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सनातन धर्म केवल एक धर्म या सम्प्रदाय नहीं बल्कि जीवन जीने की एक उत्तम पद्धति में से एक है। हमारे शास्त्रों में दस दिशाओं के साथ उनके दिग्पालों का भी वर्णन मिलता है। हालांकि हम में अधिकांश लोग सिर्फ चार दिशाओं के बारे में ही भली-भांति जानते हैंं। जिनमें पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण दिशाएं शामिल हैं। जबकि, विज्ञान और वास्तु की दृष्टि में दिशाएं कुल 8 हैं। वहीं, सनातन धर्म में इसकी संख्या 10 बताई गई है, तो आइए जानते हैं उन सभी दसों दिशाओं और उनके दिग्पालों के बारे में विस्तार से..
सनातन धर्म को विश्व का प्राचीनतम धर्म माना जाता है और इसे वैदिक वर्णाश्रम धर्म के नाम से भी जाना जाता है, जिसका तात्पर्य है कि यह धर्म मानव की उत्पत्ति से भी प्राचीन है। सनातन धर्म के अनुसार ब्रह्मांड के आरंभ में जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि निर्माण का विचार किया, तो उनके कानों से दस कन्याओं की उत्पत्ति हुई। इनमें से छह मुख्य और चार गौण कन्याएं थीं। इन कन्याओं ने ब्रह्मा जी से निवास स्थान और योग्य जीवनसाथी के लिए प्रार्थना की। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें अलग अलग दिशाओं में रहने का निर्देश दिया।
1. पूर्वा: जो पूर्व दिशा कहलाई।
2. आग्नेयी: जो आग्नेय दिशा कहलाई।
3. दक्षिणा: जो दक्षिण दिशा कहलाई।
4. नैऋती: जो नैऋत्य दिशा कहलाई।
5. पश्चिमा: जो पश्चिम दिशा कहलाई।
6. वायवी: जो वायव्य दिशा कहलाई।
7. उत्तरा: जो उत्तर दिशा कहलाई।
8. ऐशानी: जो ईशान दिशा कहलाई।
9. ऊर्ध्वा: जो उर्ध्व दिशा कहलाई।
10. अधस्: जो अधो दिशा कहलाई।
इसके पश्चात ब्रह्मदेव ने आठ दिशाओं के लिए 08 देवताओं का निर्माण किया और उन कन्याओं को उनके पति के रूप में समर्पित कर डाला। ब्रह्मदेव ने उन सभी को दिग्पाल की संज्ञा दी जिसका अर्थ होता है दिशाओं के पालक। वे आठ दिग्पाल इस प्रकार हैं..
पूर्व के इंद्र
आग्नेय के अग्नि
दक्षिण के यम
नैऋत्य के सूर्य
पश्चिम के वरुण
वायव्य के वायु
उत्तर के कुबेर
ईशान के सोम
बता दें कि अन्य दो दिशाओं उर्ध्व यानी आकाश में ब्रह्मदेव स्वयं चले गए और अधो यानी पाताल में उन्होंने अनंत शेषनाग को प्रतिष्ठित कर दिया। इस प्रकार सभी 10 दिशाओं को उनके दिग्पाल मिल गए। यहां पर एक बात ध्यान देने वाली है कि अधिकतर ग्रंथों में ईशान दिशा के स्वामी भगवान शिव और अधो दिशा के स्वामी भगवान विष्णु माने जाते हैं। तो चलिए इनके विषय में विस्तार से जानते हैं।
1. पूर्व (पूर्वा): यह दिशा पूर्व दिशा में स्थित है और इसके दिग्पाल इंद्र माने जाते हैं। पूर्व दिशा जीवन देने वाली मानी जाती है, क्योंकि भगवान सूर्य इसी दिशा से उदित होते हैं। वास्तु के अनुसार पूर्व दिशा एकदम खुली होनी चाहिए, जिससे घर में सकारात्मक ऊर्जा का भरपूर संचार हो पाए।
दिग्पाल: इंद्र
मंत्र: ॐ लं इन्द्राय नमः
अस्त्र: वज्र
पत्नी: शची
2. आग्नेय (दक्षिणपूर्व): यह दिशा दक्षिण और पूर्व के बीच स्थित है। इस दिशा के दिग्पाल अग्नि देव हैं और शुक्र ग्रह इसके स्वामी हैं। वास्तु शास्त्र के अनुसार आग्नेय दिशा में रसोईघर होना सबसे शुभ माना जाता है।
