करवा चौथ की शुरुआत

माता पार्वती ने भगवान शिव के लिए रखा था पहला करवा चौथ व्रत, धोबिन से पड़ा नाम 


प्राचीन कथाओं के अनुसार करवा चौथ की परंपरा देवताओं के समय से चली आ रही है। माना जाता है कि एक बार देवताओं और दानवों में युद्ध शुरु हो गया उस युद्ध में देवताओं की हार हो रही थी। ऐसे में देवता ब्रह्मदेव के पास गए और रक्षा की प्रार्थना की। ब्रह्म देव ने कहा कि इस संकट से बचने के लिए देवताओं की पत्नियों को अपने-अपने पतियों के लिए व्रत रखना चाहिए और सच्चे दिल से उनकी विजय के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।


ब्रह्मदेव ने यह वचन दिया कि ऐसा करने से निश्चित ही इस युद्ध में देवताओं की जीत होगी। ब्रह्मदेव के इस सुझाव को सभी देवताओं और उनकी पत्नियों से खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। ब्रह्मदेव के बताए अनुसार, कार्तिक माह की चतुर्थी के दिन सभी देवताओं की पत्नियों ने व्रत रखा और अपने पतियों की विजय के लिए प्रार्थना की। उनकी यह प्रार्थना स्वीकार हुई और युद्ध में देवताओं की जीत हुई। जैसे ही इस खुशखबरी को देवताओं की पत्नियों ने सुना तो उन्होंने अपना व्रत खोला और खाना खाया। उस समय आकाश में चांद भी निकल आया था। माना जाता है कि इसी दिन के करवा चौथ के व्रत की परंपरा शुरू हुई।


कृष्ण की सलाह पर द्रौपदी ने रखा करवा चौथ  


पौराणिक कथा के अनुसार, जब नीलगिरी पर्वत पर पांडु पुत्र अर्जुन तपस्या करने गए। तब किसी वजह से उन्हें वहीं रुकना पड़ा। उन्हीं दिनों पांडवो पर गहरा संकट आन पड़ा था। तब चिंतित व शोकाकुल द्रौपदी ने भगवान कृष्ण का ध्यान किया एवं कृष्ण के दर्शन होने पर पांडवों के कष्टों का निवारण पूछा। तब निवारण बताते हुए कृष्ण ने कहा- हे द्रौपदी मैं तुम्हारी चिंता एवं संकट का कारण जानता हूं उसके लिए तुम्हें एक उपाय करना होगा। 


जल्दी ही कार्तिक माह की कृष्ण चतुर्थी आने वाली है, उस दिन तुम पूरे मन से करवा चौथ का व्रत रखना। भगवान शिव, गणेश और पार्वती की उपासना करना, तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे। कृष्ण की आज्ञा का पालन करते हुए द्रौपदी ने वैसा ही किया और करवा चौथ का व्रत किया।तब उसे शीघ्र ही अपने पति के दर्शन हुए और सारी चिंताएं समाप्त हो गईं। 


जब मां पार्वती द्वारा भगवान शिव से पति की दीर्घायु एवं सुख-संपत्ति की कामना विधि पूछी गई, तब शिव जी ने करवा चौथ व्रत रखने की कथा सुनाई थी। इस प्रकार सबसे पहले करवा चौथ का व्रत माता गौरी ने भगवान भोलेनाथ के लिए किया था। करवा चौथ का व्रत करने के लिए श्रीकृष्ण ने भी द्रौपदी को ये कथा सुनाई थी।


करवा नाम की धोबिन यमराज से मांग कर लाई पति के प्राण   


करवा नाम की एक पतिव्रता धोबिन अपने पति के साथ तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थित गांव में रहती थी। उसकी पति बूढ़ा और निर्बल था। एक दिन वह नदी के किनारे कपड़े धो रहा था तभी अचानक एक मगरमच्छ वहां आया, और धोबी के पैर अपने दांतों में दबाकर जाने लगा। वृद्ध पति यह देखकर घबरा गया और उससे कुछ कहते न बना तो वह करवा-करवा कहकर अपनी पत्नी को पुकारने लगा। 


धोबिन करवा पति की पुकार सुन वहां पहुंची, तो मगरमच्छ उसके पति को यमलोक पहुंचाने ही वाला था। तब करवा ने मगर को कच्चे धागे से बांध दिया और मगरमच्छ को लेकर यमराज के पास पहुंची। उसने यमराज से अपने पति की रक्षा की गुहार लगाई और साथ ही ये भी कहा कि मगरमच्छ को उसके इस कार्य के लिए कठोर से कठोर दंड देने का आग्रह किया और बोली हे भगवान ! मगरमच्छ ने मेरे पति के पैर पकड़ लिए है। आप मगरमच्छ को इस अपराध के लिए दंड स्वरुप नरक में भेजें। करवा की पुकार सुनकर यमराज ने कहा कि, अभी मगर की आयु शेष है, मैं उसे यमलोक नहीं भेज सकता। इस पर करवा ने कहा- अगर आपने मेरे पति को बचाने में मेरी सहायता नहीं की तो मैं आपको श्राप दे दूंगी और नष्ट कर दूंगी।


करवा का साहस देखकर यमराज भी डर गए और मगर को यमपुरी भेज दिया। साथ ही करवा के पति को दीर्घायु होने का वरदान दिया। तब से कार्तिक कृष्ण की चतुर्थी को करवा चौथ व्रत किया जाता है। 


साहूकार की बेटी ने व्रत तोड़ा और पति की मौत हो गई 


अन्य कथा के अनुसार, एक साहूकार के सात लड़के और एक लड़की थी। सेठानी के साथ उसकी बहुओं और बेटी ने करवा चौथ का व्रत रखा था। रात्रि को साहूकार के लड़के भोजन करने लगे को उन्होंने अपनी बहन से भोजन के लिए कहा। इस पर बहन ने कहा कि आज उसका व्रत है और वह खाना चंद्रमा को अर्घ्य देकर ही खा सकती है। 


बहन को ऐसा देखकर सबसे छोटे भाई से रहा नहीं गया और वह दूर पेड़ पर एक दीपक जलाकर छलनी की ओट में रख देता है। जो ऐसा प्रतीत होता है कि मानों चतुर्थी का चांद हो। उसे देख कर बहन अर्घ्य देकर खाना खाने बैठ जाती है। जैसे ही पहला टुकड़ा मुंह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है। दूसरा टुकड़ा डालती है तो उसमें बाल निकल आता है और तीसरा टुकड़ा डालती है तो उसे उसके पति की मृत्यु का समाचार मिलता है और वो बहुत दुखी हो जाती है। 


इसके बाद उसकी भाभी उसे सच्चाई बताती है कि ऐसा क्यों हुआ। व्रत गलत तरीके से टूटने के कारण देवता उससे नाराज हो गए हैं। इस पर बहन ने निश्चय किया कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं करेगी और अपने सतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन दिलाकर रहेगी। वह पूरे एक साल तक अपने पति के शव के पास बैठी रही उसकी देखभाल करती। 


उसके ऊपर उगने वाली सूईनुमा घास को वह एकत्रित करती जाती है। एक साल बाद फिर चौथ का दिन आता है, तो वह व्रत रखती है और शाम को सुहागिनों से अनुरोध करती है कि 'यम सुई ले लो, पिय सूई दे दो, मुझे भी अपने जैसी सुहागिन बना दो' लेकिन हर कोई मना कर देती है। आखिर में एक सुहागिन उसकी बात मान लेती है। इस तरह से उसका व्रत पूरा होता है और उसके सुहाग को नए जीवन का आशीर्वाद मिलता है।


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