कि कृष्ण उनके मन की बातें समझते हैं और बिना बोले ही संसार के सारे सुख सुदामा को दे चुके हैं।
भगवान की माया से अनजान सुदामा जब अपनी नगर में पहुंचे तो वहां एक छोटे से नगर की जगह सुदामा नगरी बन चुकी थी। जहां के महल कृष्ण के महल से भी सुंदर थे। उन्हें अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ। उनके घर के स्थान पर एक बहुत भव्य और दिव्य महल बना हुआ था। उन्होंने उस महल में जैसे ही प्रवेश किया तो वहां उनके बालक और उनकी पत्नी उन्हें मिली।
उनकी पत्नी ने उन्हें सारी असलियत सुनाते हुए कहा कि, आपके जाने के बाद विश्वकर्मा भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा से हमारे पूरे नगर को कंचन महलों से सुसज्जित कर गए हैं। सुदामा को अब समझ आया कि कृष्ण ने उन्हें द्वारका से लौटते समय कुछ भी भेंट क्यों नहीं दी? सुदामा ने एक बार फिर भगवान का स्मरण करते हुए कोटि-कोटि धन्यवाद किया। तो इस तरह से भगवान ने अपने मित्र को मित्रता का पाठ भी पढ़ाया और अंत में एक सच्चे मित्र होने का कर्तव्य निभाते हुए सुदामा की जिंदगी खुशियों से भर दी।
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