दिग्पाल: अग्नि
मंत्र: ॐ अं अग्नेयाय नमः
अस्त्र: दंड
पत्नी: स्वाहा
3. दक्षिण (दक्षिणा): इस दिशा के दिग्पाल यमराज हैं और मंगल ग्रह इसके स्वामी हैं। यह दिशा जीवन में स्थिरता और संतुलन का प्रतीक मानी जाती है। इस दिशा में भारी वस्तुएं रखनी चाहिए।
दिग्पाल: यम
मंत्र: ॐ मं यमाय नमः
अस्त्र: पाश
पत्नी: धूमोर्णा
4. नैऋत्य (दक्षिणपश्चिम): यह दिशा दक्षिण और पश्चिम के बीच स्थित है। इस दिशा के दिग्पाल सूर्य देव हैं और राहु इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। वास्तु के अनुसार, इस दिशा में कोई भी जल स्रोत नहीं होना चाहिए।
दिग्पाल: सूर्य
मंत्र: ॐ सं सूर्याय नमः
अस्त्र: दंड
पत्नी: छाया
5. पश्चिम (पश्चिमा): यह दिशा वरुण देव के अधीन है और इसके स्वामी शनिदेव हैं। यह दिशा जीवन में ख्याति और प्रसिद्धि प्राप्त करने में सहायक मानी जाती है।
दिग्पाल: वरुण
मंत्र: ॐ वं वरुणाय नमः
अस्त्र: पाश
पत्नी: वारुणी
6. वायव्य (उत्तरपश्चिम): यह दिशा वायु देवता के नियंत्रण में है और चंद्रमा इसका स्वामी है। इस दिशा को खुला और वायुमय रखने से पारिवारिक और सामाजिक संबंध मजबूत होते हैं।
दिग्पाल: वायु
मंत्र: ॐ यं वायवे नमः
अस्त्र: अंकुश
पत्नी: स्वास्ति
7. उत्तर (उत्तरा): इस दिशा के दिग्पाल कुबेर हैं, जो धन और समृद्धि के देवता माने जाते हैं। इस दिशा में आर्थिक उन्नति के कारक तत्व माने जाते हैं।
दिग्पाल: कुबेर
मंत्र: ॐ सं कुबेराय नमः
अस्त्र: गदा
पत्नी: भद्रा
8. ईशान (उत्तरपूर्व): यह दिशा शिवजी के अधीन है। इसे सबसे पवित्र दिशा माना जाता है और वास्तु के अनुसार इस दिशा में जल स्रोत रखना शुभ माना जाता है।
दिग्पाल: सोम
मंत्र: ॐ चं चन्द्राय नमः
अस्त्र: पाश
पत्नी: रोहिणी
9. उर्ध्व (आकाश): यह दिशा आकाश की प्रतीक है और इसके अधिपति स्वयं ब्रह्मा जी हैं। यह दिशा समस्त सृष्टि के नियंत्रण का केंद्र मानी जाती है।
दिग्पाल: ब्रह्मा
मंत्र: ॐ ह्रीं ब्रह्मणे नमः
अस्त्र: पद्म
पत्नी: सरस्वती
10. अधो (पाताल): यह दिशा अधो जगत की ओर इंगित करती है और इसके दिग्पाल स्वयं शेषनाग हैं। इस दिशा का वास्तु शांति और आधारभूत स्थिरता के लिए विशेष महत्त्व है।
दिग्पाल: अनंत
मंत्र: ॐ अं अनन्ताय नमः
अस्त्र: नागपाश
पत्नी: विमला
पंडित डॉ. राजनाथ झा के अनुसार दिग्पाल साधना शुरू करने से पहले साधक को अपने शरीर के दाहिने हाथ के अंगूठे के तीन हिस्सों में से एक हिस्से पर लाल चंदन या फिर मसूर की दाल को पीसकर जरूर लगा लेना चाहिए। फिर अपने बाएं हाथ के अंगूठे पर काजल लगा लेने के पश्चात इन दोनों अंगूठे को सामने रखें और नजर को अंगूठे के ऊपर स्थिर करते हुए मन ही मन दिग्पाल के बीज मंत्रों का 108 बार जाप करें। बताते चलें कि दिशाओं के दिग्पालों का सनातन धर्म और वास्तु शास्त्र में बहुत अधिक महत्त्व है। प्रत्येक दिशा को नियंत्रित करने वाले दिग्पाल हमारी जीवनशैली, धन, स्वास्थ्य और समृद्धि पर गहरा प्रभाव डालते हैं। इन दिशाओं का सही उपयोग करके हम जीवन में सकारात्मकता और उन्नति प्राप्त कर सकते हैं।
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