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श्री कृष्ण लीला: जब भगवान ने मथुरा पहुंचते ही कंस की दासी कुब्जा का उद्धार किया

श्री कृष्ण लीला: जब भगवान ने मथुरा पहुंचते ही कंस की दासी कुब्जा का उद्धार किया

अब तक हम कृष्ण अवतार के बारे में जितना भी जानते हैं उससे इतना तो कह सकते हैं कि कान्हा कोई भी काम बिना कारण नहीं करते थे। उनके खेल में, उनके हंसी-मजाक में, उनके नटखटपन में और यहां तक की उनके छोटी से छोटी गतिविधि में कोई बड़ी लीला या बड़ा राज छुपा होता था। जिसे शुरुआत में समझना मुश्किल होता था। लेकिन बाद में हर किसी को यह पता लग जाता था की सृष्टि को चलाने वाले भगवान श्रीकृष्ण अपनी उंगली से सारे ब्रजमंडल, मथुरा, वृंदावन और समुचे संसार को नचा रहे हैं।


भक्त वत्सल की जन्माष्टमी स्पेशल सीरीज ‘श्रीकृष्ण लीला’ के नवें एपिसोड में आज हम आपको कुब्जा उद्धार की कहानी बताने जा रहे हैं… 


गोकुल और वृंदावन में अपनी लीला समाप्त करने के बाद जब युवा अवस्था में श्रीकृष्ण और बलराम पहली बार मथुरा नगरी पहुंचे तो उन्होंने वहां सबसे पहले नगर भ्रमण का मन बनाया। श्रीकृष्ण और बलराम जी एक साथ मथुरा नगरी में घूमते हुए आगे बढ़ रहे थे। मथुरा नगर के वासी उन दोनों के दिव्य दर्शन करते हुए खुद को धन्य महसूस कर रहे थे। दोनों भाइयों की छवि कुछ ऐसी थी कि जो एक बार देखता बस देखता ही रह जाता। 


कंस के अत्याचारों से परेशान मथुरा नगरी के लिए भगवान के दर्शन रेगिस्तान में ओस की बूंदों की तरह थे। सालों से पथराई आंखें भगवान के दर्शन कर नम हो रही थी। तभी रास्ते में एक कुब्जा स्त्री उन्हें मिली। उसकी कमर पर एक कूबड़ निकली हुई थी। इस कारण से सब उसे कुब्जा कहते थे। वो कंस के लिए चन्दन का लेप तैयार करने का काम करती थी और इस वक्त एक कटोरे में लेप और उबटन भरकर कंस के महल की ओर जा रही थी। मथुरा में भगवान से मिलने वाली कुब्जा पहली नगर वासी थी। कुरूपता के कारण कुब्जा से कोई बात नहीं करता था। जैसे ही कृष्ण कुब्जा के पास पहुंचे। उन्होंने उसका रास्ता रोक लिया। वो दूसरे रास्ते से जाने लगी तो कृष्ण वहां भी खड़े हो गए। 


तब उसने कहा- बालक मुझे जाने दो, मैं कंस के दरबार में जा रही हूं। अगर मुझे देर हो गई तो वह मुझे दंड देगा। तब कृष्ण ने पूछा कि माई तुम कौन हो और तुम्हारे हाथ में इस कटोरे में क्या है। तब कुब्जा ने कहा कि इसमें सुगंधित फूलों के रस और चंदन से बना उबटन है। यह कंस के लिए बनाया गया है। मैं कंस की दासी हूं। मेरा नाम तो सैरन्ध्री है। पर कूबड़ी होने के कारण सब मुझको कुब्जा और त्रिवक्रा कहते हैं।


कंस के डर से कुब्जा ने कन्हैया को चंदन लगाने से मना किया


फिर श्रीकृष्ण ने कुब्जा से उन्हें चंदन लगाने को कहा। कृष्ण को देखकर कुब्जा का मन तो हो रहा था कि वह उन्हें खूब चंदन लगाएं और उनकी खूब सेवा करें। लेकिन वह कंस के डर के मारे कृष्ण को मना कर देती है। लेकिन जब कृष्ण बार-बार आग्रह करते हैं तो वह भगवान को चंदन लगाने के लिए राजी हो जाती है। लेकिन कूबड़ी होने के कारण भगवान के गाल तक उसका हाथ नहीं पहुंचता है । ऐसे में वो भगवान के पैरों में चंदन लगाने लगती है। चंदन लगाते हुए भगवान से कहती है- आज तक इस नगरी में किसी ने मेरा नाम नहीं पूछा। किसी ने मुझसे इतनी प्रेम से बात नहीं की। मेरा खुद का मन हो रहा था कि मैं आपको चंदन लगाऊं, लेकिन मैं कंस से डरती थी। 


भगवान ने कुब्जा का उद्धार किया


तभी भगवान नीचे झुक कर अपने एक हाथ से उसकी दाढ़ी को पकड़ते हैं और उसे ऊपर खड़ा करने की कोशिश की। पहले तो वह समझ ही नहीं पाती है कि क्या हो रहा है, लेकिन भगवान की माया से वो कूबड़ी बूढ़ी महिला एकदम सीधी खड़ी हो जाती है और एक सुंदर नारी में बदल जाती है। अब वो भगवान के सामने खड़े होकर उन्हें चंदन लगाती है। भक्त और भगवान के इस मिलन में गोपाल के नेत्रों से आंसू बह रहे थे। वहीं एक सुंदर नारी बनकर भगवान का धन्यवाद करते हुए कुब्जा भी रो रही थी। इस तरह भगवान ने मथुरा पहुंचकर सबसे पहले कुब्जा का उद्धार किया।


कौन थी कुब्जा? 


ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार, कुब्जा रामावतार के दौरान शूर्पणखा थी। जो कृष्णावतार में पुनर्जन्म लेकर आई थी। इस राक्षसी ने पहले तो राम को बलपूर्वक अपना बनाना चाहा, लेकिन जब लक्ष्मण जी ने इसकी नाक काटी तो इसने घोर तपस्या की। तब भगवान विष्णु ने इसे दर्शन दिए। कहा कि तुम्हारी तपस्या का फल तुम्हें द्वापर युग में मिलेगा। कृष्णावतार के समय कुब्जा के रूप में जन्म लेने पर तुम्हारी मुझसे मिलन की इच्छा पूरी होगी और मैं तुम्हारा उद्धार करूंगा।

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